वो कौन थी..

वो गोरी भी ना थी,
ज्यादा सुंदर भी ना थी,
ना देती थी प्रेम कभी,
फ़िर भी वो योग्य बहुत थी
कदम से कदम मिलाती थी
वो साथ मेरे आती जाती थी
मैं चाहता तो रुकती थी
मैं चाहता तो चलती थी
मंदिर में आने से करती थी इन्कार
पर बाहर मेरा करती थी इन्तजार
वो………………………………………..
जैसी भी थी, चप्पल थी मेरी……
ना जाने कौन उठा कर ले गया ।

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Responses

  1. क्या शानदार लेखनी है। चप्पल का इतना जबरदस्त मानवीकरण किया गया है कि कुछ कहते नहीं बन पा रहा है। बहुत अच्छी प्रतिभा है, keep it up, रुकना नहीं , चलते जाना है। वाह

    1. इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद सतीश जी ।🙏
      कविता के भाव को समझने के लिए आपका बहुत शुक्रिया और आभार। आपकी प्रेरक समीक्षाएं हमेशा ही मेरा मार्ग दर्शन करती हैं ।

  2. शुरुआत कुछ और अन्त में कुछ और
    मतलब पहले लगा कि प्रेमिका के लिए भाव है किन्तु बाद में हंसी भी आई और चप्पल की चोरी होने का दुख भी हुआ 😊👌
    बहुत सुंदर प्रस्तुति गीता मैम
    मानवीकरण का सुन्दर प्रयोग

    1. सुन्दर समीक्षा हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद प्रतिमा जी । भाव समझने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।यही तो इस कविता में twist था।
      आपको हंसी आई बहुत अच्छा लगा। ऐसे ही हमेशा ख़ुश रहें । चप्पल के मानवीकरण की हास्य कथा ही थी। बहुत बहुत धन्यवाद 🙏

  3. अरे वाह इंदु जी आपको मेरी रचना से हंसी आई इसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद 🙏

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