हम वहीं रह जाते हैं
दिन गुजर जाते हैं
हम वहीं रह जाते हैं
नये दिनों की तरह
कहां नये हो पाते है
पुराने जख्म मिले कहीं
क्यों न भुला पाते हैं
आये नये जो पल हाथ
बीती बातों को दुहराते हैं
आशा रख कर औरों से
हर दिन क्यूं जलते जाते हैं
भूत के बोए बबूल को भूल
आम की चाहत किये जाते हैं
आंखें बाहर को खुलती है
स्वयं का अनदेखा करती है
विश्वास खुद पे होना चाहिए
औरों पे भरोसा क्यूं करती है
आज जो अहं में डूबे हैं
कल पर अहं को झेलेंगे
जो फसल आज बोयेंगे
कल उसी स्वाद मजे लेंगे
जिंदगी पृथ्वी की तरह पाक
जो न करती कहीं ताक झांक
इसका सदा अटल स्वभाव है
न किसी के लिए भेदभाव है
आंखें बाहर को खुलती है
स्वयं का अनदेखा करती है
विश्वास खुद पे होना चाहिए
औरों पे भरोसा क्यूं करती है”
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ, बहुत सुंदर कविता की सृष्टि हुई है। सुन्दर भाव, बेहतरीन शिल्प।
Very nice
“आशा रख औरों से,हर दिन क्यूं जलते जाते हैं । बोए बबूल और आम की चाहत किए जाते हैं ।” वाह, औरों से अपेक्षा ना रखने का अति सुंदर भाव , बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
Nice
वाह वाह