Karwa chauth
इक रात चांद यूं पूछ बैठा, इक सुहागन नारी से
क्यों करती मेरी पूजा तुम, यूं सज धज तैयारी से
क्यों रहती भूखी दिन भर तुम, करती इंतजार चढ़ अटारी से
पहले मेरा फिर पति का, क्यों देखती चेहरा बारी बारी से
ना तो मैं तारों के जैसा, बिना दाग के दिखता हूं
ना वृक्षों कि भांति मैं, छांव फल किसी को देता हूं
मुझ तक तो आ पहुंचा मानव, सूरज जैसा ना अपराजित हूं
फिर क्यों पूजा तुमने मुझको, जानने को मैं लालायित हूं
सुनकर चंद्र कि बातें सारी, मुस्कुराकर उसे समझाती है
क्या हैं राज इस पूजा के पीछे, आज सभी बतलाती हैं
पूजने को तो पुजू तारा, पर पल में साथ छोड़ देता है
किसी ने कुछ मांगा तो जगह से, फट से टूट चल पड़ता है
छांव फल देदे वृक्ष भले पर, होता अस्तित्व अस्थायी है
है सूरज स्थायी भले पर, स्वभाव में बड़ी गरमाई है
ना मैं चाहूं क्रोधी और संग में सदा उन्हें चाहूं
जैसे शिव के भाल तुम सजे, वैसे सजाना उन्हें चाहूं
जैसे हो तुम शांत, सौम्य शीतल, रूप उनका वैसा चाहूं
चांद ना छोड़ता साथ चांदनी का, राज समझाना उन्हें चाहूं
जैसे मानव ने तुम्हे है जीता, दिल उनका जीतना चाहूं
हां छलनी के जरिये गुण तुम्हारे सारे, ट्रांसफर उनमें करना चाहूं
Good
मनोहर
मार्मिक
काबिले तारीफ़
Good
Good
Fantastic