अपने आप से मिल लेता हूँ कभी कभी

October 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अजीब आदत है अपने आप से,
मिल लेता हूँ कभी कभी
सच है ! अब वो दौर नही रहा
जहाँ फुरसत हुआ करती थी
अब तो खुद ही में उलझ गए है
फिर भी फुरसत मिल जाती है
दूसरों को सलाह देने की
याद है वो दीवार जहाँ लिखा करते थे
किताबे तो बिना लिखी अच्छी लगती थी
किस्से भुला नहीं वो शरारत के
घर से निकलते ही गलियों मैं झगड़े
वो रंगबिरंगे पतंगों की लूट
याद है बचपन की आज़ादी की छूट
गर्मियों में नंगे पैर बाहर घूमना
बारिशों में कीचड़ मैं खेलना
याद है ठंड़ीयों में मुँह से धुँए निकालना
कोई रिश्ता ना था दूर दूर शिकायत से
अपने आप से गिरना फिर संभलना
अपने आप में रोना फिर मुस्कुराना
सच है ! अब वो दौर नही रहा
जहाँ फुरसत हुआ करती थी
याद है वो झूठी कट्टी बुच्ची
झगड़े होते ही कट्टी किया करते थे
बुच्ची के बहाने मिल लिया कर ते थे
खेल के स्वयं नियम बनाना
याद है नियमों को तोड़ना
मिट्टी के बर्तनों के साथ घर घर खेलना
याद है खेल में एक दिन पूरा घर संभालना
पता नहीं कब थक के सो जाया करते थे
अच्छी नींद आती थी माँ के आँचल में
अब तो खुद ही में उलझ गए है
अजीब आदत है अपने आप से
मिल लेता हूँ कभी कभी

दीपराज वर्मा (मुम्बई)