उर्मिला की विरहाग्नि

जब मैं कली बन मुस्कुराई अली
तब ही प्रियतम बन आए अली…

घेरा मुझको बाहुपाश में
डूब गई मैं प्रेमपाश में…

प्रिय चले गए वनवास अली
जब बिछोह की हवा चली…

नित क्रंदन, रुदन करूं मैं अली
कामेच्छा से विरहाग्नि भली…

ना मैं जलूँ सती सम अग्नि की ज्वाला
ना डूबूँ लक्ष्मी सम पयोनिधि धारा…

हे प्रभु! जब दी विरहाग्नि मुझे
करो सहने की भी शक्ति प्रदान मुझे…

बीते शीघ्र निशा हो सुप्रभात
उर्मिला की कर दो आकर प्रतीक्षा समाप्त…

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Responses

    1. धन्यवाद बस अभी
      हिन्दी साहित्य पढ़ रही थी तो
      मन किया की पुराने कवियों की भाषा-शैली में लिखकर देखूँ

  1. खुद में भरपूर हिंदी साहित्य समाहित किये हुए प्रस्तुत रचना बेहतर बन गई है

  2. वास्तव में उर्मिला की करूण व्यथा एक विचारणीय बिंदु है
    आपने बहुत ही बेहतरीन तरीके से उसे प्रस्तुत किया है
    👌👏👏👏

  3. शुद्धतम,उच्चतम तथा
    परिपूर्ण रचना
    हिंदी को आत्मसात करती हुई रचना

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