कूटनीति
कूटनीति…
राजनीति वट वृक्छ दबा है
घात क़ुरीति की झाड़ी मे
धूप-पुनीति को अम्बु-सुनीति को
तरसे आँगन-बाड़ी ये
कूटनीति सा कोई चोचला
मध्य हमारे क्युं आया
ये चिन्तन भी त्यागा हमने
ह्रदय से इसको अपनाया
दूर हुए भाई से भाई
नीति-ज्ञान की कमी तले
“सत्यमेव-जयते” भी भूले
सिर्फ अनैतिक पंथ चले
निजी स्वार्थ समयानुकूल
निज राष्ट्र-धर्म से बड़े हुए
परहित,त्याग से आदि-मूल
सद्भाव अचेत हैं पड़े हुए
सच्चे-अच्छे यदि कुसुम कहीं
कुसुमित अभिलाषित दीख पड़े
हर शूल ह्रदय शंका उपजी
छिप जाएंगे आैर खीझ पड़े
ये भी भूले इन्हे ढ़कने मे
इक चुभन को सहना पड़ता है
इनके अस्तित्व को छाया दे
इक पुष्प ही बस कर सकता है
जंग ये व्यर्थ की नेकी से
नासमझी मे बदी ने ठानी है
मिलजुल कर रह लो कायनात
आए तो पाए जानी है
सच्चों से द्वन्द ये झूठों का
तो आदि काल से आया है
पर झूठ से पहले अटल विन्दु
सच ने अनादि से पाया है
त्रेता युग से इक अमिट-प्रसंग
है आज भी अपने मध्य सबक
इस आर्यावर्त की धरा पे थी
रिषि विश्वश्रुवा की ख्याति महक
मालि,सुमालि और माल़्यवान की
एक कुचेष्टा पूर्ण हुई
थी सुता केकसी इनकी
गृहणी बन रिषि राज को वरण हुई
मुनि श्रेष्ठ के जैसा ओजस्वी
सुत कूटनीति की छाया मे
अपना ही लहू विरोधी था
रावण अन्जानी माया मे
उस अमिट काल की परछाहीं
कलिकाल मे फिर घहराई है
इसमे न सिमटने की इच्छा
में हिन्द-धरा थर्राई है
हर आम-खाश अवदान-आश
इक ‘देवदूत’ के संग जुड़ी
देवों की इस धरती की प्रथा
फिर “राम-राज्य” की ओर मुड़ी |
…कवि अवदान शिवगढ़ी
कूटनीति…
राजनीति वट वृक्छ दबा है
घात क़ुरीति की झाड़ी मे
धूप-पुनीति को अम्बु-सुनीति को
तरसे आँगन-बाड़ी ये
कूटनीति सा कोई चोचला
मध्य हमारे क्युं आया
ये चिन्तन भी त्यागा हमने
ह्रदय से इसको अपनाया
दूर हुए भाई से भाई
नीति-ज्ञान की कमी तले
“सत्यमेव-जयते” भी भूले
सिर्फ अनैतिक पंथ चले
निजी स्वार्थ समयानुकूल
निज राष्ट्र-धर्म से बड़े हुए
परहित,त्याग से आदि-मूल
सद्भाव अचेत हैं पड़े हुए
सच्चे-अच्छे यदि कुसुम कहीं
कुसुमित अभिलाषित दीख पड़े
हर शूल ह्रदय शंका उपजी
छिप जाएंगे आैर खीझ पड़े
ये भी भूले इन्हे ढ़कने मे
इक चुभन को सहना पड़ता है
इनके अस्तित्व को छाया दे
इक पुष्प ही बस कर सकता है
जंग ये व्यर्थ की नेकी से
नासमझी मे बदी ने ठानी है
मिलजुल कर रह लो कायनात
आए तो पाए जानी है
सच्चों से द्वन्द ये झूठों का
तो आदि काल से आया है
पर झूठ से पहले अटल विन्दु
सच ने अनादि से पाया है
त्रेता युग से इक अमिट-प्रसंग
है आज भी अपने मध्य सबक
इस आर्यावर्त की धरा पे थी
रिषि विश्वश्रुवा की ख्याति महक
मालि,सुमालि और माल़्यवान की
एक कुचेष्टा पूर्ण हुई
थी सुता केकसी इनकी
गृहणी बन रिषि राज को वरण हुई
मुनि श्रेष्ठ के जैसा ओजस्वी
सुत कूटनीति की छाया मे
अपना ही लहू विरोधी था
रावण अन्जानी माया मे
उस अमिट काल की परछाहीं
कलिकाल मे फिर घहराई है
इसमे न सिमटने की इच्छा
में हिन्द-धरा थर्राई है
हर आम-खाश अवदान-आश
इक ‘देवदूत’ के संग जुड़ी
देवों की इस धरती की प्रथा
फिर “राम-राज्य” की ओर मुड़ी |
…कवि अवदान शिवगढ़ी
अतिउत्तम सर
जय हिंद