पता नहीं चलता।
बर्फ के टुकड़े सा है ये प्यार,
दगा का सूरज कब पींघला दे,
पता नहीं चलता।
वक्त बदले या ना बदले,
इंसान कब बदल जाए,
पता नहीं चलता।
अनजान चहरे समझ
लेते हैं हमें ;
आजकल,
अपनों में नहीं, कौन अपना
पता नहीं चलता।
राख के अन्दर; कोयला ढूंढता,
सूखे में से बूंदें सींचता,
उम्मीद का धागा कब टूंट जाएं;
पता नहीं चलता।
मैं झूठा हूं या सच्चा!
बुरा बहुत या अच्छा!
कब किसी की सोच बदले,
पता नहीं चलता।
कितना भी जताओ,
इश्क!
जितना जताओगे,
उतना ही गंवाओगे,
चैन !सूकुन ! नींद!
कब उड़ जाएं ,
पता नहीं चलता।
–मोहन सिंह (मानुष)
सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत-बहुत आभार व धन्यवाद,😊
सुन्दर
,🙏
nice poetry
Wah very nice
सुंदर रचना
सुंदर अपना सुंदर अभिव्यक्ति तथा सुंदर कविता
बहुत ही बेहतरीन