ग़ज़ल

December 4, 2017 in Other

ग़ज़ल
उनके चेहरे से जो मुस्कान चली जाती है,
मेरी दौलत मेरी पहचान चली जाती है।

जिंदगी रोज गुजरती है यहाँ बे मक़सद,
कितने लम्हों से हो अंजान चली जाती है।

तीर नज़रों के मेरे दिल में उतर जाते हैं,
चैन मिलता ही नहीं जान चली जाती है।

याद उनकी जो भुलाने को गए मैखाने,
वो तो जाती ही नहीं शान चली जाती है।

एक रक़्क़ासा घड़ी भर को आ के महफ़िल में,
तोड़कर कितनो के ईमान चली जाती है।

खोए रह जाते हैं हम उसके तख़य्युल में ‘मिलन’,
और वो ‘गुलशन ए रिज़वान’ चली जाती है।

बेमक़सद-लक्ष्यहीन
रक़्क़ासा-नाचने वाली
तख़य्युल-याद
गुलशन ए रिज़वान-स्वर्ग के बाग़ सी खूबसूरत सुंदरी,
—– मिलन ‘साहिब’।

वतन में आज नया आफताब निकला है,

October 2, 2016 in ग़ज़ल

वतन में आज नया आफताब निकला है,

हर एक घर से गुल ए इंकलाब निकला है।

सवाल बरसों सताते रहे थे जो हमको,

सुकूनबख्श कोई अब जवाब निकला है।

गये थे सूख समन्दर उदास आंखो के,

हर एक सिम्त से दरिया ए आब निकला है।

शुतुरदिली से जो छुप छुप के वार करते थे,

 उन्हें चखाने मज़ा मुल्क़ताब निकला है।

सुकूं की सांस शहीदों के सारे कुनबे में,

खिला है चेहरा यूँ ताजा गुलाब निकला है।

अलग थलग है पड़ा मुल्क वो ही दुनिया में,

के जिसके मुल्क का खाना खराब निकला है।

इधर सुकूं तो उधर मौत का मातम पसरा,

असद को छेड़ने का ये हिसाब निकला है।

किसी की ईद किसी की “मिलन” है दीवाली,

नयी जगह से नया माहताब निकला है।

                               ———–मिलन.

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कठिन शब्दों के अर्थ-

आफ़ताब-सूरज.

गुल ए इंकलाब-परिवर्तन का फूल.

सुकूनबख्श-संतोषजनक.

सिम्त-तरफ.

शुतुरदिली-बुजदिली.

मुल्क़ताब-मुल्क़ को रौशन करने वाला.

कुनबा-परिवार.

खानाखराब-बदनसीब

असद-शेर.

माहताब-चाँद.

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अगर इश्क हो तो ही होती गज़ल है।

September 30, 2016 in ग़ज़ल

 

  1. अगर इश्क हो तो ही होती गज़ल है।

ख़यालों के बिस्तर पे सोती गज़ल है।।

 

दिशा है दिखाती ये भटके हुओं को,

दिलों की ख़लिस को भी धोती गज़ल है।।

 

जो साहित्य को हम कहें इक समन्दर,

तो सागर से निकली ये मोती गज़ल है।।

 

नयी पीढ़ियों को है माज़ी बताती,

अरूजो अदब को भी ढोती गज़ल है।।

 

है अम्नो अमां से ही रिश्ता गज़ल का,

मुहब्बत दिलों में भी बोती गज़ल है।।

 

अगर बहर से कोई ख़ारिज़ हो मिसरा,

तो आँसू बहाकर भी रोती गज़ल है।।

 

हँसाती रुलाती मिलन तंज कसती,

सभी नौ रसों में डुबोती गज़ल है।।

——मिलन..

हंसाकर कहीं तुम रुला तो न दोगे

September 30, 2016 in ग़ज़ल

  1. हंसाकर कहीं तुम रुला तो न दोगे,

    कोई जख़्म फिर से नया तो न दोगे।
     
    हसीं वादियों के सपने दिखाकर,
    कहीं यार तुम भी दग़ा तो न दोगे।
     
    हिफ़ाजत का कर के बहाना कहीं तुम,
    दिया जिन्दगी का बुझा तो न दोगे।
     
    निहां राज़ ए दिल गर बता दूँ तुम्हें तो,
    नजर से तुम अपनी गिरा तो न दोगे।
     
    अगर याद आयी किसी दूसरे की,
    मुहब्बत मेरी तुम भुला तो न दोगे।
     
    भरोसे पे तेरे किए जो भरोसा,
    उसे ख़ाक़ में तुम मिला तो न दोगे।
     
    बड़ी मुश्किलों से सम्हाला है मैंने,
    मुहब्बत की कश्ती डुबा तो न दोगे।
     
    मुझे ख़ौफ़ यूँ बिजलियों का बताकर,
    खुद अरमान दिल के जला तो न दोगे।
     
    ‘मिलन’ छोड़ जाओ मेरे हाल मुझको,
    मुकद्दर का लिक्खा मिटा तो न दोगे।
                               ———मिलन..

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