भुख

August 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

दोपहर के समय
चिलचिलाती धूप में

चिथडे पहने नंगे पाँव घुमती
नन्ही सी जान भुख से बिलखती

पेट की आग के लिए
कई दुख सहकर भी

कई कई दिन भुखी रहती है

इस उम्र में वो
जिंदगी से मिल चुकी है

भुख के साथ
पुरी तरह हिल चुकी है

विवश है अपना भविष्य
तिमिरमय बनाने को

वह आदी हो चुकी है
इस तरह जिंदगी बिताने को

उसे भी है हसरत
खेलने की पढने की

पर उसे दी गई है शिक्षा
जिंदगी से लड़ने की

वह लड रही है
और अविरल लडती रहेगी

न लड़ाई खत्म होगी
न भुख खत्म होगी

एक दिन वह स्वयं ही
खत्म हो जायेगी

लडते हुए जिंदगी से
चिरनिंद्रा में सो जायेगी

बेकस इंसान

August 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक बेकस इंसान

समाज का जो अंग है
समाज से विभंग है

समाज से वो दूर है
बेबसी से मजबूर है

चाहता है वो भी
सामाजिक बनना

पर बन नही पाता है

इस पूंजी वादी समाज में
खुद को विवश पाता है

उसने जब भी कोशिश की
खुद को बदलने की

अपनी पुरी काया के साथ
सामाजिक ढांचे में ढलने की

अपने घर का आयतन उसे
छोटा ही लगा

एक अनजाने भय से
वो डरा रहा

परिवार को भुख सहना होगा
बेघर हो कर
रहना होगा

तब वो
सामाजिक बन पायेगा

समाज के साथ
कदम मिलाकर
चल पायेगा

उसने महसूस किया है कि
समाज उसके लिए
नही है

समाज हमेशा
पूंजीपतियों का रहा है

गरीब सामाजिक बन कर
सैकड़ों दुख सहा है

उसने उसी समय
सामाजिक बनने का
विचार त्याग दिया

जब आने वाले
अनजाने भय को
उसने याद किया

अब तक सुलग रहा है उठ रहा है धुंआ धुंआ सा

August 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब तक सुलग रहा है उठ रहा है धुंआ धुंआ सा
इक रिश्ता जलते जलते रह गया है जरा जरा सा

कुछ बीज मुहब्बत के      सींचे थे घर के आंगन
बिन खाद पानी पौधा     दिखता है मरा मरा सा

मुद्दत हुई है इश्क की      मैयत ही निकल गई है
दिखता है अब तलक ये दिल यूँ ही भरा भरा सा

रिश्तों की फटी है चादर      तुरपाई कर रहा था
सुई चुभी जो उंगली      रह गया मै डरा डरा सा

वसीयत में मिली शराफत हर शख्स को शहर में
हर बंदा फिर भी क्यूँ है     यही पे लुटा लुटा सा

सुबह निकले थे जरुरतों के संग धुप सर पडी़ थी
शाम लौटा तो हाथ खाली औ खुद थका थका सा

बस राख ही बचा है  कुछ बाकी तो निशां नहीं है
बस्ती थी कल यहां पर   लगता है सुना सुना सा

आजादी

August 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आजादी

चंद सिरफिरे ही थे
जो लेकर आये थे उसे

फिर उनसे हाथ छुड़ा
जाने कहां खिसक गई

अब सुनते हैं कि
ठहरी है
रसूखदारो के यहाँ

जो आ रही थी
मुल्क में
रास्ता भटक गई

बरसों पहले

August 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

बरसों पहले
बंटी थी मरकज से

गणतंत्र के नाम पर
कोई आजादी
जैसी चीज

चंद गिने-चुने
रसूखदारो के बीच

ये सिलसिला
फिर यूँ ही
साल दर साल
चलता रहा

झोपडी का वो
स्वराज
डरा सहमा सा
कोठियों में
पलता रहा

आज भी
यही हो रहा है

उस डरी सहमी सी
आजादी के लिए
मुल्क
रो रहा है

मिजाजे यार ने हैरत में डाल रखा है

August 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मिजाजे यार ने हैरत में डाल रखा है
रकीबो से ये जो रिश्ता कमाल रखा है

सुब्ह से शाम तलक ख्वाहिशों को पाला है
ए ज़िन्दगी तुझे ऐसे संभाल रखा है

देखा है वक्त ने मुझको यूं चलते चलते ही
उम्मीद सा न दिखा तो मलाल रखा है

खयाल ख्वाब से आ या दरीचे दरवाजे
तेरे लिए कई रस्ता निकाल रखा है

जरुरतों ने किया है हमें हैरां इतना
तमाम ख्वाहिशें कल को ही टाल रखा है

मेयार भी न गिरा मुल्क का यूं चौराहे
यतीम क्यूँ है रिआया सवाल रखा है

खुशी इत्मिनान नींदे मुश्किल है सभी
नसीब कैसे हो हैरत में डाल रखा है

बडी कश्मकश है

April 4, 2016 in Other

बडी कश्मकश है मौला
थोडी रहमत कर दे..
या तो ख्वाब न दिखा,
या उसे मुकम्मल कर दे

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