शाम दिखा देना

October 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जरा सोचना पल भर के लिए,

दफन वो सारे जज्बात जला देना..

आना बस एक बार और मेरी कलम को,

ग्रहण की वो शाम दिखा देना..

सुन लेना मेरे मुंह से सत्य सराहना, तुम उन्ही शब्दों से मेरी पहचान बता देना..

शब्द दे दिये सारे तुम्हें उपहार में, तुम अपने शब्द आभूषणों का दाम बता देना..

ले जाना मेरी उजङी इस किताब को,

करना दफन या नफरत की आग में जला देना..

मिले न किसी को जो वो रोये इनको पढकर,

तुम सारी निशानियों का नामोनिशान मिटा देना..

~कविश कुमार

बचपन की याद

October 16, 2016 in Other

जब भी बैठता हूं किसी सिरहाने से सटकर, बहुत सी यादें याद आ जाती हैं… 
इस आधुनिकता के खेल में भी मुझे, अपने बचपन की याद आ जाती है.. 
रसना खुश नही इन मंहगे पकवानो से, बस बचपन की वो ‘मलाई’ याद आती है… 
नही मिलता जब चैन ठंडे आशियानों में भी, तो नीम के नीचे पङी वो ‘चारपाई’ याद आती है… 
अकेले जब किसी सफर में थक जाता हूं मैं, तो सुकून देने वाली वो मां की गोद याद आती है… 
तसल्ली महसूस न होती खुद की कमाई से जब, तो पापा के पैसे देने वाली वो ‘आदत’ याद आती है… 
बीमार पङते हैं अब खुद चुन लेते हैं दवाई,  फिर भी बिस्तर पर लेटे हुए अपनो की ‘इबादत’ याद आती है… 
दौङ धूप में गुजर जाते हैं दिन अब तो, खेलकर लौटते थे वो ‘शाम’ याद आती है… 
आशियाने जलाये जाते हैं जब तन्हाई की आग से, तो बचपन के घरौंदो की वो मिट्टी याद आती है… 
याद होती जाती है जवां बारिश के मौसम में तो,  बचपन की वो कागज की नाव याद आती है… 
सुलगते है शरीर चारदीवारी में रहकर, तो मां-पापा के स्वर्ग की छांव याद आती है…
~कविश कुमार
रसना =जीभ

नजर नहीं आये

October 16, 2016 in Other

शहर छोड़ गये हो सोचा मैंने, जब से तुम नजर नही आये…

अजीब हो तुम भी शहर में होकर भी, तुम हमारे शहर नही आये…

जो तुम न दिखते हो पास तो, अल्फाजों की निंदा कर देता हूँ मैं…

कागजों और अल्फाजों को प्रताड़ित करके, इन्हें  शर्मिंदा कर देता हूँ मैं…

जो तुम दिख जाते हो पास तो, नयी कोशिश चुनिंदा कर लेता हूं मैं…

दोनों की सुलह करवा कर, नए अल्फाज़ जिंदा कर लेता हूँ मैं…

गीले कागज हुए थे आब-ए-चश्म से मेरे, तुम्हें क्यूं ये नजर नही आये…

गलियों की गली में जिस गली से गुजरे, उस गली में तुम कभी नजर नहीं आये…

~कविश कुमार

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