नदी और नाला।
जहां गंगा पवित्र है ,
वही पवित्र तो नाला भी होता था कभी,
अगर गंगा पाप धोती है !
तो नाला पापों को समेटता है अपने में।
पर नाले को कौन पूजेगा,
पर कभी नाला भी नदी हुआ करता था ,
वही स्वच्छ जल और और वही पवित्रता
पर जैसे ही नदी सूखी ,हमने बना दिया
उसे नाला !
और अब नाला; नाला है और नदी , नदी है।
बहुत खूब मानुष जी
बहुत बहुत आभार, सतीश सर!
क्या तंज कसा है आपने बिल्कुल सही कहा है आपने यह सब हमारे ही कर्मों का फल है की नदी नाले का स्वरूप ले रही है आपने व्यंग का प्रयोग करते हुए सुंदर रचना प्रस्तुत की है स्वच्छ जल और स्वच्छ मन क्या बात है
अतिसुंदर
बहुत बहुत धन्यवाद ,शास्त्री जी
बहुत बहुत धन्यवाद !अभिषेक सर! कविता में दो तरह के भाव निकलते हैं, एक तो आप ने बता दिया है मगर दूसरे अर्थ को भी खुद न बताते हुए , आप लोगों से ही जानना चाहूंगा बस इतना बताना चाहूंगा कि मैंने प्रतिकात्मक एवं व्यग्यांत्मक शैली का प्रयोग किया है।
दूसरा अर्थ यह है कि अब नदी नदी हुआ करती है और नाला नाला।
इन सब के जिम्मेदार और कोई नहीं हम सब लोग हैं
कविता में गंगा उच्च जाति(ब्राह्मण) का प्रतिक रूप है
और नाला शूद्र (साफ सफाई करने वाले) का ।
जबसे कर्मों का बंटवारा जातिगत आधार पर हुआ है तब से ब्राह्मण ;ब्राह्मण है ,शुद्र; शुद्र है
यह तो आपने बहुत ही सुंदर बात की मेरे हिसाब से जाति और धर्म होना ही नहीं चाहिए इससे हमें भी बहुत पीड़ा होती है सभी का रंग और लहू एक ही है और सबका धर्म एक ही होना चाहिए मानवता।
बिल्कुल सर! विचारों का सम्मान करने के लिए तहदिल से अभिनंदन