पत्थरों की तरह आदतें हो गयीं

हम भी रोये नहीं मुद्दतें हो गयीं।
पत्थरों की तरह आदतें हो गयीं।

जबसे बेताज वह बादशाह बन गया,
पगड़ियों पर बुरी नीयतें हो गयीं।

जख्म भी दर्द देते नहीं आजकल,
कम सितमगर तेरी रहमतें हो गयीं।

खुशनुमां एक चेहरा दिखा ख्वाब में,
तबसे जागे न हम मुद्दतें हो गयीं।

थी खबर आदमी हैं उधर राह में,
जो भी गुजरा उसे आफ़तें हो गयीं।

एक मुफ़लिस था वो रोटियाँ माँगकर,
झोलियाँ भर गया नेमतें हो गयीं।

शौक जबसे अमीरी का चढ़ने लगा,
जो जरूरी न थीं, जरूरतें हो गयीं।

उसको जो भी मिला चाहने लग गया,
दिल की पूरी सभी मन्नतें हो गयीं।

ले गयीं दाद सब वो सजी सूरतें,
और खामोश सी सीरतें हो गयीं।

दिल भी टूटा जहां ने भी रुसवा किया,
इस कदर मेहरबां किस्मतें हो गयीं।

डूबकर खुद हवस में बिके आदमीं,
मुफ्त बदनाम ये दौलतें हो गयीं।

वो मुहब्बत में बदनाम तो हैं मगर,
खुश हैं यूँ मानिए शोहरतें हो गयीं।

उसको तनहाइयों ने बिगाड़ा बहुत,
उसकी खुद से बड़ी सोहबतें हो गयीं।

गालियों गालियों जब लड़े आदमी,
तब निशाना फ़क़त औरतें हो गयीं।

मुस्कराकर जो तुम सामने आ गए,
एक पल में जबां हसरतें हो गयीं।

हाँथ में हाँथ ले साथ हम चल पड़े,
दुनियाभर को बहुत दिक्कतें हो गयीं।

संजय नारायण

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  1. उपमा अलंकार का सुंदर प्रयोग करते हुए कवि ने अपनी बातों को बहुत ही सहजता से लिखा है

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