यही सोचा मैं ज़िंदगी की बेहिसी पर ग़ज़ल कहूँगा

September 27, 2016 in ग़ज़ल

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यही सोचा मैं ज़िंदगी की बेहिसी पर ग़ज़ल कहूँगा
अज़ाब तेरे, तेरी अज़ीयत की चाशनी पर ग़ज़ल कहूँगा

भटक रहा हूँ मैं कबसे तन्हा न हमसफर है न रौशनी है
ये सहरा सहरा भटक के यारों मैं तीरगी पर ग़ज़ल कहूँगा

न चाँद अपना न ये सितारे हैं मुझसे रूठे सभी नज़ारे
बयां कर के सभी अदावत में चाँदनी पर ग़ज़ल कहूँगा

ये फूल,खूशबू हसीन नज़ारे मेरे मुक़द्दर में ही नहीं हैं
सभी की मुझसे न जाने क्योंकर मैं दुशमनी पर ग़ज़ल कहूँगा

गरीब हूँ मैं खुदा की मर्जी क़सूर मेरा नहीं है कुछ भी
मगर सदाक़त से बेकसी और मुफलिसी पर ग़ज़ल कहूँगा

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मुहब्बत में आ गये

August 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जितने भी थे फरेबी सियासत में आ गये
बाकी बचे जो उनकी हिमायत में आ गये

कानून को जो खेल समझते रहे सदा
वो आज देख लीजे अदालत मे आ गये

अब पाँच साल बाद नज़र आएँगे सभी
भरपूर वोटों से जो बहुमत में आ गये

नफरत की आग शहर में फैला के चार सू
हाकिम हमारे घर भी इयादत में आ गये

दौलत की मेरे घर में कमी अब नहीं रही
जब से पिता जी मेरे हुकूमत में आ गये

बेवजह तो नहीं है इनायत ये आपकी
कहते हैं आप हम तो मुहब्बत में आ गये

महँगाई मार डालेगी इस दौर की हमें
अच्छे दिनों की आस थी ज़हमत में आ गये

जब ‘साद’ हमको उनकी भी पहचान हो गयी
हम अपने इस शऊर से हैरत में आ गये

अरशद साद ‘रूदौलवी’

आँखों को इंतज़ार की आदत नहीं रही

July 26, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आँखों को इंतज़ार की आदत नहीं रही
अच्छा हुआ के प्यार की आदत नहीं रही

मिलती नहीं किसी से तबियत हमारी अब
हमको किसी भी यार की आदत नहीं रही

बुज़दिल नहीं रहा मैं कभी आप जान लो
दुश्मन के पीछे वार की आदत नहीं रही

हाँ बेशुमार ज़ख्म ज़माने से खाये हैं
लेकिन कभी शुमार की आदत नहीं रही

मैं जानता हूँ मेरे लिए गैर तू नहीं
तुझे पर भी इख्तियार की आदत नहीं रही

पहले की बात और थी अब बात और है
दिल को भी ऐतबार की आदत नहीं रही

राह-ए-वफा के फूल सभी ख़ार बन गये
मुझे भी गम गुसार की आदत नहीं रही

अरशद साद रूदौलवी

तुम बस गये हो आँखों में

July 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

टूटी नींद मेरी तुम्हारे ही ख्वाब से
तुम बस गये हो आँखों में अब महताब से

इक सफ्हा ज़िंदगी का पुरानी किताब से
कुछ लम्हा -ए- फिराक़ जो गुजरे अज़ाब से

मैंने कहा हिसाब बराबर तेरा मेरा
उसने कहा ज़ख्म हो मेरे हिसाब से

लगती है दीद उसकी मयस्सर नहीं मुझे
जब भी मिला छुपा लिया चेहरा नक़ाब में

महकी फिज़ा है ओर ये महका हुआ समां
खुशबू चुरा के कौन है लाया गुलाब से

कैसे चिराग अब बुझाऐंगी आँधियां
हम ने दिए जलाए हैं सब आफताब से

ज़ालिम है ज़ुल्म कर ले ज़माने में तू मगर
कैसे भला बचेगा खुदा के अज़ाब से

अरशद साद

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