एक नात लिखूँ
मैं दिल की जज़्बात लिखूँ।
चाहता हूँ एक नात लिखूँ।।
मंदिर और मस्जिद में ढूँढ़ा
ढूँढ़ा काबा -काशी में।
गंगा और यमुना में ढूँढा
ढूँढा जलनिधि राशी में।
मिला नहीं जो मुझको
उसकी क्या मैं बात लिखूँ।
आखिर कैसे मैं नात लिखूँ।।
मौन खड़ी थी मंदिर की मूरत
कोलाहल मस्जिद में था।
एक दिन पाऊँगा मैं उसको
आखिर मैं भी जिद में था।।
तिनके में तरू तरू में तिनका
आखिर एक जात लिखूँ।
खुद में झाँक ‘विनयचंद ‘
हर डाली हर पात लिखूँ।
हर में हर जो बैठा उसकी
एक- एक सौगात लिखूँ।
इश्क ‘विनयचंद ‘कर इंसां से
लाख टके की बात लिखूँ।।
बहुत सुंदर रचना 👏
धन्यवाद बहिन
अन्तश्चेतना, ईश्वरीय सत्ता से तादात्म्य स्थापित कर उसे खोजते हुए, उसे मानव-मानव के बीच प्रेम की सुरम्यता में पा रही है, श्लेष का सुन्दर प्रयोग हुआ है, शब्द युग्मों छटा कविता को जीवंत कर रही है.
सुन्दर मार्गदर्शन के लिए आभार
बिल्कुल सर !परमात्मा का निवास स्थान इंसान के अंदर ही होता हैं। तर्कपूर्ण व यथार्थ परक … बेहतरीन प्रस्तुति
Wah बहुत सुंदर रचना👏👏👏
Waah
आत्मा में परमात्मा को दिखाती हुई कवि की सोच उत्तम है।
अलंकार का सुन्दर प्रयोग