तुम  आओ तो 

January 8, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम्हारे आने की खबर सुन कर
 अच्छा लगा |
आओ
मैं प्रतीक्षा में हूँ
लम्बी क़तर में खड़ा
पंजों  के बल
उचक उचक कर
 जैसे कोईइन्तजार  करता है
-टिकिट विंडो पर |
आओ
जैसे पूरनामी हवाओं के
कन्धों पर बैठ कर आती हैं
रुई सी  मुलायम  बदलियाँ
-किचन्दन वन से आते हैं
 सुगंध के शावक |
आओ
फूलों की बिछावन वाला पालना
मैंने सजाया है
 तुम्हें दुलराऊंगा
झुलाऊंगा
बैंजनी धागों में बँधी
स्वचालित बारवीडॉल
जाएगी नगमें
धीरे धीरे धीरे |
कि तुम्हारी अधखुली आँखों में
तैरने लगें सपने
ऊँचे शिखरों पर
दीपशिखा सजाने वाले सलोने सपने
नील गगन में सैटेलाइट
की तरह प्रवेश करने वाले सपने
चन्द्रमा के हाथों वाइलिन सौंपने
या धरती की नाभि में रोपने
 – ब्रह्मकमल |
सच मानो मेरी आत्मजे !
मैं तुम्हारेसपनों को आकर दूंगा
किजावा कुसुम से अरुणाभतुम्हारे
अधरों पर
आजीवन खेलती रहे निश्छल हँसी
तुम  आओ तो |
@डॉ. मनोहर अभय

गर्वीली चट्टान

August 31, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तोड़नी है

खरगोश की तरह छलाँगें मारते

हजार- हजार प्रपातों को

कोख में दबाये खड़ी चट्टान

गर्वीली !अनुर्वरा !!

 

तोड़नी हैं

जेवरा की धारियों सी सड़कों पर पसरी

गतिरोधक रेखाएँ

अनसुलझे प्रश्नों का जाम बढ़ाने वाली

लाल नीले हरे रंग के सिग्नल की बतियाँ

अनचीन्हीं ! अवाँछित !!

 

तोड़नी हैं अंधी गुफाएँ

जहाँ कैद हैं गाय सी रम्भाती मेघ बालाएँ

दुबले होते दूर्वादल

मनाना चाहते हैं श्रावणी त्यौहार

मधुपूरित! अपरिमित !!

 

मित्रो ! लाओ कुदाल खुरपी फावड़े

               और बुलडोजर

समतल करनी है

ऊँची- नीची जमीन

ऋतम्भरा सी झूम उठे हरितमा

पुष्पाभरणों से

सुसज्जित ! विभूषित !!

पचास साल बाद

August 31, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं वहीं हूँ

जहाँ तुम आए थे

चमरौला जूता  ठीक कराने

छुट्टे पैसे नही हैंकह कर चले गए थे

पचास साल पहले |

 

आज चमचमाते जूतों पर

पॉलिश कराने आए हो

—   पचास साल बाद |

 

भरी है जेब

हजार – हजार के हजारों नोटों से

छुट्टा पैसा एक नहीं

माँगने की जुर्रत भी कौन करेगा ?

 

तुम्हारा आना ही बहुत है यहाँ

जमीन पर टिकते कहाँ हैं पाँव

हवाई उड़ाने भरते हो

मैं रोज  वहीं से देखता हूँ

जहाँ

चमरौला जूता ठीक कराने आए थे

              पचास साल पहले|

 

जूते गाँठना मेरा धँधा है

मरे डंगरों की खाल उतारना भी |

 

गाय के मांस की गंध से भड़की भीड़ के सारथी !

तुम्हारे घोड़े

घास नहीं

आदमी की हड्डियाँ चबाने लगे हैं

इन्हें अस्तबल में रखना जरूरी है|

 

बीफ और मीट का  स्वाद जान गए हैं

वैष्णव और मांसाहारी

ऐसा न हो कि

भगदड़ में तुम्हारे जूते की कील उखड जाए

लहू- लुहान हो जाएँ पैर

अब  नहीं  मिलेगा

मुझ  जैसा  ठोक- पीट करने वाला

पचास साल बाद |

 

– डॉ.मनोहर अभय

 सम्पर्कसूत्र : आर.एच-३,गोल्ड़माइन १३८-१४५

सेक्टर -२१ ,नेरुल  ,नवी मुम्बई —400706 टेल.०२२\२७७००९६५  

@डॉ. मनोहर अभय

एक समकालीन गीत

April 18, 2016 in गीत

देहरी लाँघी नहीं

घुटन में घुटती रहीं

बच्चे रसोई बिस्तरे की

दूरियाँ भरती रहीं

बंदिशों की खिड़कियों के

काँच सारे तोड़ डाले

लो तुम्हें आजाद करता हूँ |

 ****

पायलों ने पाँव कितने

आज तक घायल किए

घूँघटों की मार से

तुम बहुत व्याकुल हुए

कनक चूड़ी केयूर कंगन

बीस कैरट के हुए

तोड़ कर यह मेखला

फिर से तुम्हें आबाद करता हूँ |

 ****

पेड़ की छाया घनेरी

कहो कैसे मान लूँ

जागीर उनके वंश की

कैसे कहो यह जान लूँ

दो साथ मेरा

और तुम आगे बढ़ो

इस घृणित संवाद को

बरबाद करता हूँ |

 ****

तुम नहीं हो सोच लो

लूट का सामान

रोटियों का परोथन

परित्यक्त पायेदान

उगते हुए दिनमान की

मुस्कान पहली

पीढ़ियों के दमन का

प्रतिवाद करता हूँ|

 ****

बरबादियों के ढेर पर

घेर कर जो ले गए

ढेर होंगे वे अँधेरे

जो अँधेरा दे गए

रोशनी का हक़ तुम्हें

मिल कर रहेगा

लो भरी इजलास में

फरियाद करता हूँ|

****

  • डॉ. मनोहर अभय

 

रुकते नहीं वो काफिले

January 13, 2016 in गीत, हिन्दी-उर्दू कविता

रुकते नहीं वो काफिले
कितने चले कितने रुके ये न हम से पूछिए
चल पड़े जो बाँह थामें रुकते नहीं वो काफिले |

अक्षरों को जोड़ने में हिस्सा हमारा भी रहा
इस अधूरी पटकथा में किस्सा हमारा भी रहा
मानिए मत मानिए हम कह रहे
आदमी के बीच में घटते रहेंगे फासले |

लाख कोशिश कीजिए धर्म ध्वज को तोड़ने की
आस्था की अकारण गर्दनें मरोड़ने की
क्या कमी है गवाहों की यहाँ होते रहेंगे नामुरादी फैसले |

संहिताएँ वांचते थक गई हैं पीढ़ियाँ
ऊँची बहुत हैं न्याय पथ की सीढ़ियाँ
सौंप दीं जब फाइलें हैं मुन्सिफों को
उम्र भर लटके रहेंगे मामले |

घेरते हों अँधेरे औ’आँधियाँ
तूफ़ान भी साँप से फुँकारते
सिंधु के उफान भी डाल दी जब डोंगियाँ
जलधार में मानिए मत मानिए कम न होंगे हौसले |

@ डॉ. मनोहर अभय

दिन आ रहे मधुमास के

January 13, 2016 in गीत, हिन्दी-उर्दू कविता

दिन आ रहे मधुमास के
शीत है भयभीत
खुशनुमा वातावरण ले रहा अँगड़ाइयाँ
तोड़ हिम के आवरण कह गई कोकिला कान में
कुहास के दिन आ रहे मधुमास के |

गुनगुनी सी धूप होगी मधुभरी सी सुनहरी
मंजीरे बजाने आ रही मधुमती सी
मधुकरी मकरंद ले कर
झूमते झोंके झुके सुवास के |

तितलियों से भर गईं क्यारियाँ फुलवारियाँ
कलियाँ सियानी मारती रस गंध की पिचकारियाँ
ढपली बजाते मधुप चंचल फागुनी उल्लास के |

अब जलेंगीं अवदमन की थरथराती होलियाँ
देखना है राजपथ पर कब तक बँटेंगीं थैलियाँ
द्वार खुलने को विवश हैं अब नए आवास के |

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