बदल रही है ज़िंदगी

बदल रही है ज़िंदगी, बदल रही हूँ मैं..!
तुम इश्क हो तुम्ही में ढल रही हूँ मैं!!

नरमी तुम्हारे हाथों की ओढ़े हुए हैं धूप..!
तपिश में इसकी बर्फ़ सी पिघल रही हूँ मैं!!

जाना तुम्हें तो ख़ुद का कुछ होश न रहा!
गिरती हूँ कभी और क़भी संभल रही हूँ मैं!!

ख़ुद से छिपाती हूँ मैं अपने दिल का हाल!
लगता है जैसे हाथों से निकल रही हूँ मैं..!!

रस्ता भी मेरा तुम हो मंजिल भी तुम ही हो!
जाऊँ जिधर भी तुम से ही मिल रही हूँ मैं..!!

n 3^07 !
© अनु उर्मिल ‘अनुवाद’

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Responses

  1. बदल रही है ज़िंदगी, बदल रही हूँ मैं..!
    तुम इश्क हो तुम्ही में ढल रही हूँ मैं!!

    नरमी तुम्हारे हाथों की ओढ़े हुए हैं धूप..!
    तपिश में इसकी बर्फ़ सी पिघल रही हूँ मैं!!

    उपर्युक्त चार पंक्तियां पढ़कर बड़ा
    आनन्द प्राप्त हुआ
    एक प्रोफेशनल कवि
    की भांति आपने अपनी
    कविता से हृदय को छू लिया है
    परिपक्व शिल्प सौंदर्य👌👌👌👏

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