रंग से परहेज़ कैसा
नवगीत
आजकल है
खुब चलन में
झूठ का ये क्रेज़ कैसा ?
रंग सच का
हो अगर तो
रंग से परहेज़ कैसा ?
धर्म की
पिचकारियों में
द्वेष का भर रंग ताने ।
जाति की
लेकर अबीरें
छेड़ते कौमी तराने ।
स्वार्थ में
मदमस्त होकर
लोग रँगते जा रहे है
हो रहा
बेरंग जाने
जिंदगी का पेज़ कैसा ?
प्रेम का
सबरंग मिलकर
खेलते उनसे न बनता ।
खेलते
हुड़दंग नेता
हो रही बदरंग जनता
उड़ रहीं हैं
इन गुलालों
सी चुनावी घोषणाएं
सिर्फ़ ख़ुद को
रँग रहा है
आज का रँगरेज कैसा ?
प्रेम का
देकर छलावा
खेलकर हुड़दंग लौटे
अधखुले पर
फब रहे हैं
गिरगिटी जिनके मुखौटे
टोलियाँ में
बाँट रिश्ते
लोग अंधे हो गए हैं
पेपरों से
छप रहे ख़ुद
पूछते कवरेज़ कैसा ?
-रकमिश सुल्तानपुरी
बहुत खूब
Good
Nice
बेहतरीन
सुंदर