अरे ओ रोशनी
अरे ओ रोशनी
क्यों टिमटिमाती हो,
क्यों इस तरह से दर्द में
खुद को रुलाती हो।
समझ लो तुम स्वयं को
एक अदभुत शक्ति हो
मत रहो दुविधा में
तुम तो वाकई में शक्ति हो।
क्यों गंवा बैठी हो पल को
क्यों भुला बैठी स्वयं को
दर्द को यूँ पाल कर
क्यों गलाती हो स्वयं को।
मत रुंधाओ अब गला
आंखों से आंसू मत बहाओ,
दूर फेंको दर्द को
खुशियों की सरिताएं बहाओ।
है भरी भरपूर क्षमता
तुम उसे महसूस कर लो,
राह में खुशियां खड़ी हैं
दौड़ कर उनको लपक लो।
आज से तुम पथ बदल लो
अश्क बिल्कुल भी न निकलें
खुद को करना है सफल तो
भाव खुशियों के ही निकलें।
स्वयं की शक्ति को महसूस कर
आगे बढ़ो जीतो जहां,
एक दिन खुशियां कदम चूमेंगी
आकर खुद यहां।
कविता अति उत्तम है।
सादर धन्यवाद
किसी को जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण समझाती हुई कवि सतीश जी की बेहद प्रेरक रचना,किसी रोते हुए को आंसू ना बहाने का कोमल प्रयास करती हुई और सही राह की ओर अग्रसर करवाती हुई बेहद प्रेरक कविता और उसका बहुत ही शानदार प्रस्तुतिकरण
बहुत ही सुन्दर और सटीक समीक्षागत टिप्पणी हेतु आपको बहुत बहुत धन्यवाद गीता जी, आपकी यह टिप्पणी निश्चय ही उत्साहवर्धक है, अभिवादन
मुझे सकारात्मक सोंच प्रदान करती बेहद सुंदर पंक्तियां हैं
आपके प्रेम और सहयोग की मैं सदा
आभारी रहूंगी भाई..
कोशिश करूंगी स्वयं को पहचानने और निखारने की…
निश्चय ही आपको समर्पित पंक्तियाँ, जीवन में सदैव उत्साह को संजोकर आगे बढ़ना है। दर्द से किनारा कर लेना है।
जी धन्यवाद आपका..
वाह बहुत खूब