निगाहों में आ गयीं

September 20, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

शाम फिर खिसक कर, निगाहों में आ गयी
बांते कुछ उभरकर, आंखों में छा गयीं
अब रात हो रही है, मैं कहाँ ही अकेला हूँ
मैं हूँ, और लंबी रातें हैं, यादों का लंबा मेला है
न मैं सोता हूँ, न सोती हैं ये मेरी यादें
पूरी-पूरी रातों का यही तो झमेला है
जागते-जागते सूरज की लालिमा आ गयी
भोर होने लगी, सुहानी सुबह आ गयी
तभी तो दिखने लगा सब
आंखों में लाली छा गयी
बातें कुछ बिसरी सी, आंखों में फिर से छा गयी
2-दिल चुपचाप रहा सारी ही रैना
मन क्या कहता किसी से, सीखा था बस चुप रहना
तभी तो, सारी कहानी
अश्कों में बहकर आ गयी
शाम फिर खिसक कर,निगाहों में आ गयी
बातें कुछ बिसरी सी, आंखों में फिर से छा गयी
3-सीप का मोती न था, जो मुझे कोई खोज लेता
क्या रखा था छुपा कर, जो मुझे कोई ढूंढ लेता
मैं तो हीरों की हिफाजत करता रहा
खुद को कोयला ही मानकर
तभी तो कालिमा, चेहरे के ऊपर छा गयी
भूली-बिसरी सी यादें
फिर से उभरकर आ गयीं
बातें कुछ उभरकर, आंखों में फिर से छा गयीं
—-धन्यवाद-
धर्मवीर वर्मा ‘धर्म’

हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा

August 15, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

हे। कृष्ण
तुम्हें फिर आना होगा
हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा
फुफकारों से भरी वसुंधरा
आकर उसे मिटाना होगा
विष फैलाते असंख्य कालिया
आकर मर्दन दिखाना होगा
काट शीश को दुष्ट पापियों के
सुर्दशन तुम्हें चलाना होगा
हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा
हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा।
आस्तीनों में सांप पल रहे
रिश्ते-रिश्तों को नित डस रहे
किसे बताएं अपना साथी
किस पर हम विश्वास करें
हर रिश्ता, अब कंस बन गया
अब कैसे उसे निभाना होगा
रिश्तों में अब कंस समाया
आकर तुम्हें मिटाना होगा
मानवता की साख बचाने
हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा।
एक दुशासन मरा, कुरुक्षेत्र रण
असंख्य दुशासनों ने जन्म लिया
तब एक अकेली थी, द्रौपदी
उसकी लाज बचा डाली
कितने चीरहरण नित होते
मानवता हुई धरा से खाली
आकर लाज बचाओ हरि तुम
तुमको रूप दिखाना होगा
एक नहीं, दो-चार नहीं
अनगिनत चक्र चलाना होगा
लाज बचा लो सुताओं की
तुमको शस्त्र उठाना होगा
मनुष्यों को राह दिखाने
हे। कृष्ण तुम्हें फिर आना होगा।
Dharamveer Vermaधर्म

कितना कहर ढाया होगा

August 15, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज आंखों ने कितना कहर ढाया होगा
देखकर, फौजी बेटे का धड़
माँ का दिल भर आया होगा
पिलाने को अंतिम स्नेह अमृत
बुझाने को ममतामयी प्यास
उसके पावन स्तनों का दूध
आज फिर उतर आया होगा
आज आंखों ने कितना कहर ढाया होगा
उठता नहीं है बोझ तिनके का भी
बुढ़ापे में उस जर्जर बाप से
किस कदर उसने
बेटे का शव उठाया होगा
उठाकर कांधे पे कैसे
उसने चिता पर लिटाया होगा
देकर मुखाग्नि उसको
क्या सागर की गहराई सा
दिल उसका भर नहीं आया होगा
आज आंखों ने कितना कहर ढाया होगा।
मेहंदी से रचे हाथ
चूड़ियों का लाल रंग
उस विधवा के हाथों से उतर
उसकी आँखों में भर आया होगा
देखकर सर कटी पति की लाश
उसका सुकोमल सा दिल
कितनी जोर-जोर से चिल्लाया होगा
आज आंखों ने कितना कहर ढाया होगा।
जिन्दा तो रोए, निर्जीवों ने भी शोक मनाया होगा
उस बिछुड़े साथी को बुलाने
दीवारों, छतों, आंगनों ने भी
खूब शोर मचाया होगा
आज आंखों ने कितना कहर ढाया होगा।
Dharamveer Vermaधर्म

वृद्ध की अभिलाषा

August 3, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक-एक करके
चले गए, जो बने थे मेरे सब अपने
क्रम-क्रम से बिखर गये
वो सुन्दर रचित मेरे सपने
अब तो तन्हा हूँ, तन्हाई है
बाकी कुछ अब शेष नहीं
सब मिट गया, इक अधंड में
बाकी कुछ अवशेष नहीं
मात्र जिन्दा हूँ, मरा नहीं
मरना अभी शेष है बाकी
शरीर उठाये फिरता हूँ
जिसमें हड्ड है, लहू नहीं है बाकी।
यादों का सुन्दर झोंका
फागुन का, अहसास कराता है
हंसाता है, रुलाता है, मुझकों
पतझड़ बनाकर जाता है
इस जर्जर देह पर
इक तहरीर उठाए फिरता हूँ
चलना बस की बात कहाँ
पर, पग बढाए चलता हूँ
बिछड़ गए जो अपने सपने
इक तस्वीर उठाए फिरता हूँ
इस मरुधर संसार में
हरियाली को तरसता हूँ।
मर जाऊँ यह अभिलाषा है
पर मौत नहीं आती मुझको
जो रहने थे वो चले गए
करके शेष मुझे, मुझको
हे। ईश्वर मौत मुझे दे दे
इस रूप की अब न चाहत है
तिल-तिल कर मरने से अच्छा
बडी मौत ही राहत है
इक- इक करके टूट गये
मोतिन के सब हार मेरे
मात्र बचा अब धागा हूँ
शेष नहीं दामन में मेरे।
प्राण त्याज्य की दृढ इच्छा अब मेरी
शेष बची सांसों की डोरी
उठा लो, इस संसार से भगवन
नहीं कद्र, अब शेष है मेरी
काया कब खाक हो प्रभु
अंतिम
यही पूर्ण, अभिलाषा मेरी।
धन्यवाद
Dharamveer Vermaधर्म

वक्त से गुजारिश

July 29, 2019 in मुक्तक

उस सूखे पेड़ पर
क्या चिड़िया फिर न चहचहाएंगी
सूख गया जो शजर
वक्त की बेवक्त मार से
क्या उस शजर की डालियाँ फिर न लहराएगी
जिन्दगी बन गयी गुमसुम
और, हम गुमनाम बनकर रह गए
क्या जीवन में
खुशियों की वो घडियां, कभी लौटकर न आएंगी
आखिर क्या उदासी ही छाई रहेगी इधर
कभी खुशियाँ इधर न आएंगी।
2-वक्तकी मार से झुलसी हुई जमीं
क्या सूखे से बच, पुनः जीवित हो जाएगी
सूख गई जो फसलें, इक- इक पल के इन्तजार में
क्या पलटेगी पासा प्रकृति
क्या सूखी फसलें, फिर लहलहाएंगी
कर्ज में सिर से पांव तक डूबे हुए
किसान के घर, क्या खुशियाँ लौटकर आएंगी
उस मेहनतकश के पसीनों का हिसाब
क्या जमीं उसे दे पाएगी
इक- इक सपने जोडकर
जो उठाई थी खुशियों की दीवारें
जो वक्त के कहर से गिर गई
या, यूँ कहे कि वक्त ने उसे गिरा डाला
क्या उन्हीं सपनों को लेकर
वो, दीवारें पुनः खडी हो पाएंगी।
3-पूंछता हूँ, दिशाओं से, उन बेदर्द हवाओं से
हर बार बदलती, उन सभी फिजाओं से
जो सूख गए पत्ते-जो सूख गई शाखें
क्या गिरकर वो पुनः
अपने साथी से मिल पाएंगी
या, इक गरीब के टूटे हुए, स्वपनों की तरह
दबेंगी जमीं में, या, जमींदोज ही हो जाएंगी।
4-ये मानता हूँ कि वक्त, तू बड़ा बलवान है
चलता रहता है तू, तुझको चलने का मान है
क्या किसी की खुशियों की खातिर
तेरी सुईयां थम न जाएंगी
अधेंरे ही रहेंगे क्या जिन्दगी भर के साथी
क्या रोशनियां, कभी अपनी दोस्ती न निभाएंगी।
उस सूखे पेड़ पर……..
धन्यवाद
धन्यवाद
Dharamveer Verma’धर्म’

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