“यही मैं सोच-सोचकर हैरान!!!! “….

August 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ऐक हजारों धरती माता, ऐक ही आसमान,
मजहब के झगड़ों में क्यूँ उलझ रहा इंसान,
यही मैं सोच -सोचकर हैरान,
यही मेै सोच-सोचकर हैरान,
भारी -भारी पत्थर लेकर मंदिर रोज बनाते हैं,
उस पत्थर में चूना मिलाकर, मस्जिद रोज चुनाते है,
इन दोनों में प्रेम से रहते, अल्लाह और भगवान,
अरे अल्लाह और भगवान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान,
मंदिर -मस्जिद तोड़ने वाले हाथ तेरे क्या आयेगा,
देश को आग लगाने वाले, तु भी तो जल
जायेगा,
मासूमों का खून बहाकर क्यूँ बनता हैवान,
क्यूँ बनता हैवान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान,
धर्म बड़ा है मानवता, उसको ही अपनाओ तुम,
कर्म करो इंसान बनो,और सबको गले लगाओ तुम,
आज से प्रतिज्ञा कर लो, बनना है इंसान,
अरे बनना है इंसान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान,
यही मैं सोच-सोचकर हैरान
यही मैं सोच-सोचकर हैरान…

:—-कपिल पालिया “sufi kapil “

“भागीरथ जी प्रकट हो”

August 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

पाकिस्तान की औखात को देखकर ये भाव उठे, कोई गलती हो तो क्षमा करना —

जल जला उठा वो सैनिक, जिसमें जान बाकी है,
लहु से श्रंगार कर दुंगा, बस यही अहसान बाकी है,

काफूर हो उठा हिमगिरी,यह जवां अविनाशी है,
महक उठा ये कश्मीर, खुश हो रहा काशी है,

किसको क्या फांसी दी,तुम ये क्युँ बतलाते हो,
कईयों को मार दिया, क्युँ अब रूह जलाते हो,

तुम क्या पाकिस्तानी गोदियों में पले-बढ़े हुए हो,
जो ऐक याकूबी मुर्दे पर सब के सब अड़े हुए हो,

भारत की सरजमीं को, क्या दो गज में नाप लेगा,
बिछड़ी हुई विधवा के आंसू, क्या इनका बाप लेगा,

खबरदार पाकिस्तान! , सोऐ हुए शेर को नहीं जगाते है,
शिकारी भले ही जिंदा हो या मुर्दा, नोच-नोचकर खाते हैं,

तुम्हारी हर गोलियों का स्वागत,हम फूलों से करते हैं,
लेकिन तुम्हारे हर मुर्दे, मेरे तिरंगे कफन से डरते है,

हमारा बस चले ,पाकिस्तान में ऐसा अलख जगाएंगे,
भागीरथ जी प्रकट हो, इनको गंगाजी में
नहलाऐंगे…

:——– कपिल पालिया “sufi kapil “
(स्वरचित)

मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था…

August 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था,
बंद लतीफों की खड़े -खड़े मल्हार देख रहा था,
सोचा था तंग आकर लिखूंगा ये सब,मगर ये क्या,
कागज के टुकडों में दफन विचार देख रहा था,
मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था,

पग भारी है उनके, जिनके किस्सों की भरमार देख रहा था,
मैं यहीं कहीं लड़की का चलता-फिरता बाजार देख रहा था,
कोशिश मत करो तुम सरकार-ए-आलम बात छुपाने की,
जब तुम्हारी ही कली को, बागों में शर्मसार देख रहा था,
मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था,

मैं भारत की गरीबी पर, कुछ प्रचार देख रहा था,
नेताओं की फैलती महामारी का प्रसार देख रहा था,
सोचा था आज ही मेरा मेरा भारत नोटों में खैलेगा,
मगर वतन की जेब में छुपी कलदार देख रहा था,
मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था,

भारत माँ की इस धरती पे खूनी त्योहार देख रहा था,
कश्मीर में फैला आतंकी पलटवार देख रहा था,
हे माँ! कैसे करूँ अब मांग तेरी पूरी तेरी जमीं पे,
मैं हर विधवा का खून भरा श्रंगार देख रहा था,
मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था
बंद लतीफों की खड़े-खड़े मल्हार देख रहा था,
मैं आर देख रहा था, मैं पार देख रहा था…………..

—–:कपिल पालिया “sufi kapil “
(स्वरचित)
मो.न.— 8742068208, 7023340266

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