
Qaafir Sameer
जिन्दगी
July 10, 2016 in ग़ज़ल
एक ताज़ा ग़ज़ल के चन्द अश’आर आप हज़रात की ख़िदमत में पेश करता हूँ; गौर कीजिएगा…
चाहता था जिसे जिन्दगी की तरह,
वो रहा बेवफ़ा जिन्दगी की तरह।
हाँ मेरा प्यार था बस उसी के लिए,
जिसने लूटा मुझे था सभी की तरह।
दूर जाके मुझे आजमाता रहा,
जो ज़ेहन में बसा सादगी की तरह।
पास आया न मेरे कभी वो देखो,
मुझमें शामिल रहा तिश्नगी की तरह।
कैसे बीते सफ़र अब ये काफ़िर भला,
रूह में उतरे वो शायरी की तरह।
#काफ़िर (10/07/2016)
कौन जाने
June 12, 2016 in ग़ज़ल
बारहा अब ये हक़ीक़त कौन जाने,
आँख भी करती बग़ावत कौन जाने।
मैं फ़िदा होता रुख़सार पे बस,
इश्क़ है या है इबादत कौन जाने।
जान देना था लुटा आये सनम पर,
इसके भी होते मुहूरत कौन जाने।
मौत की मेरी मुझे परवाह कब है,
जान मेरी हो सलामत कौन जाने।
गेसुओं की छाँव में होगी बसर फ़िर,
ज़ुल्फ़ उनके दें इजाज़त कौन जाने।
रात को उठ बैठ जाता हूँ अचानक,
नींद में भी अब शरारत कौन जाने।
जिस क़दर दुश्वारियाँ हैं आज कल ये,
छोड़ दे काफ़िर मुहब्बत कौन जाने।
#काफ़िर (11/06/2016)
बहकने लगा हूँ
June 11, 2016 in ग़ज़ल
अदाओं से उसकी पिघलने लगा हूँ,
खुदी की गिरह से निकलने लगा हूँ।
बना मैं दिवाना मुहब्बत में उसकी,
मुहब्बत में उसकी बदलने लगा हूँ।
किसे फ़िक्र है अब कहे क्या जमाना,
उसे देखकर अब सवरने लगा हूँ।
कभी बेवज़ह ही करो रुख़ इधर का,
ख्यालों से तेरे मचलने लगा हूँ।
नशा तो नशा है ये मय हो क़ि आँखें,
पिए बिन मैं साक़ी बहकने लगा हूँ।
नहीं आरजू मेरी है चाँद तारे,
मिला है जो तू तो चहकने लगा हूँ।
ये आग़ोश तेरा ये बाहों के साये,
ख़ुदा की क़सम मैं महकने लगा हूँ।
तेरा जिस्म है या कुई संगमरमर,
हुआ राब्ता तो फिसलने लगा हूँ।
तराशा ख़ुदा ने बड़ी रहमतों से,
तेरी ओर खुद मैं दरकने लगा हूँ।
कहीं आइना भी न कर दे बग़ावत,
ये सोचूँ अगर मैं उलझने लगा हूँ।
बड़ा संगदिल है सनम तेरा काफ़िर,
जुदाई की सोचूँ तो मरने लगा हूँ।
#काफ़िर (10/06/2016)
एक ख़्याल सा
June 10, 2016 in ग़ज़ल
याद के दरमियाँ हम मिलेंगे कभी,
फूल गुलशन में भी तो खिलेंगे कभी।
शक़ मेरे इश्क़ पे मत करो साथियाँ,
खत तुम्हें खून से हम लिखेंगे कभी।
आज तो दौर है मुफ़लिसी का मग़र,
चाँद तारे मेरे सँग चलेंगे कभी।
ज़िन्दगी ने किए सौ सितम गम नहीं,
है यकीं ग़म हमारे जलेंगे कभी।
छोड़कर जो गए वो अजीजों में थे,
हाथ अपना बेचारे मलेंगे कभी।
हो रहा है असर अब दुआ का मेरी,
ख़्वाब आँखों में उसके पलेंगे कभी।
हुस्न उसका नहीं है बतौरे बयाँ,
जिद मेरी है गज़ल हम लिखेंगे कभी।
जो गुज़र जाते हैं आज नजरें बचा,
दर पे काफ़िर तेरे वो रुकेंगे कभी।
#काफ़िर
ख़ाहिश
June 10, 2016 in ग़ज़ल
सज़ा सी बन गई है अब जहाँ में प्यार की ख़ाहिश,
समझ आती नहीं मुझको कभी संसार की ख़ाहिश।
न जाने याद कैसी है हमेशा ही रुलाती है,
छुपा कर हाथ से चहरा सनम इक़रार की ख़ाहिश।
बहुत ज़ालिम है मेरी जान मुझको मार डालेगी,
सजाकर हाथ में मँहदी खुले इनकार की ख़ाहिश।
कहाँ चाहत कुई ऐसी न पूरी कर सको जो तुम,
ज़ियादा से ज़ियादा है तिरे दीदार की ख़ाहिश।
भवर में आ फसा हूँ अब उबारो तुम सनम मुझको,
बहुत जादा नहीं है कुछ तिरे बीमार की ख़ाहिश।
मुक़म्मल हो मिरे जज़्बात कोई तो इशारा दो,
रही काफ़िर पे बाकी अब यही उपकार की ख़ाहिश।
गुनहगार हो गया
June 10, 2016 in ग़ज़ल
सच बोलकर जहाँ में गुनहगार हो गया,
लोगों से दूर आज मैं लाचार हो गया।
जो चापलूस थे सिपेसालार बन गए,
मोहताज़ इक अनाज़ से ख़ुद्दार हो गया।
इब्ने अदम ने लाख किए कोशिशें मगर,
इन्सान उसके भीतर गद्दार हो गया।
जाने कहाँ से हुस्न मिला ये तुम्हें सनम,
तीरे नज़र तेरा ये दिले पार हो गया।
हर कोई देखता मुझे शक़ की निगाह से,
हर लफ़्ज़ मेरा जैसे क़ि तलवार हो गया।
कर करके मिन्नतें तुझे मग़रूर कर दिया,
जो इस क़दर ये जीना दुश्वार हो गया।
देती रही सलाह ये दुनिया मुझे मग़र,
था ये जुनूं सवार मुझे प्यार हो गया।
हालात यूं हुए क़ि कहीं का नहीं रहा,
इक दर्द ज़िन्दगी में कई बार हो गया।
ऐसे ही कह दिया क़ि हसीं तुमसे कौन है,
फ़िर सुर्ख़ लब हुआ हँसी रुख़सार हो गया।
काफ़िर बदल नहीं सके वो ख़ाक हो गए,
कैसा यहाँ रिवाज़ मेरे यार हो गया।