गुत्थियां
कुछ भ्रांतियां ऐसी जो, हास्यास्पदसी लगती हैं
कहावतें भी जीवन का, प्रतिनिधित्व करती हैं
ज़मीं पे गिरी मिठाई को, उठाकर नहीं खाना है
वो बोले मिट्टी की काया, मिट्टी में मिल जाना है
बंदे खाली हाथ आए थे खाली हाथ ही जाएंगे
फिर बेईमानी की कमाई, साथ कैसे ले जाएंगे
रात दिन दौलत, कमाने में ही जीवन बिताते हैं
वो मेहनत की कमाई झूठी मोह माया बताते हैं
पति-पत्नी का जोड़ा, जन्म-जन्मांतर बताते हैं
फिर क्यों आये दिन, तलाक़ के किस्से आते हैं
सुना है बुराई का घड़ा एक न एकदिन फूटता है
फिर बुरे कर्म वालों का, भ्रम क्यों नहीं टूटता है
ऊपर वाले के हाथों की कठपुतली मात्र हैं हम
फिर क्यों लोग, स्वयं-भू बनने का भरते हैं दम
उसने भू-मण्डल, मोहक कृतियों से सजाया है
फिर क्यों उसके अस्तित्व पर सवाल उठाया है
वाह सर
बहुत ही सुंदर प्रकरण और उस पर
जानदार अभिव्यक्ति…
धन्यवाद् 🙏
बहुत खूब
धन्यवाद् 🙏
‘गुत्थियां’ शीर्षक के माध्यम से आपने बहुत सुन्दर रचना की है। आपकी रचना में प्रवाह है, बारीकी है और पूर्णतः मौलिकता है। बहुत खूब
धन्यवाद् 🙏😊
कवि सक्सेना जी आपकी यह रचना बहुत ही सुंदर है। रचना में यथार्थ है, सत्यता है, भाव व शिल्प दोनों ही खूबसूरत हैं।
धन्यवाद् सर 🙏
ज़मीं पे गिरी मिठाई को, उठाकर नहीं खाना है
वो बोले मिट्टी की काया, मिट्टी में मिल जाना है
_________व्यक्तित्व के दोहरे मापदंड प्रस्तुत करती हुई आपकी यह रचना पूर्ण मौलिकता लिए हुए है, यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई सुंदर भाव लिए उम्दा प्रस्तुति
धन्यवाद् 🙏
अति उच्चस्तरीय कविता