अपने साये

अपने साये भी अब अनजान नज़र आते है बिन बुलाये से मेहमान नज़र आते है हर शक्स उदास हर रिश्ते अब तो पत्थरों से ये…

था वो गुलाब

था वो गुलाब के मानिंद नज़र बस तेरी काटों पे गड़ी मैंने भी महसूस किया कैक्टस को नज़रे जो कभी फूलों पे पड़ी राजेश’अरमान’

काफिला

हर फैसले मेरे तेरे क़दमों में थे तूने क़दमों का फ़ासला कर लिया न हो दरम्यां सांसें भी अपनी लेकिन , तूने ज़ख्मों का काफिला…

soch

अपनी उलझनों के हम यूँ आदी हो गए है कभी मुजरिम तो कभी फरियादी हो गए है न होता कुछ तो कुछ और जरूर होता…

मुक्तक

ख़्वाबे-वफ़ा के ज़िस्म की खराश देखकर इन आँसुओं की बिखरी हुई लाश देखकर जब से चला हूँ मैं कहीं ठहरा न एक पल राहें  भी…

शीश महल

जब से तुझको पाया है , जिव देखो तुझ्सा लगता है , दुनियाँ मानो शीश महल , हर चेहरा ख़ुद का लगता है I                                                                                                    …

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