मां ने जब रोटियां…

मां ने जब रोटियां बनाना सिखाया ,
मुझे कुछ समझ ना आया ,
कभी रोटियां जली तो कभी हाथ,
फिर सीख ही गई मैं,
रोटियां बनाना,
और अब रोटियां नहीं जलती ,
बस जलते हैं हाथ।

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Responses

  1. पढ़ने में जितना सरल लग रहा है भाव, उतना सरल है नहीं
    नारी के शोषण का किस्सा सुनाती बहुत ही बेहतरीन पंक्तियां👏👏👏

  2. अरे वाह मैम…. आपकी रचना पढ़ के मुझे प्रेमचंद जी के
    “ईदगाह” के हामिद की याद आ गई।…..
    …….रचना के पात्र को चिमटे की जरूरत है🙂।

    1. बहुत बहुत धन्यवाद मैम
      मगर जैसा कि मोहन जी ने भाव को समझाने की कोशिश की थी
      ठीक वैसे ही लक्ष्णा शब्द शक्ति का प्रयोग है यहां।
      अब हाथ जलते नहीं जलाएं जाते हैं दहेज की वजह से

      1. मेरा भी वहीं तात्पर्य है मैम, कि बेटियों के हाथ में शिक्षा रूपी चिमटा
        थमा दिया जाए तो वे आत्मनिर्भर बनेंगी और कोई भी उनके हाथ जला नहीं पाएगा। वैसे समाज में काफ़ी परिवर्तन आ चुका है।

      2. बिल्कुल सही कहा गीता मैम आपके दूसरे कमेंट से आपके भाव सही रूप से समझ में आए
        बहुत-बहुत धन्यवाद

  3. सरल शब्दों के चादर में लिपटी कविता” माँ ने जब रोटियां “ज़माने को बहुत कुछ सिखाती है। इसके अनेक अर्थ निकलते है।

  4. श्लेष अलंकार का सुन्दर प्रयोग..
    विवाहित स्त्री की प्रताड़ना का मार्मिकता के साथ वर्णन
    हृहय को रुलाकर रख दिया है आपके भाव नें

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