यह न कहो अवरोध खड़े हैं
यह न कहो अवरोध खड़े हैं,
कैसे मंजिल को पाऊँ मैं,
जहां-तहां बाधाएं बैठी
कैसे कदम उठाऊँ मैं।
यही निराशा खुद बाधा है
जो आगे बढ़ने से पहले
डगमग कर देती है पग को
चाहे कोई कुछ भी कह ले।
भाव अगर मन में भय के हों
काली रात घना जंगल हो,
कैसे पार करे मन उसको
कैसे जंगल में मंगल हो।
मंगल मन में लाना होगा
भय को दूर भगाना होगा,
चीर गहन अंधियारे को
पथ रोशन करना होगा।
हार गया मन तो सब हारा
मन का ही यह खेल है सारा
मन में अगर बुलंदी है तो
लक्ष्य हाथ आयेगा सारा।
——– सतीश चन्द्र पाण्डेय, चम्पावत, उत्तराखंड
बहुत खूब, शानदार कविता सर
Thank you
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत । इसी भावना को व्यक्त करती हुई कवि सतीश जी की बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना । कविता का कथ्य हृदय के भावों को व्यक्त करने में सक्षम है , बेहतर शिल्प और लय बद्ध शैली के साथ बहुत सुंदर कविता
इस लाजवाब समीक्षा हेतु हार्दिक धन्यवाद गीता जी
अतिसुंदर भाव
सादर धन्यवाद
यह न कहो अवरोध खड़े हैं,
कैसे मंजिल को पाऊँ मैं,
जहां-तहां बाधाएं बैठी
कैसे कदम उठाऊँ मैं।
यही निराशा खुद बाधा है
जो आगे बढ़ने से पहले
डगमग कर देती है पग को
चाहे कोई कुछ भी कह ले।
बहुत सुंदर पंक्तियां
हारकर बैठने के लिए नहीं वरन् आगे बढ़ने का संदेश देती रचना
इस सुन्दर टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद
बहुत खूब।
हार्दिक धन्यवाद