“वो परछाई”

August 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

रोशनी को चीर
वही आकृति
सहसा निकल गयी
दरवाजों के मध्य और
कहीं पीछे भी
एक परछाई सी
फिर खिल उठी
कुछ धुंधली चांदनो सी
एक घना कोहरा
स्वयं को असहज दर्शाता
शून्य
वहां घर कर गया
हर ओर टटोलते हुए
कुछ अनकहे टूटे
शब्द
एक और लम्बी खामोशी
यहां ठहरी
कभी रही थी संग मेरे
मेरे अन्तर्मन में
डूब कर
टूट कर
एक हो चले थे
दो से हम
जब
मैं और मेरी परछाई ।

“आखिरी जंग”

August 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

नत मस्तक
शीश झुकाए
कतारबद्ध खडा हूं मैं
लिए लघु हृदय
वीरों संग
दौड चला
घावो की परवाह
किए बिना
तत्पर हूं
कुछ करने को
इस देश के लिए
मरने को
बना लिया है
लक्ष्य अब
विजय पताका
लहराना बस
शीर्ष कारज
रहेगा अब

“ज़िन्दगी”

August 10, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़िन्दगी मोम सी

जलती रही

पिघलती रही

हर पल

इक नया रूप लिए

बनती रही

बिखरती रही

नयी अनुभूति सी

हर एक क्षण

हर दिशा में

एक जिजिविषा संग

जिन्दगी बदलती रही

निखरती  रही

एक आकार बना लिया

जिन्दगी ने अब

मोम की तरह

क्षय होकर

स्वयं को नया रूप दिया

और योंही जलती रही

ढलती रही

मोम बह गया अब

जिन्दगी भी  योंही थम गयी

 

 

“छल छद्म”

August 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं नेत्रहीन नहीं

आंखे मूंदे बैठा हूं

मैं भी अवगत था

सत्य से

पर विवश रहा

सदा

अन्तर्मन  मेरा

क्या मिलेगा व्यर्थ में

लड़ने से

समस्त भारत के लिए

कुछ  करने से

विदित था सब मुझे

मृत्यु तो मेरी ही होगी

अंत भी ही मेरा होगा

और शेष सभी विजयी होंगे

यहां

योंही मरने से तो

रक्त ही बहेगा

पीड़ा ही मिलेगी

नही नहीं नहीं

मैं मूढ़ नहीं

इस धर्मक्षेत्र में

या कर्मक्षेत्र में

मैं मर ही नहीं सकता

निस्वार्थ

क्यों मैं कुछ करू

मैं भयभीत हूं

और रहूंगा अब योंही सदा

निसंदेह

मैं जीवित तो रहूंगा

सदा  ,हमेशा आह!

वीरों में न सही

कायरो में ही सही

स्मरण तो मेरा भी होगा

आजाद भारत में

– Manoj Sharma

“कायर”

August 7, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

कायर
——-

दरवाजे पर आहट हुई

अधखुला दरवाजा खुला

परिचित सामने खड़ा

आस्तिने चढाए

पैर पटकता लौट गया

बोलकर कुछ

अनसुने,अनकहे शब्द

एक चुप्पी

और गहरा

अटहास

स्मरण था मुझे सब

कि सत्य

अकस्मात् ही लौटेगा

कटु सत्य लिए

एक दिन

मैं हारा सिपाही सा

भागा था बिन

समर किये

उस दिन

जब वीरों ने

ललकारा था

और हम दास थे

गुलाम भारत के

निवेदन

August 6, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

निवेदन
——–

ऐ पथिक

राह दिखा मुझे

मुख न मोड़

चल साथ मेरे

भारत आजाद कराना है

धर्म मेरा ही नहीं

तेरा भी है

भयभीत न हो

विचार तो कर

ध्वज हाथों में है

अब आगे जाना है

कालान्तर में तुम

होगे न हम

किन्तु कर्म सदैव

साथ रहेगा

मेरा निवेदन स्वीकार कर

विजयी होकर ही

आना है

समर में हम ही

वरन

हम जैसे सैकड़ो

है खड़े

लड़ने को

मरने को

और देश के लिए

बहुत कुछ करने को

– मनोज भारद्वाज

15 अगस्त

August 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

हम स्वतंत्र होगे

एक दिन

ये आस लिए

कुछ प्रण किया था

आह!

क्या थे वो क्षण

जब मैं नहीं हम थे सब

ध्येय एक लिए हृदय में

बढ़ चले थे

ओज लिए सोज़ लिए

स्वय को अर्पित कर

कर्मपथ पर बढ़ते थे

नित्य उत्साह,उल्लास संग

भारत माता की जय

उदघोष गुंजते थे

मेहनत रंग लाई

15 अगस्त 1947

स्वप्न सत्य हुआ

उल्लास लिए हम

स्वतंत्र हुए

नयी सूबह

नयी शफ़क

मेहताब नया

उदित हुआ

तदोपरान्त

यह खास दिन

आजादी के लिए

हर वर्ष अवतरित हुआ

 

 

 

 

 

 

पहर

August 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तीन पहर बीत चले
चांद कुछ दूर हुआ
कुछ मिल गया तम में
कुछ छूटा रह गया
आकृति बिखर गयी
धुंधली सी
विक्षिप्त सी
फैल गयी कहीं
रेंगती परछाई सी
समय बढ चला
चौथे पहर की ओर
आकृति फिर बदल गयी
और खूब दूर हुई
चांद की
एक विचार सी
हृदयों से गुजरती
क्षणिक
यहां से वहां
और वहां से कहीं और
गमन करती है सदा
यूंही पहर बीतते  गये
आकृति फिर उदित हुयी
नयी सूबह लिए।

– मनोज भारद्वाज

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