सर्दी
रज़ाई ओढ़ जब चैन की नींद हम सोते हैं।
ठण्ड की मार सहते, ऐसे भी कुछ होते हैं।।
जिनके न घर-बार, ना ठौर-ठिकाना।
मुश्किल दो वक़्त कि रोटी जुटाना।
दिन तो जैसे – तैसे कट ही जाता है,
रूह काँपती सोच, सर्द रातें बिताना।
गरीबी का अभिशाप ये सर अपने ढोते हैं।
ठण्ड की मार सहते, ऐसे भी कुछ होते हैं।।
भले हम छत का इंतज़ाम न कर सकें।
पर जो कर सकते भलाई से क्यों चूकें।
ठंड से बचने में मदद कर ही सकते हैं,
ताकि इनकी भी ज़िन्दगी सुरक्षित बचे।
कर भला तो, हो भला का बीज बोते हैं।
ठण्ड की मार सहते, ऐसे भी कुछ होते हैं।।
ज़रूरी नहीं, युद्ध हर बार करना पड़े।
आहत होते कई बार जवान बगैर लड़े।
तत्पर वतन की सुरक्षा के लिए हमेशा,
ठण्ड में भी सरहद पर सदा होते खड़े।
खून भी जम जाए पर संयम नहीं खोते हैं।
ठण्ड की मार सहते, ऐसे भी कुछ होते हैं।।
देवेश साखरे ‘देव’
Nice
Thanks
Nice
Thanks
शानदार
शुक्रिया
Nice
Thanks
Waah
शुक्रिया
सुन्दर रचना
धन्यवाद
Nice
Thanks