by Dhar

ऐसा वक्त कहाँ से लाऊँ

November 7, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

कविता – ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं
वेफिकरी की अलसाई सी उजली सुबहें काली रातें
हकलाने की तुतलाई सी आधी और अधूरी बातें
आंगन में फिर लेट रात को चमकीले से तारे गिनना
सुबह हुए फिर सबसे पहले पिचगोटी का कंकड़ चुनना
मन करता है फिर से मैं एक छोटा बच्चा बन जाऊं
जो मुझको बचपन लौटाए ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं.

बारिश के बहते पानी में छोटी कागज नाव चलाना
आंगन में बिखरे दानों को चुंगती चिड़िया खूब उड़ाना
बाबा के कंधों पर बैठके दूर गाँव के मेला जाना
मेले में जिद करके उनसे गर्मागर्म जलेबी खाना
मन करता है फिर से मैं नन्हों संग नन्हा बन जाऊं
जो मुझको बचपन लौटाए ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं.

मिट्टी के और बालू बाले छोटे प्यारे घरों का बनना
खेतों से चोरी से लाये चूसे मीठे मीठे गन्ना
माँ ना देखे दावे पाँव से हो जाए उन छतों का चढना
पकड़े जाएँ तो फिर माँ से झूठीमूठी बातें गढ़ना
मन करता है फिर से में झूठों संग झूठा बन जाऊं
जो मुझको बचपन लौटाए ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं.

झूठमूठ का झगड़ा करके बात बात पर खूब सा रोना
मान गए तो पल में खुश हों न माने तो चुप न होना
घरवालों से रूठ रूठ कर अपनी सब बातें मनवाना
पढने का नम्बर आया तो लगा दे फिर कोई बहाना
मन करता है फिर से मैं रूठों संग गुस्सा हो जाऊं
जो मुझको बचपन लौटाए ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं.

रात हुए जल्दी से सोना सुबह हुए फिर देर से उठाना
खेलों से मन खुश होता है पढने से हो जाए थकना
माँ मुझको गोदी में ले लो बन जाऊं मैं तेरा ललना
पहले ला दो मेरा पलना फिर तुम मेरा पंखा झलना
मन करता है फिर से मैं एकबार फिर जन्मा जाऊं
जो मुझको बचपन लौटाए ऐसा वक्त कहाँ से लाऊं.

by Dhar

ऐसा क्यों है

June 11, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

चारो दिशाओं में छाया इतना कुहा सा क्यों है

यहाँ जर्रे जर्रे में बिखरा इतना धुआँ सा क्यों है

शहर के चप्पे चप्पे पर तैनात है पुलिसिया

फिर भी मचा इतना कोहराम सा क्यों है.

मिलती है हरएक को छप्पर फाड़कर दौलत

फिर भी यहाँ मरता भूख से इंसान सा क्यों है

चारो तरफ बिखरी हैं जलसों की रंगीनियाँ

फिर भी लोगों में इतना अवसाद सा क्यों है.

हर कोई मन्दिर मस्जिद में जा पुण्य कमाता

फिर भी बढ़ता यहाँ इतना पाप सा क्यों हैं

चलते में बना लेते हैं किसी को भी अपना

फिर भी फैला इतना दुराव सा क्यों है.

उसके जहाँ से आये थे सब एक जैसे लोग

फिर भी यहाँ इतना अलगाव सा क्यों है

वे साथ में जीने मरने की कसमें भी तो खाते थे

फिर भी एक को छोड़कर जीने का अरमान सा क्यों है.

सामने तो खूब कहते थे कि हम सब भाई भाई होते है

फिर भी नजर हटते ही इतना संग्राम सा क्यों है

उसकी गिनती तो अच्छों में होती थी यारो

फिर भी होता इतना बदनाम सा क्यों है.

जनाब तो कहते हैं की सब ठीक चल रहा है

फिर भी होता इतना घमासान सा क्यों है

तेरी साफगोई के तो हम भी कायल थे दोस्त

फिर भी तेरी बातों में इतना घुमाव सा क्यों है.

पिछली बार तो हमसे कहते थे कि यहाँ मत आना

फिर भी आँखों में मेरे आने का इन्तजार सा क्यों है

यहाँ पर तो पहले तासों के मेले लगा करते थे

फिर भी यहाँ इतना सूनसान सा क्यों है.

तुम तो कहते थे कि वो दिल में बसते हैं मेरे

फिर भी उनसे जुदा होने का फरमान सा क्यों है

लाख जोड़े थे टूटे हुए माला के प्यारे से मोती

फिर भी जुड़ने में उनके हैरान सा क्यों है.

सबके चेहरों से टपकती थी कितनी सज्जनता

फिर भी छिपा इनमें ये हैवान सा क्यों है

तुमने तो यहाँ घर बसाने का वादा किया था उनसे

फिर भी यहाँ सन्नाटे का शमशान सा क्यों है.

उनकी बेइज्जती करने का बहुत शौक था तुमको

फिर भी उनके लिए इतना सम्मान सा क्यों है

हमें तो बताया था कि मुंह मोड़ लिया तुमने उनसे

फिर भी दिल में उनका इश्क परवान सा क्यों है.

कहते थे मन्दिर में रहते हैं पत्थर के उजले टुकड़े

फिर भी उस पत्थर में लगता भगवान सा क्यों है

तुमने तो वक्तों में कसम खायी थी ईमानों की

फिर भी तुम्हारा दिल यूं बेईमान सा क्यों है.

भीड़ में तो कहते थे कि बहुत सादे हो मन के

फिर भी अंदर से इतना गुमान सा क्यों है

कहते हैं वो तो बसती है हरएक के दिल में मेहरबानो

फिर भी मोहब्बत का नाम इतना गुमनाम सा क्यों है.

तार टूटे हैं उनके दिल की बजती बीणा के चटके कर

फिर भी वो मोहब्बत के लिए इतना हलकान सा क्यों है

तुम तो कहते थे थूक दोगे उनके आते ही मुंह पर

फिर भी तुम्हारे नक्शों में ये दुआ सलाम सा क्यों है.

घूमते थे हाथों में खंजर लिए उनको मारने की खातिर

फिर भी आज उनपर इतना मेहरबान सा क्यों है

तुम उस वक्त तो कहते थे बेफिजूल की उनको

फिर भी दिल उनकी अदाओं का कदरदान सा क्यों है.

हम जानते हैं तुम दिल से चाहते हो सिर्फ हमको

फिर भी तुम्हारी बातों में दूसरों का बखान सा क्यों है.

by Dhar

क्या बताता

March 15, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

 कविताक्या बताता

तब आधी रात होने की कगार पर खड़ी थी

लेकिन वो थी कि अपने सवाल पर अडी थी

पूंछती थी कितनी मोहब्बत मुझसे करते हो

सब झूठा खेल है या सच में मुझपर मरते हो

यह सवाल उस वक्त जब सारी दुनिया सोती है

कैसे बताता क्या इश्क दिखाने की चीज होती है |1|

रह रह कर उसका पूंछना मुझे मारे डालता था

पता नही कैसे उस वक्त खुद को सम्हालता था

खुबसूरत तो थी वो लेकिन बुद्धू भी खूब थी

कुछ भी हो जालिम जमाने वो मेरी महबूब थी

यह सोचना वहां पर जहाँ सडक भीड़ ढोती  है

कैसे बताता क्या इश्क दिखाने की चीज होती है |2|

बार बार बालों को सम्हाल कर मुझको देखना

नजर चेहरे पर थी मकसद था दिल को कुरेदना

में उसमें खोया था वो मेरा जबाब तलाश करती थी

मेरी उम्र पच्चीस की थी वो अठरह से कम लगती थी

हाय यह बताना उसको जो बात बात पर रोती है

कैसे बताता क्या इश्क दिखाने की चीज होती है |3|

उसके सवाल से तंग आ मैंने बोल ही दिया

असली नकली के तराजू में तोल ही दिया

मोहब्बत तुमसे कितनी है ये तो नही जानता हूँ

जैसी कैसी भी हो तुम दिल से अपनी मानता हूँ

यह सुनना उसका फिर लिपट मुझमें खोती है

कैसे बताता क्या इश्क दिखाने की चीज होती है |4|

    [समाप्त]

by Dhar

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना

January 23, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

जन्म लेकर साथ तुम मेरे पली थी

भेदभावों के समन्दर में वहीं थीं

में पला नाजों से लेकिन तुम नहीं

कौन कहता पीर मन की अनकहीं

पूज्या कहकर लड़कियों की कैसी साधना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना|1|

 

मैं पढ़ा, लेकिन रही तुम अनपढ़ी

मैं खड़ा आगे रही तुम पीछे बढ़ी

मैंने जो भी माँगा वो मुझे मिला

लेकिन तुमसे ये कैसा सिला

चंचला तुम आगे से लड़की होना न मांगना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना |2|

 

मैंने महसूस की थी तुम्हारी मजबूरी

हर ख्वाहिश रहती थी तुम्हारी अधूरी

मेरी शादी में जितना लेना चाहते थे

तुम्हारी शादी में उतना देना चाहते थे

लेकिन मेरी तरह तुम्हारी मर्जी क्यों न पूछना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना |3|

 

मुझे घर में रखा तुम्हें बाहर भेज दिया

तुम पराई हो गयीं मुझे दिल में सहेज दिया

जिस घर को तुमने सजाया था वो मेरा है

जो किसी और ने सजाया था वो तेरा है

खुद अपने घर को छोड़कर ये कैसा रहना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना |4|

 

तुम लड़की होकर इतना कैसे सहती हो

अपनों को छोड़कर दूसरों में कैसे रहती हो

में लड़का होकर भी घर से अलग नही रह सकता

जो तुमने सहा उसका दसवां भी नही सह सकता

ये दर्दों का सिलसिला कब तक है सहना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना |5|

 

मेरी भी गलती थी लेकिन क्या करता

तुम्हारे लड़की होने का खामियाजा कैसे भरता

मैं कुछ न कर सका मुझे इसका अफ़सोस है

मैं लड़का हूँ इसमें मेरा भी दोष है

हो सके तो मुझे माफ़ करते रहना

बहन तुम मुझे इस बार राखी न बांधना |6|

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