इंतजार

September 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

लहरें होकर अपने सागर से आज़ाद
तेज़ दौड़ती हुई समुद्र तट को आती हैं ,
नहीं देखती जब सागर को पीछे आता
तो घबरा कर सागर को लौट जाती हैं ,

कुछ ऐसा था मेरा प्यार
खुद से ज्यादा था उसपे विश्वास,
के मुझसे परे, जहाँ कही भी वो जायेगा
फिर लौट कर मुझ तक ही आएगा ,

इंतजार कैसा भी हो सिर्फ
सब्र और आस का दामन थामे ही कट पाता है ,
क्या ख़ुशी क्या गम , दोनों ही सूरतों में
पल पल गिनना मुश्किल हो जाता है ,

आज जीवन के इस तट पर मैं
आस लगाये बैठी हूँ
सागर से सीख रही हूँ इंतजार करना
और ढलते सूरज के साथ पक्षियों का घर लौट आना देख रही हूँ…

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास “

ताबीर

September 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

महज़ ख़्वाब देखने से उसकी ताबीर नहीं होती

ज़िन्दगी हादसों की मोहताज़ हुआ करती है ..

बहुत कुछ दे कर, एक झटके में छीन लेती है

कभी कभी बड़ी बेरहम हुआ करती है …

नहीं चलता है किसी का बस इस पर

ये सिर्फ अपनी धुन में रहा करती है ..

न इतराने देगी तुम्हें ये, अपनी शख्सियत पे

बड़े बड़ों को घुटनों पे ला खड़ा करती है ….

खुद को सिपहसलार समझ लो ,इसे जीने के खातिर

ये हर रोज़ एक नयी जंग का आगाज़ करती है ……

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास “

अरमान

September 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अरमान जो सो गए थे , वो फिर से

जाग उठे हैं

जैसे अमावस की रात तो है , पर

तारे जगमगा उठे हैं…

बहुत चाहा कि इनसे नज़रें फेर लूँ

पर उनका क्या करूँ,

जो खुद- ब – खुद मेरे दामन में आ सजे हैं ….

नामुमकिन तो नहीं पर अपनी किस्मत पे

मुझे शुभा सा है,

कही ऐसा तो नहीं , किसी और के ख़त

मेरे पते पे आने लगे हैं …

जी चाहता है फिर ऐतबार करना,

पर पहले भी हम अपने हाथ

इसी चक्कर में जला चुके हैं……

कदम फूँक – फूँक कर रखूँ तो

दिल की आवाज़ सुनाई नहीं देगी ,

खैर छोड़ो इतना भी क्या सोचना

के चोट खाए हुए भी तो ज़माने हुए हैं…….

अर्चना की रचना ” सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास ”

अजूबी बचपन

May 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

बचपन की अजूबी कहानियों में खोना चाहता है

जीनी जो अलादिन की हर ख्वाहिश

मिनटों में पूरी कर देता था,

उसे फिर क्या हुक्म मेरे आका

कहते देखना चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

मोगली जो जंगल में बघीरा और बल्लू

के साथ हँसता खेलता था

उसे फिर शेरखान को पछाड़ते

देखना चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

हातिम जो पत्थर को इंसान बनाने

कालीन पर बैठ उड़ जाता था

उसे फिर कोई पहली सुलझाते

देखना चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

वो रंगोली वो चित्रहार वो पिक्चर फिल्म

का शेष भाग

फिर उसी दौर में जा के समेटना

चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

साबू जो जुपिटर से आया था, चाचा

चौधरी के घर में जो न समां पाया था

ऐसे ही और किरदारों

को फिर ढूंढना चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है

तब मासूम थे अजूबी सी बातों पर भी

झट से यकीन कर लेते थे

आज समझदार हो कर भी दिल किसी

अजूबे की राह तकना चाहता है

आज दिल फिर बच्चा होना चाहता है….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मृत टहनियाँ

May 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो टहनियाँ जो हरे भरे पेड़ों

से लगे हो कर भी

सूखी रह जाती है

जिनपे न बौर आती है

न पात आती है

आज उन

मृत टहनियों को

उस पेड़ से

अलग कर दिया मैंने…

हरे पेड़ से लिपटे हो कर भी

वो सूखे जा रही थी

और इसी कुंठा में

उस पेड़ को ही

कीट बन खाए

जा रही थी

वो पेड़ जो उस टहनी को

जीवत रखने में

अपना अस्तित्व खोये

जा रहा था

ऊपर से खुश दिखता था

पर अन्दर उसे कुछ

होए जा रहा था

टहनी उस पेड़ की मनोदशा

को कभी समझ न पायी

अपनी चिंता में ही जीती रही

खुद कभी पेड़ के

काम न आ पाई

पेड़ कद में बड़ा होकर भी

स्वभाव से झुका रहता था

टहनी को नया जीवन

देने का निरंतर

प्रयास करता रहता था

एक दिन पेड़ अपनी जडें

देख घबरा गया

तब उसे ये मालूम चला के

उसका कोई अपना ही

उसे कीट बन के

खा गया

उसे टहनी के किये पे

भरोसा न हुआ

उसने झट पूछा टहनी से

पर टहनी को

ज़रा भी शर्म का

एहसास न हुआ

वो अपने सूखने का

दायित्व पेड़ पर

ठहरा रही थी

चोरी कर के भी

सीनाजोरी किये जा रही थी

पेड़ को घाव गहरा लगा था

जिस से वो छटपटा रहा था

स्वभाववश

टहनी को माफ़ कर

उसे फिर एक परिवार मानने

का मन बना रहा था

मुझसे ये देखा न गया

मैंने झट पेड़ को

ये बात समझाई

की टहनी कभी तुम्हारी

उदारता समझ न पाई

और अपनी चतुराई

के चलते खुद अपने

पैरों पर कुल्हाड़ी

मार आयी

बहुत अच्छा होता है

ऐसी टहनियों को

वख्त रहते छांटते रहना

फिर कभी मृत टहनियों

को जीवन देने की लालसा

में दर्द मोल न लेना

मेरी ये बात सुन पेड़

थोडा संभल गया

कुछ मुरझाया था

ज़रूर पर

ये सबक उसके दीमाग

में हमेशा के लिए

घर कर गया

उसकी हामी ले कर

पेड़ को

उन मृत टहनियों से

मुक्त कर दिया मैंने…

आज उन मृत टहनियों को

पेड़ से अलग कर

दिया मैंने ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

आज की नारी

May 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं आज की नारी हूँ

न अबला न बेचारी हूँ

कोई विशिष्ठ स्थान

न मिले चलता है

फिर भी आत्म सम्मान बना रहा ये

कामना दिल रखता है

न ही खेला कभी women कार्ड

मुश्किलें आयी हो चाहे हज़ार

फिर भी कोई मेरी आवाज़ में आवाज़

मिलाये तो अच्छा लगता है

हूँ अपने आप में सक्षम

चाँद तारे खुद हासिल कर लूं

रखूँ इतनी दम

फिर भी कोई हाथ बँटाये तो

अच्छा लगता है

हो तेज़ धूप या घनी छाँव

डरना कैसा जब घर से

निकाल लिए पांव

फिर भी कोई साथ चले तो

अच्छा लगता है

जीवन कैसा बिन परीक्षा

जहाँ लोगो ने

न की हो मेरी समीक्षा

फिर भी कोई विश्वास करे

तो अच्छा लगता है

गलत सही जो भी चुना

अपना रास्ता आप बुना

फिर भी कोई कदमो की

निगहबानी करे

तो अच्छा लगता है

अपने अधिकार भलिभाँति

जानती हूँ

क्या अच्छा क्या बुरा

पहचानती हूँ

फिर भी कोई परवाह करे तो

अच्छा लगता है

नहीं लगता मुझे अंधेरों से डर

हार जीत सबका दारोमदार

मुझ पर

फिर भी एक कान्धा हो सर रखने

तो अच्छा लगता है

मैं शौपिंग करूँ तुम बिल भरो

लड़कियों थोड़ी शर्म करो

फिर भी कोई ये अधिकार मांगे तो

अच्छा लगता है

औरत होना पहचान है मेरी

और बाजुए भी

मज़बूत है मेरी

फिर भी कोई बढ़ कर दरवाज़ा

खोले तो अच्छा लगता है

बस इतना ही है अरमान

खुद बना लूँगी मैं रोटी

कपडा और मकान

सिर्फ थोडा सम्मान मिले तो

अच्छा लगता है ..

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

शूरवीर

May 4, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

सुन कर ये खबर

दिल सहम गया

और घबरा कर हाथ

रिमोट पर गया

खबर ऐसी थी की दिल गया चीर

हैडलाइन थी

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

फ़ोन उठा कर देखा तो

उनको भेजा आखिरी मेसेज

अब तक unread था

न ही पहले के मेसेज पर

blue tick था

ऑनलाइन status भी घंटों पहले

का दिखला रहा था

अब मेरा जी और ज़ोरों से घबरा रहा था

सोचा रहा था

उस खबर में कही एक नाम उनका न हो

जिसमे लिखा था

आज फिर देश ने खोया अपना शूरवीर

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

सुद्बुध खो के बस फ़ोन

देखे जा रही थी

रह रह के उनकी

बातें याद आ रही थी

तुम एक शूरवीर की पत्नी हो

और मेरे शहीद होने से डरती हो

मेरी तो ये इच्छा है के मैं

एक दिन तिरंगे में लिपट कर घर आऊं

बहुत शिकायत करती हो तुम

फिर हमेशा के लिए तुम्हारे

साथ ठहर जाऊँ

उनकी ये बातें दिल भेद देती थी बन कर तीर

फिर अचानक मन वर्तमान में आ पंहुचा

जहा सुना था

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

सोते जागते उठते बैठते

मैं सिर्फ सोच रही थी

अपने बारे बारे में

और भूल गई

जिनका नाम शामिल था आज

शहीदों की लिस्ट में

जाने ये सुनकर, उस

माँ पर क्या बीत रही होगी

जब ये खबर उन तक पहुँची होगी

के नहीं रहा उनका शूरवीर

जाने वो पत्नी खुद को और

पुरे घर को कैसे संभालती होगी

ऊपर से मज़बूत दिखती होगी

पर भीतर बहा रही होगी नीर

जब से सुना होगा

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

इतना आसन नहीं इन शूरवीरों की

शौर्य गाथा गा पाना

अपना प्रेम छिपा कर

एक पत्नी और माँ का कठोर

हो पाना

जाते जाते अपने वीर को

मुस्कुरा कर विदा कर पाना

सच पूछो तो उसकी वीरता सुन के

सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है

पर उसके साथ ही शरीर बिन

प्राण का हो जाता है

जब उसकी शहादत पर

पर सारी दुनिया को होती है पीर

सब रोते हैं जब

ये देश खोता है अपना शूरवीर

दहल जाते हैं सभी सुन के

आज फिर गूँज उठा कश्मीर

तभी फ़ोन विडियो कॉल से बज उठा

इन प्राणों में प्राण आये

जब देखी उनकी तस्वीर

सारे आँसू पोंछ लिए उसी पल

क्योंकि नहीं दिखना चाहती थी

साहसहीन

पर मेरी नज़रों को वो भाप गए

और बोले

मैंने कहा है न के

मैं वापस आऊँगा

चाहे तिरंगे में लिपट कर

या अपने पैरों पर चल कर

फिर क्यों होती हो ग़मगीन

मैं भी उनके साथ मुस्कुरा तो दी

पर दिल में वो डर हमेशा रहता है

जब गूँज उठता है कश्मीर ….

उरी ,पुलवामा ,हंदवारा के शहीदों और भारतीय सेना के शूरवीरों को मेरी भावपूर्ण श्रधांजलि

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

तुमको लिखा करूंगी

May 3, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब से मैं प्यार लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

वो शामें मेरी ,जो तुम पर

उधार हैं , उन पर

ख्वाब लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

वो गलियाँ जिन पर तेरे

वापस आने के निशान नहीं

उन पर इंतजार लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

धड़क जो हुई कुछ तेरे नाम

सा सुन कर

उन पर एहसास लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

कभी जो मायूसी मुझसे

आ लिपटी

उन पर शाद लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

दर्द और ज़िन्दगी

दोनों तुमसे मिले

उन पर ख्याल लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी

जो न कह पाऊँगी अब

तुमसे कभी

उन पर कविता लिखूंगी

तो तुमको लिखा करूंगी ….

और इस तरह तुम्हारी

याद में

तुमको भुलाने

तुमको लिखा करूंगी….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मलाल

April 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मुझे ताउम्र ये मलाल रहेगा

तुम क्यों आये थे

मेरी ज़िन्दगी में

ये सवाल रहेगा

जो सबक सिखा गए तुम

वो बहुत गहरा है

चलो प्यार गहरा न सही

पर उसका हासिल

सुनहरा है

गैरों की नज़र से नहीं

खुद अपनी नज़र से परखा था तुम्हें

मुझे लगा तेरे मेरा संग

कमाल रहेगा

मुझे ताउम्र ये मलाल रहेगा

अब क्या ज़िक्र करे

तुम्हारी मजबूरियों पर

पोर ख़तम हो जाते हैं

उँगलियों पर

गलती से जो

किसी ने भी जाना

मेरा दावा है

तेरे नाम पर

बवाल रहेगा

मुझे ताउम्र ये मलाल रहेगा

लोग कहते हैं ,

हम किसी को तब नहीं भूलते

जब हम भी

उसके दीमाग में

हो गूँजते

किसी का ख्याल रखना

भी कहाँ

तेरी फितरत में है

तू किसी और को फिर

इसी फ़रेब से

बेहाल करेगा

मुझे ताउम्र ये मलाल रहेगा

मुझे ताउम्र ये मलाल रहेगा ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास

मेरे दर्द

April 27, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरे दर्द सिर्फ मेरे हैं

इन्हें अपनी आँखों का पता

क्यों दूँ

तरसे और बरसे

इन्हें अपने दर्दों से

वो लगाव क्यों दूँ

मेरा अंधापन मेरी आँखों को

चुभता है

पर अपने लिए फैसलों पर

इसे रोने क्यों दूँ

मेरे दर्द सिर्फ मेरे हैं

इन्हें अपनी आँखों का पता

क्यों दूँ

बहुत कुछ देखा

इन आँखों ने

अब ये भी थक गई हैं

चैन से जीने दूँ अब इनको भी

थोड़ा आराम

क्यों न दूँ

मेरे दर्द सिर्फ मेरे हैं

इन्हें अपनी आँखों का पता

क्यों दूँ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

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एक ऐसी ईद

April 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई

जब न मंदिरों में घंटे बजे

न मस्जिदों में चहल कदमी हुई

बाँध रखा था हमने जिनको

अपने सोच की चार दीवारों में

अब समझा तो जाना

हर तरफ उसके ही नूर से

दुनिया सजी

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई

मैं जिधर देखूं वो ही वो है

हर जीव हर ज़र्रे में वो है

कोई जगह नहीं इस दुनिया में

जहाँ से उसने अपने बच्चों की न सुनी

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई

किसने सोचा था ऐसे भी

दिन आयेंगे

मंदिरों दरगाहों गुरूद्वारे और चर्च के

बाहर से

फूलों के ठेले हट जायेंगे

उसका दिया उसको ही देकर

हमने सोचा था हमारी बात बनी

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई

ये वख्त हमे कुछ और सीखा रहा है

ढोंग दिखावे से दूर ले जा रहा है

ऐसा लगता है इश्वर ने नशा मुक्ति केंद्र

है खोला

जिसमे हम सब की भीड़ लगी

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई

माना हमें तकलीफ बहुत है

पर इसमे जो निखरेगा

उस को ही हासिल रब है

समझ लो हमारे गुनाहों की

बस थोड़ी सी सजा मिली

एक ऐसी ईद भी आई

एक ऐसी नवरात गई ………

आप सबको रमजान का महीना बहुत बहुत मुबारक !

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

रुख्सत

April 24, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये जो लोग मेरी मौत पर आज

चर्चा फरमा रहे हैं

ऊपर से अफ़सोस जदा हैं

पर अन्दर से सिर्फ एक रस्म

निभा रहे हैं

मैं क्यों मरा कैसे मरा

क्या रहा कारन मरने का

पूछ पूछ के बेवजह की फिक्र

जता रहे हैं

मैं अभी जिंदा हो जाऊँ

तो कितने मेरे साथ बैठेंगे

वो जो मेरे रुख्सत होने के

इन्जार में कब से घडी

देखे जा रहे हैं

इन सब के लिए मैं

बस ताज़ा खबर रहा उम्र भर

जिसे ये बंद दरवाज़ों के पीछे

चाय पकोड़ों के साथ

कब से किये जा रहे हैं

ऐसे अपनों का मेरी मय्यत

पे आना भी एक हसीं वाक्या है

जहाँ ये अपनी ज़िंदगियों की

नजीर दिए जा रहे हैं

सिलसिला रिवायतों का जब

ख़तम हो जायेगा

फिर किसे मिलेगी इतनी फुर्सत

फिर कौन नज़र आएगा

सब रिवायते अदा कर

ये भी अपनी “मंजिलों “को ओर

बढे जा रहे हैं

इतनी अदायगी कैसे कर लेते हैं लोग

बिना एक्शन बोले भी

आंसू बहाए जा रहे हैं

न मेरे गम न मुफलिसी में

कभी रहे शामिल

अब मेरी तेरहवी पर भी

दिल बहलाने को

DJ लगवा रहे हैं …

नजीर -: मिसाल, तुलना

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

ताज महल

April 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

नाकाम मोहब्बत की निशानी

ताज महल ज़रूरी है

जो लोगो को ये बतलाये के

मोहब्बत का कीमती होना नहीं

बल्कि दिलों का वाबस्ता होना ज़रूरी है

दे कर संगमरमर की कब्रगाह

कोई दुनिया को ये जतला गया

के मरने के बाद भी

मोहब्बत का सांस लेते रहना ज़रूरी है

वो लोग और थे शायद, जो

तैरना न आता हो तो भी

दरिया में डूब जाते थे

मौत बेहतर लगी उनको शायद

क्योंकि महबूब का दीदार होना ज़रूरी है

मरते मर गए पर खुद को

किसी और का होने न दिया

चोट उसको लगे और छाले

दिलबर के हाथों पे हो

ऐसी मोहब्बत पे फ़ना होना ज़रूरी है

कैद होकर यूं ताजमहल की

सुन्दर नक्काशी में

मुमताज़ महल आज भी सोचती होगी

के सच्ची मोहब्बत का संगमरमर होना नहीं

बल्कि मिसाल बन कर मशहूर होना ज़रूरी है ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

प्रेम

April 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

प्रेम, जिसमें मैं ही मैं हो

हम न हो

डूब गए हो इतने के

उबरने का साहस न हो

वो प्रेम नहीं एक आदत है

उसकी

जो एक दिन छूट जाएगी

फिर से जीने की कोई वजह

तो मिल जाएगी

जब तू उस घेरे के बाहर

निहारेगा

तब ही तेरा आत्म सम्मान

तुझे फिर से पुकारेगा

तू झलांग लगा पकड़ लेना

उसकी कलाई को

उसकी आदत के चलते

तूने नहीं सोचा खुद की

भलाई को

तब ही तू पुनः स्वप्रेम

कर पायेगा

फिर से खुद को “जीता ”

हुआ देख पायेगा

क्योंकि वो प्रेम नहीं जिसमे

कोई डूबा तो हो

पर उभरा न हो

उसके सानिध्य में

और निखरा न हो ….

उबरना : विपत्ति से मुक्त होना/बचना

उभरना : ऊपर उठना/उदित होना

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मेरे शिव

April 16, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ओ मेरे शिव, मैं सच में तुमसे प्यार कर बैठी

सबने कहा , क्या मिलेगा मुझे

उस योगी के संग

जिसका कोई आवास नहीं

वो फिरता रहता है

बंजारों सा

जिसका कोई एक स्थान नहीं

सब अनसुना अनदेखा कर दिया मैंने

अपने मन मंदिर में तुमको स्थापित कर बैठी

ओ मेरे शिव, मैं सच में तुमसे प्यार कर बैठी

सबने समझाया , उसका साथ है भूतो और पिशाचों से

वो क्या जुड़ पायेगा जज्बातों से

पथरीले रास्तों पे चलना होगा उसके साथ

लिपटे होंगे विषैले सर्प भी उसके आस पास

सब अनसुना अनदेखा कर दिया मैंने

अपने प्राण तुम्हारे सुपुर्द कर बैठी

ओ मेरे शिव, मैं सच में तुमसे प्यार कर बैठी

किसी की नहीं सुनी , किसी की नहीं मानी

एक तपस्वी को पाने मैं

उसकी साधना में चली

वर्षों तप किया मैंने, देखे कई उतरते चढ़ते पल

फिर भी अपना विश्वास न डिगने दिया

सिर्फ तुम्हारी धुन मन को लगी भली

खुद को रमा लिया तुम्हारी ही प्रतीक्षा में

मैं अपना सर्वस्व तुझ पर अर्पण कर बैठी

ओ मेरे शिव, मैं सच में तुमसे प्यार कर बैठी

तुम तो ठहरे मनमौजी , अपनी विरक्ति का कश लगया हुए

ऊपर से शांत , पर कंठ में विष समाये हुए

मैं जितना प्रेम दूँ वो कम है

ऐसी तेरी दीवानी बन बैठी

ओ मेरे शिव, मैं सच में तुमसे प्यार कर बैठी

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

आख़िरी इच्छा

April 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कभी कभी सोचती हूँ

अगर इस पल मेरी साँसें थम जाये

और इश्वर मुझसे ये कहने आये

मांगो जो माँगना हो

कोई एक अधूरी इच्छा जो

अभी इस पल पूरी हो जाये

मैं सोच में पड़ जाती हूँ

के ऐसा अगर सच हुआ तो

तो क्या माँगू जो

इसी पल मुझे तृप्त कर जाये

बहुत कुछ पीछे छूट गया

क्या वहाँ जा के कोई गलती

सुधार ली जाये

या कोई खुशनुमा लम्हा

फिर से जिया जाये

फिर सोचा जो बीत गया

वो बात गई, तो

चलो इस आखिरी पल में

अपने जन्म से जुड़े रिश्तों

से अलविदा ली जाये

पर शायद मैं उनका सामना

न कर पाऊँ तो

जाते जाते क्यों

आँख नम की जाये

ऐसा बहुत कुछ अधूरा है

जो इस एक लम्हें में

सिमट न पायेगा

जो भी माँगू सब यहीं धरा रह जायेगा

इसलिए सोचा क्यों

तो कुछ ऐसा माँगू

जिसके होने से सारी कायनात

इस पल मेरे आँचल में समां जाये

फिर दिल ने कहा, ऐसा है तो

चल उनसे मिलते हैं

जिनके साथ ये आख़िरी लम्हा भी

गुलज़ार हो जाये

बिना जताए , महसूस कराये

परछाई बन , चल उनको

जी भर देख आते हैं

वो मसरूफ होंगे अपने कामों में

बिना रोके टोके उन्हें

हर बची सांस में भर आते हैं

फिर मौत आती है तो आये,

अब कोई ख्वाहिश न रही ऐसी

जो अधूरी रह जाये

उन्हें सामने देख कर क्यों न

सुकून से मरा जाये

मर के भी जो साथ लिए जाऊं

ऐसा एक ताज़ा लम्हा जिया जाये …

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

बहुत देर

April 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बहुत देर कर दी ज़िन्दगी तूने

मेरे दर पे आने में

हम तो कब से लगे थे

तुझे मनाने में

अब तो न वो प्यास है

न वो तलाश है ,मानों

खुद को पा लिए हमने

किसी के रूठ जाने में

बहुत देर कर दी ज़िन्दगी तूने

मेरे दर पे आने में

तेज़ हवा में जलाया चिराग

क्यों बार बार बुझ जाता है

जब की कोई कसर नहीं छोड़ी हमने

उसके आगे घेरा बनाने में

बहुत देर कर दी ज़िन्दगी तूने

मेरे दर पे आने में

मैं मायूस नहीं हूँ

बस तुझको समझा गया हूँ

ढूँढा किये तुझे हम औरों में

पर तू तो बैठी थी कब से

मेरे ही गरीबखाने में

बहुत देर कर दी ज़िन्दगी तूने

मेरे दर पे आने में ……

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

हाय रे चीन

April 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हिंदी कविता व्यंग्य

शीर्षक-: हाय रे चीन (कोरोना और चाइना )

हाय रे चीन

चैन लिया तूने

सबका छीन

कुछ भी न बचा

तुझसे ऐसा

जो न खाया

तूने बीन बीन

हाय तू कैसा शौक़ीन

सारी दुनिया को

दे के Covid 19

कर दिया तूने

शक्तिहीन

जब वो रो रही

बिलख रही

तब तू बन ने चला

महा महीम

हाय रे चीन

तुझ पर Biological Weapon

बनाने का आरोप लगा

फिर भी तू है

लज्जाहीन

ये बीमारी देने

के बाद

तू बढ़ा रहा

अपना व्योपार

दे कर दुनिया को

Mask और

वेंटीलेटर मशीन

हाय रे चीन

दुनिया तुझसे

जवाब मांगे

आरोप हैं तुझपे संगीन

न जाने कितनो

को लील गया

तेरा Super Power

बन ने का सपना रंगीन

हाय रे चीन

हाय रे चीन ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

कोरोना वायरस

April 6, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

धर्म-जाति से परे हिंदी कविता एक भयावह महामारी पर 

लिखना नहीं चाहती थी 

पर लिखना पड़ा 

कहना नहीं चाहती थी 

पर कहना पढ़ा 

आज कल जो माहौल है 

उसे देख ये ख़ामोशी

तोडना पड़ा 

जब हम जैसे पढ़े लिखे ही 

चुप हो जायेंगे 

तो इस देश को कैसे 

बचा  पाएंगे 

जो फंसे हुए हैं हिन्दू -मुस्लिम 

के आपसी मुद्दों में 

उन्हें खींच कर बाहर  कैसे ला पाएंगे 

भारत घर है हमारा 

जो एक बीमारी से ग्रस्त है 

कोरोना तो अभी आया है 

पर इस मुद्दे से लोग १९४७ 

से त्रस्त है

हम कब आपसी झगड़ें भूल 

इस बीमारी से निकल पाएंगे ??

अभी जो भारत मिसाल बन 

लोगो की नज़रों में आया है 

उसे social distancing ने 

ही  बचाया है 

वरना तुम्हारे सामने ही है 

अमेरिका इटली और स्पेन 

का अंजाम 

जो super power हो के भी 

लाचार  नज़र आया है …

मौत का पैगाम लिए जो 

हमारे दरवाज़े खड़ा है 

वो किसी धर्म का मोहताज़ नहीं 

वो खून पीने चला है 

दूर रखें इस नियम को 

अपनी आस्था से 

और घर से ही अपने 

देवों को याद करें 

कण कण में उसको देखने वालो 

अभी घर पर ही उसका ध्यान करें 

जो है उस इश्वर का ही दूसरा स्वरुप 

उन पर यूं थूक कर पत्थर बरसा कर 

न उनका अपमान करें 

तुम्हारे घर चल वो ऊपर वाला खुद आया है 

क्यों न उसका इस्तिक्बाल करें… 

जो वाकई पढ़े लिखे हैं ,उनसे ये 

अनुरोध है कि

वे अब अपनी चुप्पी तोड़ 

इस मुहीम का भाग  बने 

जो भटके  हुए हैं अपनी मंजिलों से 

उनका सही मार्ग दर्शन करें 

उन्हें डांटे भी पुचकारे भी 

और ज़रूरत लगे तो 

चार लगाये भी 

अब समय आ गया है 

अपनी टीवी खामोश करें 

न जोड़ कर इसे विपदा को 

किसी राजनीति से 

सिर्फ अपना और अपने घर 

का बचाव करें 

अपने दिल की आवाज़ सुने 

कोई कहता है कहने दो

भडकता है भड़काने दो 

हम क्यों उनके हाथों की कटपुतली बने?? 

हम साथ रह रहे हैं कब से एक घर में 

थोड़े मन मुटाव होंगे ही  

पर एक दुसरे को तकलीफ में 

देख कर आँख होगी नम भी 

तो आओ खाए ये कसम 

हम हिन्दू मुस्लिम भूल

पहले इंसान बनें 

और कोरोना वायरस 

को हराने की लड़ाई का 

एक साथ आगाज़ करें 

एक साथ आगाज़ करें ……

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

ख्वाहिशें

April 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ख्वाहिशें सुख गई हैं ऐसे

मौसम के बदलते मिजाज़

से फसलें जैसे

क्या बोया और क्या पाया

सपनों और हक़ीकत में

कोई वास्ता न हो जैसे

ख्वाहिशें सुख गई हैं ऐसे

कल तक जो हरी भरी

मुस्कुरा रही थी

आज खुद अपनी नज़र

लग गई हो जैसे

ख्वाहिशें सुख गई हैं ऐसे

ये मंज़र देख के हाथ खड़े

कर लिए थे हमने ,

पर ये दिल, फिर उन्ही ख्वाहिशों

को मुकम्मल करने की

तहरीक दे रहा हो जैसे ……

तहरीक- प्रेरणा/Motivation

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

कोई मिल गया

March 30, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस हसीन शाम में ,

उमर की ढलान में

हाथ थामे चलने को

कोई मिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

कल क्या हो नहीं जानती , पर

इस मंजिल तक आते आते जो थकान थी

उस से थोडा आराम मिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

दिल खोल के रख दिया उसके सामने

मैं बस आज में जीती हूँ , वो छोड़ दे या थाम ले

वो समझता है मेरी इस बेफिक्री का सबब,

कि आस रखने से कोई गहरा तजुर्बा मुझे मिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

कुछ और कहूँ तो जल्दबाजी होगी

पर उसके बिना ज़िन्दगी में कोई कमी तो होगी

जिसमे उसकी सोहबत का रंग मिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

उस से हुज्ज़तें हज़ार करती हूँ

रोज़ अपनी खामियां आप ही गिनवाती हूँ

फिर भी वो अटका हुआ है मुझपे, लगता है

उसका दीमाग भी मेरी तरह हिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

खवाहिश एक अगर पूरी हो तो

ज़िक्र दूसरी का करूँ, फिर भी

एक नया ख्वाब इस लिस्ट में

जुड़ने को मिल गया है

हाँ मुझे कोई मिल गया है

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

भरोसा

March 23, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज की सच्ची घटना पर आधारित हिंदी कविता

शीर्षक :- भरोसा

आज मेरी क्यारी में बैठा परिंदा

मुझे देख छुप गया

मैं रोज़ उसको दाना डालता हूँ

फिर भी वो डरा सहमा

अपने पंखो के भीतर छुप गया

जैसे बचपन में हम आँखों पे

हथेली रख छुप जाया करते थे

वैसे ही भोलेपन से वो भी

मुझसे छुप गया

उसने सोचा के मैंने जाना नहीं

के वो वहाँ बैठा हुआ है

मैं भी चुपके से पानी रख

वहाँ से निकल गया

उसके भोलेपन पर मुस्कुराया भी

और थोडा रोना आया भी

फिर समझा के वो क्यों सहम गया

हम जितना चाहे पुण्य कमा ले

दाना डाल के उनको अब,

उनका भरोसा हम मानवों से

उठ गया

वो मुझे देख सहमा था इतना

के अपने उड़ने का हुनर

भी भूल गया

आज मेरी क्यारी में बैठा परिंदा

मुझे देख छुप गया

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

सारांश -: दोस्तों ये घटना आज सुबह की है , जो कि मेरी दैनिक दिनचर्या है कि मैं रोज़ सुबह उठते ही परिंदों को दाना डालती हूँ तब अपने दिन की शुरुआत करती हूँ , पर आज इस घटना ने मुझे एक कविता की सोच दी जो मैं आप लोगों से साँझा कर रही हूँ l भरोसा ऐसी चीज़ है जो एक बार टूट जाये तो फिर होता नहीं , चाहे वो मानव का मानव पे हो या परिंदों अथवा पशुवों का मानव पर l ये कविता हम सब की मानसिकता और भावनाओं को झकझोरती है, के हमने इंसानियत के बजाय इन पक्षी पशुओं को क्या दिया??

हाँ

March 21, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम उस दिन जो हाँ कर देते

तो किसी को नया जीवन देते

पर तुम्हारी ज्यादा सतर्क रहने की आदत ने

देखो किसी का मनोबल दबा दिया

कोई पढना चाहता था

तुम्हारी मदत से

आगे बढ़ना चाहता था

पर तुमने अपने बटुए झाँक

उसे नए जीवन से मरहूम किया

फिर वही लौटने को मजबूर किया

जहाँ से वो निकलना चाहता था

कुछ ख्वाब देखे थे

उन्हें पूरा करना चाहता था

पर हाय ,तुमने ये क्या किया

अपना बटुआ दिखा

उसे अपने दर से रुखसत किया …

चलो माना उसकी इसमे कोई चाल हो

तुमसे पैसे ऐंठने का कोई जाल हो

जिस पर शायद वो कुछ दिन

अपना महल खड़ा कर लेता

और दो घडी के लिए

तुम्हारे पैसे पर ऐश कर लेता

पर सोचो वो तुमसे क्या ही ले जाता

पैसा ले जाता, तुम्हारी किस्मत नहीं

तुमको उस ऊपर वाले ने बख्शा

और इस लायक समझा

तभी वो फ़कीर तुम्हारे दर पर

आस लिए आ टपका

ज़रा सोचो, शायद वो सच में ज़रूरत में हो

पर तुमने उस से कहा कि

तुम अभी पैसों की किल्लत में हो

वो पैसे जो शायद तुम्हारे एक

महीने की फ़िज़ूल खर्ची से कम हो

कर के मायूस उसे तुमने

अपना पैसा तो बचा लिया

पर ये क्या,

अख़बारों की सुर्ख़ियों में

उसका ज़िक्र सुन दिल थाम लिया

काश तुम उसकी मदत जो कर पाते

तो उसके जीवन को बचा पाते

जिस से वो निकलना चाहता था

पर यूं नहीं .. ??

वो कुछ करना चाहता था

तुम्हारी ज़रा सी मदत से

आगे बढ़ना चाहता था

पर तुम्हारे ज्यादा सतर्क रहने

की आदत ने

देखो क्या अंजाम दिया

तुम अपना बटुआ झांकते रह गए

और उसने अपने सपने का अंत किया

खैर अब पछताए होत क्या

जब उसका जीवन ही रहा न शेष …

तुम उस दिन जो हाँ कर देते

तो इस पछतावे से खुद को बचा लेते

पैसा जाता तो जाता

तुम उसे फिर कमा लेते

पर किसी के घर का दीपक बुझने

से बचा लेते

तुम उस दिन जो हाँ कर देते

तुम उस दिन जो हाँ कर देते ….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

थोड़ी सी नमी

March 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

तूफानों को आने दो

मज़बूत दरख्तों की

औकात पता चल जाती है

पेड़ जितना बड़ा और पुराना हो

उसके गिरने की आवाज़

दूर तलक़ आती है

सींचा हो जिन्हें प्यार से

उन्हें यूं बेजान देख कर

एक आह सी निकलती है

पर उसे जिंदा रखने की ललक

सब में कहा होती है

ज़रा कोई पूछे उस माली से

जिसकी एक उम्र उसकी देखरेख

में निकल जाती है

थोड़ी सी नमी

हर बात सवाँर देती है

रिश्ता हो या पौधा

जडें मज़बूत हो तो

थोड़ी से परवाह, उन्में

नयी जान डाल देती है

गिर कर सूख भी गया हो

तो क्या हुआ

उस पर बहार

फिर आ ही जाती है

तूफानों को आने दो

मज़बूत दरख्तों की

औकात पता चल जाती है

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

इस बार

March 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सोचती हूँ,
क्या इस बार तुम्हारे आने पर
पहले सा आलिंगन कर पाऊँगी
या तुम्हें इतने दिनों बाद देख
ख़ुशी से झूम जाउंगी

चेहरे पे मुस्कान तो होगी
पर क्या वो सामान्य होगी
तुम्हें चाय का प्याला दे
क्या एक मेज़बान की तरह
मिल पाऊँगी

तुम सोफे पर बैठे
शायद घर की तारीफ करोगे
माहौल को हल्का करने
ज़िक्र बाहरी नजारों का करोगे
तुम्हारी इधर उधर की बातों से
क्या मैं खुद को सहज कर पाऊँगी

मेरी ख़ामोशी पढ़ तुम सोचोगे
जैसा छोड़ा था सब कुछ वैसा ही है
मैं भी उसे भांप कर कहूँगी
हाँ, जो तोडा था तुमने वो
बिखरा हुआ ही है
क्या मैं अपनी चुप से
वो चुभन छुपा पाऊँगी

बहुत कोशिशें कर भी,
जब मैं खुद को न रोक पाऊँगी
पूछूंगी वही बात फिर से ,
न चाहते हुए भी दोहराऊंगी
ज़ुबानी ही सही
क्या पल भर के लिए भी वो लम्हा
मैं दोबारा जी पाऊँगी

मेरी ये बात सुन तुम मुझ पर
खिंझोगे चिल्लाओगे
अपने को सही साबित करने
तर्क वितर्क तैयार कर आओगे
मैं सिर्फ एक सवाल पूछूंगी तुमसे
तुम मेरी जगह होते तो क्या करते
तुमने जो अपने मन की कही, तो ठहर जाऊं शायद
वरना तुम्हें माफ़ कर आगे बढ़ जाउंगी

तुम्हारा जवाब मुझे मालूम है कब से
तुम औरों के दिल की कहा करते हो
सिर्फ अपनी ही सुनते हो
और अपना अहम् साथ लिए चलते हो
तुम शायद मुझे मनाओगे, और
फिर मुझे पीछे छोड़, चले जाओगे
तुम्हारे इस रुख से तारुफ्फ़ है मेरा
इसलिए इस बार अपने फैसले पर
नहीं पछताऊँगी
उस पल को एक और सौगात समझ
थोड़ी और पत्थर दिल हो जाऊंगी,पर
इस बार तुम्हारा यकीन न कर पाऊँगी
खुद को फिर से
बिखरा हुआ न देख पाऊँगी …..

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मैं कुछ भूलता नहीं

March 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं कुछ भूलता नहीं ,मुझे सब याद रहता है
अजी, अपनों से मिला गम, कहाँ भरता है

सुना है, वख्त हर ज़ख़्म का इलाज है
पर कभी-२ कम्बख्त वख्त भी कहाँ गुज़रता है

मैं अब बेख़ौफ़ गैरों पे भरोसा कर लेता हूँ
जिसने सहा हो अपनों का वार सीने पे , वो गैरों से कहाँ डरता है

बुरी आदत है मुझमें खुद से बदला लेने की
जब आती है अपनों की बात,तो खुद का ख्याल कहाँ रहता है

मैं कुछ भूलता नहीं ,मुझे सब याद रहता है….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

क्यों

March 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

क्यों एक बेटी की विदाई तक ही
एक पिता उसका जवाबदार है ?
क्यों किस्मत के सहारे छोड़ कर उसको
कोई न ज़िम्मेदार है?

क्यों घर बैठे एक निकम्मे लड़के
पर वंश का दामोदर है ?
क्यों भीड़ चीरती अपना आप खुद लिखती
एक बेटी का न कोई मदतगार है?

क्यों कपूत हो या सपूत
हर हाल में स्वीकार है ?
फिर क्यों एक बेटी के घर रहने से
कुटुंब की इज्ज़त बेकार है ?

क्यों कोई जो नज़र डाले उस पर
तो वो ही कसूरवार है ?
क्यों कोई पूछता नहीं उस बेटे से
जिसे मिले ऐसे संस्कार हैं?

क्यों एक बेटे के विदेश से लौट आने का
घर में रहता सबको इंतजार है
पर एक बेटी का नाकामयाब रिश्ते से
बाहर आना सबको नागवार है ?

क्यों जीने से मरने तक तुमको सिर्फ
बेटों से सरोकार है?
ऐसा अब क्या रह गया है जो
एक बेटी की पहुँच से बाहर है ?

क्यों बेटियाँ ही पराई हैं और बेटो को मिला
हर अधिकार है ?
कोई ढूंढें उसे,जो ऐसी विकृत सोच दे कर दुनिया को
न जाने कहाँ फरार है?

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

लाज़मी सा सब कुछ

February 29, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मुझे वो लाज़मी सा सब कुछ दिलवा दो
जो यूं ही सबको मिल जाता है
न जाने कौन बांटता है सबका हिस्सा
जिसे मेरे हिस्सा नज़र नहीं आता है

बहुत कुछ गैर लाज़मी तो मिला
अच्छे नसीबो से
पर लाज़मी सा सब कुछ
मेरे दर से लौट जाता है

न छु सकूँ जिसे , बस
महसूस कर सकूँ
क्यों ऐसा अनमोल खज़ाना
मेरे हाथ नहीं आता है

लाज़मी है प्यार ,अपनापन और रिश्ते ,जिसका बिना
गैर लाज़मी सा नाम ,शोहरत और पैसा
मेरे काम नहीं आता है

मुझे ये सब लाज़मी सा दिलवा दो
जो सबको यूं ही मिल जाता है …..

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

दरख्वास्त

February 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सुनो, मुझे अपना बना लो
मन को तो लूभा चुके हो
अब मुझे खुद में छुपा लो

हूँ बिखरी और बहुत झल्ली सी
अपनी नज़रों में पगली सी
पर तुम्हारी नज़रों से जब खुद को देखा
लगने लगी भली भली सी
सुनो, इन नज़रों में
ता उम्र मुझको बसा लो
सुनो, मुझे अपना बना लो

मेरे हालातों से न तुमने मुझे आँका
न कोई प्रश्न किया न मुझको डाटा
ऊपरी आवरण से न परखा मुझको
तुमने भीतर मन में झाँका
सुनो, इस एहतराम के नज़राने
मुझे अपना हमराज़ बना लो
सुनो, मुझे अपना बना लो

तुम्हें देने को मेरे पास कुछ नहीं
इस एहसास की कीमत लगाऊँ इतनी तुच्छ नहीं
किसी और की प्रीत न भाये “दो नैनो ” को
अब इस से ज्यादा की ख्वाहिश नहीं
सुनो, कोई और न पुकार सके हमें
जहाँ पे , ऐसा मक़ाम दिला दो
सुनो, इस दरख्वास्त पर भी थोडा गौर फरमा लो

मुझे अपना बना लो
मन को तो लूभा चुके हो
अब मुझे खुद में छुपा लो….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

सच

February 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कितना सरल है, सच को स्वीकार कर
जीवन में विलय कर लेना
संकोच ,कुंठा और अवसाद
को खुद से दूर कर लेना

जिनके लिए तुम अपने हो
वो हर हाल में तुम्हारे ही रहेंगे,
कह दोगे जो हर बात दिल की
तो उनसे रिश्ते और गहरे ही जुड़ेंगे
कितना सरल है , औरों की सोच का प्रभाव
खुद पर न पड़ने देना
और सच कह कर अपना रिश्ता मज़बूत कर लेना

यूं जब तुम खुद से मिलते हो
तो ही सच स्वीकार करते हो
जब अपनेपन से खुद से बात करते हो
हवा में उड़ते पत्ते सा हल्का महसूस करते हो
कितना सरल है , कटु सत्य स्वीकार कर
अपना सम्मान क्षीण न होने देना
और सच कह कर आत्मग्लानि से खुद को दूर कर लेना

किसी ने सच ही कहा है , कोई सच न छुपा सका है
स्वीकार कर इसे खुद भी सरल हो जाओगे
यूं कब तक सच का सामना करने से घबराओगे
औरों से नज़रें मिला तो लोगे, पर खुद से नज़रें न मिला पाओगे
कितना सरल है, लोक लाज,मर्यादा और दिखावे से
खुद को आजाद कर लेना
और सच स्वीकार कर जीवन में विलय कर लेना

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मतलब की धूल

February 11, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वख्त की तेज़ धूप ने
सब ज़ाहिर कर दिया है
खरे सोने पर ऐसी बिखरी
की उसकी चमक को
काफ़ूर कर दिया है

जब तक दाना डालते रहे
चिड़िया उन्हें चुगती रही
हुए जब हाथ खाली तो
उसकी चोंच ने ज़ख़्मी कर दिया है

जब तक मेज़बान थे
घर में रौनक लगी रही
शामियानों के बुझते ही, इस मेहमान नवाज़ी
ने मेरे घर का क्या हाल कर दिया है

ये सुरमई धूप अपने संग
बहार ले कर आई है, जिसने
दोस्ती पे चढ़ी मतलब की धूल को
उजागर कर दिया है
वख्त की तेज़ धूप ने
सब ज़ाहिर कर दिया है ……

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

कहाँ तक साथ चलोगे

February 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सबसे जुदा हो कर पा तो लिया तुमको मैंने
पर ये तो बोलो कहाँ तक साथ चलोगे ?
न हो अगर कोई बंधन रस्मो और रिवाजों का
क्या तब भी मेरा साथ चुनोगे
बोलो कहाँ तक साथ चलोगे ?

एक धागे में पिरोई माला तक
सिमित रहेगा प्यार तुम्हारा
या इस गठबंधन के बाहर भी
तुम मुझसे ही प्यार करोगे

कागज़ पर लिखा तो विवश होकर भी
निभाना पड़ता है
इस विवशता से परे क्या
तुम मेरे अंतर्मन को भांप सकोगे

कभी जो आहत हो मन तुम्हारा
मेरी किसी नादानी पर,
समझा लेना मुझको प्यार से,
विचारों में पलती दूरियों को
तुम वही थाम लोगे

कैसी भी घड़ी हो ,
कितनी भी विषम परिस्थिति हो
तुम सदा मेरा विश्वास करोगे
तुम मेरे साथ रहोगे
बोलो क्या ये सब निभा सकोगे ?

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

वख्त की आज़मायिश

February 1, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये जो मेरा कल आज धुंधला सा है
सिर्फ कुछ देर की बात है
अभी ज़रा देर का कोहरा सा है

धुंध जब ये झट जाएगी
एक उजली सुबह नज़र आएगी
बिखरेगी सूरज की किरण फिर से
ये ग्रहण सिर्फ कुछ देर का है

अभी जो अँधेरा ढीठ बना फैला हुआ है
तुम्हें नहीं पता,वो तुम्हें आजमाने पर तुला हुआ है
इस अँधेरे को चीर उसे दिखलाओ
तुम्हारी काबिलयत पर उसे शक सा है

ये माना,मंजिल तक पहुँचने के रास्ते कुछ तंग हो गए हैं
हसरत थी जिनके साथ चलने की,
उनपे चढ़े मुखौटों को उतरता देख, हम दंग हो गए हैं
सही मानों में तू आज, इस वख्त का शुक्रगुज़ार सा है

राहतें भी मिल जाएगी एक दिन ,अभी तू थोडा सब्र तो रख
जो तुझे आज हारा हुआ समझते हैं,
उनको एक नए कल से मिलवाने, की तड़प दिल में लिए, चलता चल
टूट कर बिखरे थे तुम कभी, ये दास्ताँ, सुनने को तेरा कल बेक़रार सा है

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मेरा श्रृंगार तुमसे

January 20, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

दर्पण के सामने खड़ी होकर, जब भी खुद को सँवारती हूँ
उस दर्पण में तुमको साथ देख,अचरज में पड़ जाती हूँ

शरमाकर कजरारी नज़रें नीचे झुक जाती हैं
पर कनखियों से तुमको ही देखा करती हैं
यूं आँखों ही आँखों में पूछ लेती है इशारों में
बताओ कैसी लग रही हूँ इस बिंदिया के सितारों में
मेरी टेढ़ी बिंदी सीधी कर तुम जब अपना प्यार जताते हो
उस पल तुम अपने स्पर्श से, मुझसे मुझको चुरा ले जाते हो
ये पायल चूड़ी झुमके कंगन सब देते हैं मुझे तुम्हारी संगत
इनकी खनकती आवाजों में सिर्फ तुम्हारा नाम पाती हूँ
दर्पण के सामने खड़ी होकर, जब भी खुद को सँवारती हूँ

ये सच है, पहरों दर्पण के सामने बिता कर ,सिर्फ तुमको रिझाना चाहती हूँ
तुम मेरे लिए सबसे पहले हो ,तुमको बताना चाहती हूँ
कहने को ये श्रृंगार है मेरा, पर सही मानों में प्यार ओढ़ रखा है तेरा
जिसे मैं हर बला की नज़र से बचा कर,अपने पल्लू से बांधे रखना चाहती हूँ
अपनी प्रीत हर रोज़ यूं ही सजा कर, तुम्हें सिर्फ अपना ख्याल देना चाहती हूँ
दर्पण के सामने खड़ी होकर, जब भी खुद को सँवारती हूँ
उस दर्पण में तुमको साथ देख,अचरज में पड़ जाती हूँ

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

#ArchanaKiRachna

शिवांशी

January 19, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं शिवांशी , जल की धार बन

शांत , निश्चल और धवल सी

शिव जटाओं से बह चली हूँ

अपने मार्ग खुद ढूँढती और बनाती

आत्मबल से भरपूर

खुद अपना ही साथ लिए

बह चली हूँ

कभी किसी कमंडल में

पूजन को ठहर गई हूँ

कभी नदिया बन किसी

सागर में विलय हो चली हूँ

जिस पात्र में रखा उसके

ही रूप में ढल गई हूँ

तुम सिर्फ मेरा मान बनाये

रखना, बस इतनी सी इच्छा लिए

तुम्हारे संग बह चली हूँ

मुझे हाथ में लेकर जो

वचन लिए तुमने

उन वचनों को झूठा होता देख,

आहत हो कर भी , अपने अंतर्मन

के कोलाहल को शांत कर बह चली हूँ

खुद को वरदान समझूँ या श्राप

मैं तुम्हारे दोषों को हरते और माफ़ करते

खुद मलीन हो बह चली हूँ

हूँ शिवप्रिया और लाडली अपने शिव की

उनकी ही तरह ये विषपान कर

फिर उन्हीं में मिल जाने के लिए

अपने कर्तव्यों का भान कर

निरंतर बह चली हूँ

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

मेरे जैसी मैं

January 18, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ

वख्त ने बदल दिया बहुत कुछ

मैं कोमलांगना से

काठ जैसी हो गई हूँ

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ

समय के साथ बदलती विचारधारा ने

मेरे कोमल स्वरुप को

एक किवाड़ के पीछे बंद तो कर दिया है

पर मन से आज भी मैं वही ठहरी हुई हूँ

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ

पहले मैं सिर्फ घर संभाला करती थी

वख्त आने पे रानी रानी लक्ष्मी बाई बन

दुश्मन को पिछाडा करती थी

आज मैं एक वख्त में दो जगह बंट गई हूँ

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ

भीतर से दिल आज भी पायल बिछुवे पहन

अपने घर संसार में बंधे रहने को कहता है

पर ज़रूरतों के आगे इन बातों के लिए

वख्त किस के पास बचा है

अपनी नयी पहचान बनाने को

पुरानी परम्पराओं से खुद को आजाद कर चुकी हूँ

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ

पहले नारी अपने घर की देहलीज़ में

ही सिमटी नज़र आती थी

अब नारी सशक्त हो पुरुषों से कंधे

से कंधा मिला बढती नज़र आती है

पर कोमल से सशक्त बन ने के सफ़र में

बहुत हद तक पुरुषों सी ज़िम्मेदार हो गई हूँ

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ

मैं ये नहीं कहती के ऐसा होने में

कोई बुराई है , पर जब बदलते वख्त के साथ

पुरुष का किरदार वही रहा

तो मैं क्यों दोहरी जिम्मेदारी निभाते

अपनी पुरानी पहचान खो चुकी हूँ

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ

ये माना वख्त के साथ नजरिया

बदलना पड़ता है

अब घर सँभालने गृह लक्ष्मी को भी

बाहर निकलना पड़ता है

दोहरी ज़िम्मेदारी निभाते मैं

और जवाबदार हो चुकी हूँ

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ

वख्त ने बदल ने बहुत कुछ

मैं कोमलांगना से

काठ जैसी हो गई हूँ

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

करम

January 17, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे, मुझसे मिलवाया है
नहीं तो, भटकता रहता उम्र भर यूं ही
मुझे उनके सिवा कुछ भी न नज़र आया है

लोग इश्क में डूब कर
फ़ना हो जाते हैं
पर मैंने डूब करअपनी मंजिलों
को रु ब रु पाया है
मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे मुझसे मिलवाया है

कब तक हाथ थामे चलते रहने
की बुरी आदत बनाये रखते
क्योंकि, इस आदत के लग जाने पर
कोई फिर,खुद पर यकीन न कर पाया है
मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे मुझसे मिलवाया है

मेरा होना और खोना समझ सकेंगे
वो भी एक दिन
जब उनका ही किरदार लिए कोई
उनसे वैसे ही पेश आया है
मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे मुझसे मिलवाया है

जब वो पास थे तो खुश था बहुत
अब मैंने खुद को और भी
खुश पाया है
क्योंकि, जो होता है अच्छे के लिए होता है
ये मैंने सिर्फ सुना नहीं , खुद पर असर होता पाया है
मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे मुझसे मिलवाया है

मेरे महबूब का करम मुझ पर
जिसने मुझे मुझसे मिलवाया है
नहीं तो, भटकता रहता उम्र भर यूं ही
मुझे उनके सिवा कुछ भी न नज़र आया है

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

आँखों का नूर

January 15, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

कल उस बात को एक साल हो गया
वख्त नाराज़ था मुझसे
न जाने कैसे मेहरबान हो गया
मेरी धड़कन में आ बसा तू
ये कैसा कमाल हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

रोज़ दुआ भी पढ़ी और
आदतें भी बदली
सिर्फ तेरी सलामती की चाहत रखना
मेरा एक एकलौता काम हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

सिर्फ तू ही मेरे साथ रहे
तुझे किसी की नज़र न लगे
सारे रिश्ते एक तरफ सिर्फ
तुझसे मिला रिश्ता मेरी पहचान हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

जब तुझे पहली बार देखा
दिल ज़ोरों से धड़का
उस पल में ख़ुशी भी थी
और चिंता भी, यूं लगा
जीवन में पहली बार मैं ज़िम्मेदार हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

तेरे मुझमे होने की बेचैनियाँ मैंने महसूस की
तेरी करवटों से रातें भी मेरी कुछ तंग थी
फिर भी तेरे इंतजार को
उँगलियों पे गिनना खास हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

तू चाँद होता या चांदनी उस चाँद की
तेरे नैन नक्श सोचा करती थी बनी बावरी
तू मेरे कर्मों का सिला बन
उस खुदा का उपहार हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

तेरी ज़िन्दगी की ढाल बनूँ
तेरे हर कदम पर नज़र रखूँ
तू गिरे कही तो संभाल लूँ
पर ये ख्याल मेरा, ख्गाब सा हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

अब तक तू मेरी गोद में बाहें फैलाये
मुस्कुरा रहा होता ,तेरी हर ख्वाहिश पूरी करने को
मैंने सारा घर सर उठा रखा होता
तू आँखों का नूर बन,आँखों से दूर हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

वख्त आज भी वही रुका सा है
तू हर तरफ आज भी एक मरीचिका सा है
कुछ धुंधला सा था आँखों के सामने अभी अभी
फिर कहीं ओझल हो गया
कल उस बात को एक साल हो गया

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

दोस्ती

January 14, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो थोडा दिल हल्का करें
कुछ गलतियां माफ़ कर आगे बढें
बरसों लग गए यहाँ तक आने में
इस रिश्ते को यूं ही न ज़ाया करें
कुछ तुम भुला दो , कुछ हम भुला दें

कड़ी धूप में रखा बर्तन ही मज़बूत बन पाता है
उसके बिगड़ जाने का मिटटी को क्यों दोष दें
कुछ तुम भुला दो , कुछ हम भुला दें

यूं अगर दफ़न होना होता ,तो कब के हो गए होते
सिल लिए थे कई ज़ख़्म हम दोनों ने ,
तब जा के ये रिश्ते आगे बढें
कुछ तुम भुला दो , कुछ हम भुला दें

दोस्ती एक घर है जिसमे विचारों के बर्तन खड्केंगे ही
विचारों में है जो दूरियां उनको क्यों आकार दें
कुछ तुम भुला दो , कुछ हम भुला दें

यूं भावनाओं के आवेश में चार बातें निकल जाती हैं
उन बातों का मोल बढ़ा कर
अपनी अनमोल दोस्ती का मोल कम न करें
कुछ तुम भुला दो , कुछ हम भुला दें

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

छल

January 13, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

छल और प्यार में से क्या चुनूँ
जो बीत गया उसे साथ ले कर क्यों चलूँ

पतंग जो कट गई डोर से
वो खुद ही कब तक उड़ पायेगी
हालात के थपेडों से बचाने को उसको
फिर नयी डोर का सहारा क्यों न दूं

जो शाख कभी फूलों से महकी रहती थी
वो पतझड़ में वीरान हो चली है
उसे सावन में फिर नयी कोपल आने का
इंतजार क्यों न दूं

छल चाहे जैसा भी हो , उसे ढोना भारी हो जाता है
आधा सफ़र तो कट गया , पर रास्ता अभी लम्बा है
उस भार को यहीं उतार
बाकी का सफ़र क्यों न आसां करूँ

कहते हैं देने वाला अपने हैसियत के
हिसाब से देता है
उस से उसकी हैसियत के बाहर
की उम्मीद क्यों करूँ

छोटी सी ज़िन्दगी में जो मिला, क्या कम है
खुद से थोडा प्यार जताकर
फिर से ज़िन्दगी के दामन से
क्यों न बंधू

छल और प्यार में से क्या चुनूँ
जो बीत गया उसे साथ ले कर क्यों चलूँ

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

वख्त

January 12, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

वख्त जो नहीं दिया किसी ने
उसे छीनना कैसा
उसे मांगना कैसा
छिनोगे तो सिर्फ २ दिन का ही सुख पाओगे
और मांगोगे तो लाचार नज़र आओगे
छोड़ दो इसे भी वख्त के हाल पर
जो जान कर सो गया , उसे जगाना कैसा

वख्त जो किसी के साथ गुज़ार आये
उसका पछतावा कैसा
उसका भुलावा कैसा
पछता के भी बीते कल को न बदल पाओगे
पर भूल कर उसे ज़रूर एक नया कल लिख पाओगे
तोड़ लो बीते कल की जंजीरों को
ये सर्पलाता है , इनसे लिपट कर, जीना कैसा

वख्त तो एक दान है
दिल से दिया तो पुण्य
और गिना दिया तो सब पुण्य बेकार है
जिसको मिला वो निर्धन, जिसने दिया वो धनवान है
और जो दे दिया किसी को, उसका गिनाना कैसा ……..

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

इश्क का राज़ीनामा

January 9, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

काश इश्क करने से पहले भी
एक राज़ीनामा ज़रूरी हो जाये
जो कोई तोड़े तो हो ऐसा जुर्माना
जो सबकी जेबों पर भारी हो जाये

फिर देखो बेवज़ह दिल न फिसला करेंगे
इश्क की गलियों से बच- बच निकला करेंगे
वो ही पड़ेगा इसके चक्करों में,
जो सारी शर्तों को राज़ी हो जाये

कोई मनचला किसी कॉलेज के बाहर न दिखेगा
कोई दिल बहलाने को कुछ यूं ही न कहेगा
जिसे निभाना उसकी हैसियत से बाहर हो जाये

भटके है जो बच्चे छोटी सी उम्र में
दूध के दांत टूटे नहीं ,चल दिए इश्क की डगर में
18 की उम्र के नीचे सबकी अर्जी खारिज़ हो जाये

जानती हूँ ऐसा हो न पायेगा
पर इस से बहुत लोगो का जीवन सुधर जायेगा
इश्क बहुत कीमती है कही यूं ही सस्ता न हो जाये
काश इश्क करने से पहले भी एक राज़ीनामा ज़रूरी हो जाये
काश एक ऐसा सुझाव जन हित में जारी हो जाये….

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

बारिश

January 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बारिश से कहो यूं न आया करे
मुझे तेरा उनके बगैर आना अच्छा नहीं लगता

तूने आने से पहले दस्तक तो दी थी
सर्द मौसम में भिगोने की जुर्रत तो की थी
जितना चाहे रिझा ले मुझको रूमानी हो के
मुझे उनके बिना भीगना अच्छा नहीं लगता
मुझे तेरा उनके बगैर आना अच्छा नहीं लगता

दिल्ली की हवा सिली सी हो गई है
जलाई थी जो लकडियाँ
वो गीली सी हो गई है
शीशों पे पड़ी ओस पर इंतजार लिखना, अच्छा नहीं लगता
मुझे तेरा उनके बगैर आना अच्छा नहीं लगता

तेरा आना , जवाँ दिलो की धड़कने बढ़ाना
उनको भीगा देख शरारत करने को मचलना
मुझे आप ही बिखरा काजल और आँचल समेटना ,अच्छा नहीं लगता
मुझे तेरा उनके बगैर आना अच्छा नहीं लगता

तू सर्दी में आ या गर्मी में हमेशा सुहावनी लगती है
गर्मी में तू अल्हड़ शरारतों सी और
सर्दी में आग बन कम्बल मे दुबकी रहती है
दे कर हवा मेरी आरजुओं को यूं भड़काना, अच्छा नहीं लगता
मुझे तेरा उनके बगैर आना अच्छा नहीं लगता
बारिश से कहो यूं न आया करे…..
अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

ख़त

January 7, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैंने उन्हें एक ख़त भिजवाया है
एक लिफाफे में उसे रखवाया है
देखने में कोरा न लगे,इसलिए
उस लिफाफे को खूब सजाया है

जो पहुचेगा वो उनके हाथों में
रख देंगें वो उसे किताबें में
सोचेंगे की क्या पढूं ,
जब ख़त के अन्दर का हाल
लिफाफे की सजावट में उभर आया है
मैंने उन्हें एक ख़त भिजवाया है
एक लिफाफे में उसे रखवाया है

सोचती हूँ कोरा इसे जो छोड़ देती
तो क्या उनके मन को कचोट पाती
चमकते लिबास ने ढांक रखा है
उदास रूह का हाल
और इस चेहरे को हंसी से सजाया है
मैंने उन्हें एक ख़त भिजवाया है
एक लिफाफे में उसे रखवाया है

ख़त के भीतर कुछ खास नहीं
तुम कैसे हो ,कोई परेशानी की बात तो नहीं ?
अपने बारे में क्या लिखती
मेरा हाल वो इस लिफाफे से जान ही लेंगे
हूँ उनके ख़त के इंतजार में , क्या ये वो मान लेंगे
क्योंकि उनके पिछले ख़त का जवाब भी
अब तक न पहुँच पाया है
मैंने उन्हें एक ख़त भिजवाया है
एक लिफाफे में उसे रखवाया है

मैंने उन्हें एक ख़त भिजवाया है
एक लिफाफे में उसे रखवाया है
देखने में कोरा न लगे,इसलिए
उस लिफाफे को खूब सजाया है…

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

“लाडली”

November 30, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
कहीं “लाडली” तो कहीं उदासी का सबब बन जाती हूँ
नाज़ुक से कंधो पे होता है बोझ बचपन से
कहीं मर्यादा और समाज के चलते अपनी दहलीज़ में सिमट के रह जाती हूँ
और कहीं ऊँची उड़ान को भरने अपने सपने को जीने का हौसला पाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
पराया धन समझ कर पराया कर देते हैं कुछ मुझको
बिना छत के मकानो से बेगाना कर देते हैं कुछ मुझको
और कहीं घर की रौनक सम्पन्नता समझी जाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
है अजब विडंबना ये न पीहर मेरा ना पिया घर मेरा
जहाँ अपनेपन से इक उमर गुजार आती हूँ
फिर भी घर-घर नवदीन पूँजी जाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
हैं महान वो माता-पीता जो करते हैं दान बेटी का
अपने कलजे के टुकड़े को विदा करने की नियति का
क्योक़ि ये रीत चली आयी है बेटी है तो तो विदाई है
फिर भी मैं सारी उमर माँ – बाबा की अमानत कहलाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
है कुछ के नसीब अच्छे जो मिलता है परिवार उनको घर जैसा
वरना कहीं तो बस नाम के हैं रिश्ते और बेटियां बोझ समझी जाती हैं
काश ईश्वर देता अधिकार हर बेटी को अपना घर चुनने का
जहां हर बेटी नाज़ो से पाली जाती है और “लाडली” कहलाती है
और “लाडली” कहलाती है…..

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

यादों की नयी सुबह

November 29, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

गया वख्त जो अक्सर गुज़रता नहीं तमाम रात थोडा

हँसा कर थोडा रूला कर अपनापन जता गया

जाते जाते कह गया मैं यही हूँ तेरे साथ

फिर कभी तन्हाइयों में दस्तक दे जाऊंगा

जब कभी तू अकेला हो तेरे साथ ठहर जाऊंगा

तुझे अपने आज में जीने का हुनर सीखा जाऊंगा

तू मेरे काँधे पर सर रख कर रो लेने जी भर

जब सुबह होगी तुझे नयी उम्मीद दे जाऊंगा

यहाँ तमाम ऐसे भी है जिनकी किस्मत तुझ जैसी भी नहीं

जो तुझ मिला वो उनकी किस्मत में दूर तक भी नहीं

तुझे हौसला है खुद को सँभालने का

कुछ खुद के लिए और कुछ दुसरो के लिए कर जाने का

तू हिम्मत बाँध फिर खड़ा हो अपनी ज़िन्दगी फिर सवारने के लिए

बीती ज़िन्दगी से सबक ले के एक नयी कहानी लिखने के लिए

गया वख्त मुझे ये सब सीखा गया

थोडा हँसा कर थोडा रूला कर अपनापन जता गया

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

“पिता “

November 28, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

लोग कहते हैं , मैं अपने पापा जैसे दिखती हूँ,

एक बेटे सा भरोसा था उनको मुझपर

मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ।

मैं रूठ जाती थी उनसे, जब वो मेरे गिरने पर उठाने नहीं आते थे

पर आज समझती हूँ , वो ऐसा क्यों करते थे

आज मैं अपने पैरों पे हूँ , उसी वजय से

दे कर सहारा वो मुझे हमेशा के लिए कमज़ोर कर सकते थे।

जीवन की कठनाइयों में गर मुझको सहारों की आदत हो जाती

तो मैं गिर कर कभी खुद संभल नहीं पाती

मेरे आत्मविश्वास को सबल किया उन्होंने

तब ही आज मैं खुद अपने निर्णय ले पाती हूँ

और बिन सहारे चल पाती हूँ

मैं उनसे कुछ भी कह सकती थी

वो एक दोस्त सा मुझको समझते थे

हम भाई बहन से लड़ते भी थे

वो उस पल मेरे संग बच्चा हो जाते थे

होती थी परेशान जब कभी

तो वो एक गुरु की तरह सही दिशा दिखाते थे

ऐसा था रिश्ता था हमारा

इस जहान में सबसे अलग सबसे प्यारा

काश एक रिसेट बटन होता ज़िन्दगी में

और मैं उनको वापस ले आती

उस जहान से जहाँ से लोग जा कर वापस नहीं आते

एक बेटी के जीवन में

पैरों तले ज़मीन और सर पर छत सा होता है “पिता ”

भले और रिश्ते भी हैं मेरे दायरे में

पर एक बेटी की पहचान होता है “पिता ”

वो मुझको अगर आज भी देखते होंगे

तो मुझपे गुमान तो करते होंगे

की कैसे उनके सिखाये सूत्रों को अपनाकर

मैं अकेले बढ़ती जा रही हूँ

गिरती पड़ती और संभलती

अपनी मंज़िल तक का सफर खुद बुनती जा रही हूँ

आज न पैरों तले ज़मीन रही

और न सर पर पितारूपी छत

फिर भी आज भी उनकी ऊँगली थामे बढ़ती जा रही हूँ।

लोग कहते हैं , मैं अपने पापा जैसे दिखती हूँ,

एक बेटे सा भरोसा था उनको मुझपर

मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ।

अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”

कुछ कही छूट गया मेरा

November 27, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम अपना घर ठीक से

ढूंढना ,कुछ वहीं

छूट गया मेरा

ढूंढ़ना उसे , अपने किचन में

जहाँ हमने साथ चाय बनाई थी

तुम चीनी कम लेते हो

ये बात तुमने उसे पीने के बाद बताई थी

उस गरम चाय की चुस्की लेकर

जब तुमने रखा था दिल मेरा

तुम अपना किचन ठीक से

ढूंढना , कुछ वही छूट गया मेरा

ढूंढना उसे , उस परदे के पास

जो उस बालकनी पे

रौशनी का पहरा देता था

फिर भी उस से छन के आती रौशनी

को खुद पे ले कर

जब तुमने ढका था चेहरा मेरा

तुम अपना कमरा ठीक से

ढूंढना, कुछ वही छूट गया मेरा

ढूंढना उसे, उस लिहाफ के नीचे

जो नींद आने पर तुमने मुझे ओढ़ाई थी

किसी आहट से नींद न खुल जाये मेरी

जब तुमने अपने फ़ोन की आवाज़

दबाई थी

यूं खुद जग कर तुमने रखा

था ख्याल मेरा

तुम अपना बिस्तर ठीक से

ढूंढना, कुछ वही छूट गया मेरा

ढूंढना उसे , उस सोफे पे

जहाँ मैंने तुम्हे कुछ दिल

की बात बताई थी

मेरी बातों को समझ कर

तुमने जीता था विश्वास मेरा

और यूं बातों ही बातों में

तुमने थामा था हाथ मेरा

तुम उस सोफे को ठीक से

ढूंढना , कुछ वही छूट गया मेरा

ढूंढना उसे , एयरपोर्ट से अपने घर

आती सड़को पर

जब बारिश ने आ कर हमारे

मिलने के इंतज़ार की

थोड़ी और अवधि बढ़ाई थी

जो ख़ुशी उस इंतज़ार में थी

वो रुखसत के वख्त

ज़ाहिर है ,न थी

और तुमने गले लगा कर

पढ़ लिया था दिल का हाल मेरा

तुम उस रास्तें को ठीक से

ढूंढ़ना , कुछ वही छूट गया मेरा

यूं तो मैं सब कुछ ले आई हूँ

पर फिर भी कुछ तो रह गया

वही पर

कहने को पूरी यहाँ हूँ

पर जान वही रह गई कही पर

ऐसा बहुत कुछ छूट गया मेरा

तुम अपना घर ठीक से

ढूंढना ,कुछ वहीं

छूट गया मेरा

तुम अपना घर ठीक से

ढूंढ़ना

शायद मैं वही मिल जाऊँ

कही पर…….

नव प्रभात

November 25, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

चाहे कितने भी बादल

घिरे हो

सूरज की किरणें बिखर

ही जाती हैं

अंत कैसा भी हो

कभी घबराना नहीं

क्योंकि सूर्यास्त का मंज़र

देख कर भी

लोगो के मुँह से

वाह निकल ही जाती है

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

अगर नया अध्याय लिखना हो

तो थोड़ा कष्ट उठाना ही पड़ता है

पत्थर को तराशने में

थोड़ा प्रहार सहना पड़ता है

सही आकर ले कर ही

वो बेशकीमती बन पाती है

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

बस हौसला रखना

लोग तो तुम्हारी गलतियां

निकालेंगे ही

ये समय ही ऐसा है ,

सही मानो में अपनों की

परख हो ही जाती है

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

अपनी कोशिशें जारी रखना

वो समय आएगा फिर ज़रूर

जब लोगों की नज़रें नव प्रभात

देख कर झुक ही जाती हैं

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

अपने हालतों से बस

एक सीख याद रखना

तू आज जैसा है , वैसा

ही रहना

वो इंसान ही क्या

जिसकी शख्सियत, किसी का वख्त

देख कर बदल जाती है

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

अपनी जीवन परीक्षा देख कर

कभी सोचना नहीं

के तू ही क्यों?

उस ऊपर वाले के यहाँ भी

औकात देख कर परेशानियां

बख्शी जाती हैं

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

रात कितनी भी घनी हो

सुबह हो ही जाती है

चाहे कितने भी बादल

घिरे हो

सूरज की किरणें बिखर

ही जाती हैं

तेरी याद

November 20, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैंने घर बदला और

वो गलियाँ भी

फिर भी तेरी याद

अपने संग

इस नए घर में ले आया

एक मौसम पार कर

मैं फिर खड़ी हूँ,

उसी मौसम की दस्तक पर,

वही गुनगुनाती ठंड

और हलकी धुंध,

जिसमे कभी तू मुझे

आधी रात मिलने आया

वो एक पल में मेरा

बेख़ौफ़ हो

कुछ भी कह जाना ,

और फिर तुझे अजनबी जान

कसमसा जाना ,

कितनी दफा मैंने खुद को

इसी कश्मकश में उलझा पाया

फिर यूं लगने लगा

जैसे तू मेरा ही तो था ,

कब से,

बस रूबरू आज हुआ ,

शायद कुछ अधूरा रह गया था

जो मुकम्मल आज हो पाया

तेरी खुशियों के दायरे

में मैंने कोई रुकावटें न की

मोहब्बत करती थी तुझसे

इसलिए तेरे सपने को कैद

करने का ख्याल भी

दिल में न आया

यूं ही चलता रहा ये

सिलसिला

एक नए मौसम की

आहट तक

जिसके बाद तू कभी

नज़र नहीं आया

मैंने घर बदला और

वो गलियाँ भी

फिर भी तेरी याद

अपने संग

इस नए घर में ले आया

आज फिर उसी मौसम

की दस्तक है

और मैं छत पर कुछ कपडें

धूप दिखाने बैठी हूँ

और तेरा कुछ सामान मैंने

अपने सामान में पाया

बहुत रोका मगर

फिर भी

बीतें कल को दोहरा

रही हूँ

कपड़ो की खुशबू तो निकल जाएगी

पर तेरी यादों की महक से मैंने

ये घर भी भरा पाया

बहुत मुश्किल है

दिल से जिया कुछ भी

भुला पाना

मैं ढीढ था इन यादों

सा ही

जो जगह बदल के भी

पुराना कुछ भी न भुला पाया

और तेरी याद अपने संग

इस नए घर में ले आया

मैंने घर बदला और

वो गलियाँ भी

फिर भी तेरी याद

अपने संग

इस नए घर में ले आया

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