नियति का खेल

November 19, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब हम बुरे समय से

गुजरते हैं

अपने ईश्वर को याद

करते हैं

सब जल्दी ठीक हो जाये

यही फरियाद करते हैं

भूल कर उस ईश्वर

का जीवन संघर्ष

हम सिर्फ अपनी बात

करते हैं

चलो आओ याद दिलाती

हूँ एक रोचक बात

जो तुम सब को भी है याद

जब उस ईश्वर ने

अवतार लिया धरती पे

तो वो भी दर्द से अछूता न था

कहने को तो राज कुंवर थे

पर जीवन बहुत कष्ट पूर्ण था

रघुकुल में जन्मे

कोई और नहीं वो

सबके राम दुलारे थे

जो सबकी आँख के तारे थे

उनको भी अपनों से ही

ईर्ष्या द्वेष सहना पड़ा

अपने ही घर में चल रही

राजनीती को

हंस कर स्वीकार करना पड़ा

जो वचन दिया था पिता ने

उसका मोल खुद श्री राम को

चुकाना पड़ा

पिता मूक बन देखते रहे

अपने वचनो के आगे वो कुछ कर पाए

क्योंकि रघुकुल रीत चली आई थी

प्राण जाये पर वचन न जाये

माता तो माता होती है

वो कुमाता कैसे हो सकती है

दे कर वनवास श्री राम को

वो चैन कैसे सो सकती है

वो राम जो उनकी भी

आँख के तारे थे

रघुकुल में जन्मे

कोई और नहीं वो

सबके राम दुलारे थे

सही कहते है सब कोई

माँ बाप के पाप पुण्य

सब उनकी संतान में

हैं बँट जाते

फिर क्यों श्री राम ने ही

चौदह वर्षों के वनवास काटे ??

ये अलग बात है के वे

ईश्वर थे

सब पल में बदल सकते थे

कर के नियति में फेर बदल

वो अपने ईश्वर होने का

प्रमाण दे सकते थे

पर वो जानते थे

विधाता होना आसान है

पर मनुष्य होना आसान नहीं

लिया था अवतार उन्होंने

इसीलिए

के हम उनके जीवन से कुछ

सीख सके

रघुकुल में जन्मे

कोई और नहीं वो

सबके राम दुलारे थे

सब जानते हैं के इन

चौदह वर्षो में

उन्हें क्या क्या न सहना पड़ा

अपने अवतार को निभाने के

लिए न जाने क्या क्या

कीमत चुकाना पड़ा

ऊँचे कूल में जन्मे

पर न राज सुख , न पत्नी सुख

और न संतान सुख

रहा वर्षो तक

उनकी किस्मत में

जो बस पैदा ही

हुए थे

एक राजा के महलो में

रघुकुल में जन्मे

कोई और नहीं वो

सबके राम दुलारे थे

अब इस से आगे क्या लिखू

जब वो ही बच न पाए

विधाता की बनाई नियति से

तो हमारी क्या औकात है

सिर्फ इतना याद रखो

अपना कर्म ही अपने साथ है

क्योंकि इन चौदह वर्षों में भी

अपने अच्छे कर्मो के कारन

उन्हें लक्ष्मण से भाई

और श्री हनुमान से

साथी मिले

जिनका चरित्र आज भी

हम लोगो के ह्रदय में

करता वास है

रघुकुल में जन्मे

कोई और नहीं वो

सबके राम दुलारे थे

पैगम्बर मोहम्मद हों , या हों जीसस

या हों श्री गुरु नानक

क्या इनका जीवन आसान रहा ?

फिर हम क्यों दुःख आने पे

व्याकुल हो जाते हैं

हम क्यों इनके जीवन से

कुछ सीख नहीं पाते हैं?

मैं भी जब व्याकुल होती हूँ

श्री राम चरितमानस का पाठ

करती हूँ

तुम भी पढ़ना उसको कभी

शायद तब तुम्हें अपना

जीवन आसान लगे

और तुम्हे अपने बुरे समय में

उस ईश्वर के अवतार से

कुछ ज्ञान मिले

मनुष्य जीवन न उनके

लिए आसान रहा

जिनकी पूजा हम करते हैं

फिर हम क्यों दुःख आने पर

यूं व्याकुल हो जाते हैं ??

भूल कर उस ईश्वर

का जीवन संघर्ष

हम सिर्फ अपनी बात

करते हैं………

पुनर्विचार

November 18, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

क्या कोई अपने जीवन से

किसी और के कारण

रूठ जाता है ?

के उसका नियंत्रण खुद अपने जीवन

से झूट जाता है?

हां जब रखते हो,

तुम उम्मीद किसी

और से,

अपने सपने को साकार करने की

तो वो अक्सर टूट जाता है

जब भरोसा करते हो किसी पे

उसे अपना जान कर,

खसक जाती है

पैरों तले ज़मीन भी

जब वो “अपना”

अपनी मतलबपरस्ती में

तुम्हे भूल जाता है

तुम आज मायूस हो,

उसकी वजह

कोई और नहीं तुम हो,

सौंपी थी डोर खुद अपने

जीवन की उसके हाथों में,

उसकी क्या गलती अगर

उसके हाथों से वो छूट जाता है

भावनाओ में बहो

पर खुद पर संयम रखो,

उदार बनो

पर कुछ बंधन रखो

लोगों को शामिल करो

अपने जीवन में

पर अपने जीवन पर

खुद नियंत्रण रखो

फिर देखो, दे के वास्ता कोई

प्यार का, दोस्ती का , फ़र्ज़ का

क्या तुम्हे लूट पाता है ??

खुद के बारे में सोचना

कोई पाप नहीं

जीवन मिला है एक

उसका ये अंत नहीं

करो प्रयास फिर से

एक बार गिरे तो क्या हुआ?

अपने जीवन पर

पुनर्विचार करो

ले कर सबक पिछली गलती से

एक नए कल का आगाज़ करो,

हर जीवन का एक अभिप्राय है

उसे यूं व्यर्थ मत करो,

क्या पता इन्ही रास्तों पे

चल कर तुम्हारी मंज़िल लिखी हो?

जो तुम्हारे दर से सिर्फ

कुछ दूर खड़ी हो

और तू ख़्वाह म ख़्वाह ही

किसी और के कारण

अपने जीवन से

रूठ जाता है…..

मैं समंदर हूँ

November 16, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं समंदर हूँ

ऊपर से हाहाकार

पर भीतर अपनी मौज़ों

में मस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

दूर से देखोगे तो मुझमें

उतर चढ़ाव पाओगे

पर अंदर से मुझे

शांत पाओगे

मैं निरंतर बहते रहने

में व्यस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

ऐसा कुछ नहीं जो

मैंने भीतर छुपा रखा हो

जो मुझमे समाया

उसे डूबा रखा हो

हर बुराई बाहर निकाल

देने में अभ्यस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

हूँ विशाल इतना के

एक दुनिया है मेरे अंदर

जो आया इसमें , उसका

स्वागत है बाहें खोल कर

अपना चरित्र बनाये

रखने में मदमस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

लोगों के लिए खारा हूँ

पर तुम बने रहो उसके

लिए सब हारा हूँ

बदले में तुमने जो

दिया उस से अब मैं

त्रस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

ऊपर से हाहाकार

पर भीतर अपनी मौज़ों

में मस्त हूँ

मैं समंदर हूँ

बदला हुआ मैं

November 15, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब भी अपने भीतर झांकता हूँ

खुद को पहचान नहीं पाता हूँ

ये मुझ में नया नया सा क्या है ?

जो मैं कल था , आज वो बिलकुल नहीं

मेरा वख्त बदल गया , या बदला

अपनों ने ही

मेरा बीता कल मुझे अब पहचानता, क्या है ?

मन में हैं ढेरो सवाल

शायद जिनके नहीं मिलेंगे अब जवाब

फिर भी मुझमें एक इंतज़ार सा क्या है ?

राहतें हैं मुझसे मिलों परे

जिस तक पहुंचने के रास्तें भी ओझल हुए

मेरी मंज़िलों का नक्शा किसी पर क्या है ?

ज़िन्दगी बहुत लम्बी गुज़री अब तक

दिल निकाल के रख दिया कही पर

अब देखते हैं आगे और बचा क्या है?

बहुत कुछ दिया उस रब ने

पर एक लाज़मी सी इल्तज़ा पूरी न हुई

आज भी हाथ उसी दुआ में उठता क्या है ?

मेरे शहर में लोग ज़्यादा हैं पर अपने बहुत कम

फिर भी मैं निकला हूँ तसल्ली करने

के अब भी कोई उनमें से मुझे पुकारता, क्या है?

सब कुछ खाक हो गया इस शहर में जल कर,

उनकी नादनियों से

और वो कहते हैं ये ज़हरीला धुँआ सा क्या है ?

जब कभी पुराने गीतों को सुनता हूँ

बीती यादों की खुशबू से महक उठता हूँ

आज भी मन वहीं अटका सा क्या है?

आइना देखा तो ये ख्याल आया

इन सफ़ेद बालों को मैंने तजुर्बे से है पाया

जो मेरे लिए किसी मैडल से कम क्या है ?

जो चल पड़े थे सुनहरी राहों की ओर

उनकी नज़रें आज मुझको ढूंढती हैं

उन्हें अब पता चला के उन्होंने खोया, क्या है ?

मैं बदला हूँ पर इतना भी नहीं

मेरा ज़मीर आज भी मुझमे ज़िंदा है कही

मेरे बीते किरदार का मुझसे आज भी वास्ता, क्या है ?

कुछ दिल की सुनी जाये

November 13, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो रस्मों रिवाज़ों को लांघ कर

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

एक लिस्ट बनाते हैं

अधूरी कुछ आशाओं की

उस लिस्ट की हर ख्वाहिश

एक एक कर पूरी की जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

कोई क्या सोचेगा

कोई क्या कहेगा

इन बंदिशों से परे हो के

थोड़ी सांसें आज़ाद हवा

में ली जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

बहुत रोका मैंने बहते मन की

रफ्तारों को

अब बहाव की ही दिशा में

अपनी नाँव खींची जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

मैं जानती हूँ सबके जीवन में

कुछ अधूरा रह गया होगा

कभी ज़रूरत तो कभी प्यार की

खातिर अपनी इच्छा

की अवहेलना न की जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

क्या पता किसी से

एक बार मिलना रह गया हो

किसी से कुछ कहना रह गया हो

मुद्दतों तरसा किये जिस मौके

की तलाश में

उस इंतज़ार की मोहलत कुछ

कम की जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

दिया है जीवन एक

ही उस खुदा ने

कही आखिरी सांस

पर कोई इच्छा दिल में

ही न दबी रह जाये

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

चलो रस्मों रिवाज़ों को लांघ कर

कुछ दिल की सुनी जाये

कुछ मन की करी जाये

मनमर्ज़ियाँ

November 11, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

चलो थोड़ी मनमर्ज़ियाँ करते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
यूँ तो ज़रूरतें रास्ता रोके रखेंगी हमेशा
पर उन ज़रूरतों को पीछे छोड़
थोड़ा चादर के बाहर पैर फैलाते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
ये जो शर्मों हया का बंधन
बेड़ियाँ बन रोक लेता है
मेरी परवाज़ों को
चलो उसे सागर में कही डूबा आते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
कुछ मुझको तुमसे कहना है ज़रूर
कुछ तुमसे दिल थामे सुनना है ज़रूर
खुल्लमखुल्ला तुम्हे बाँहों में भर
अपनी धड़कने सुनाते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
लम्हा लम्हा कीमती है इस पल में
कल न जाने क्या हो मेरे कल में
अभी इस पल को और भी खुशनसीब
बनाते हैं
तारों की चादर ओढ़ कुछ गुस्ताखियाँ
फरमाते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
ये समंदर की लहरें , ये चाँद, ये नज़ारें
इन्हे अपनी यादों में बसा लाते हैं
थोड़ा बेधड़क हो जी आते हैं
पंख लगा कही उड़ आते हैं
चलो थोड़ी मनमर्ज़ियाँ करते हैं …

गाडी के दो पहिए

November 10, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं स्त्री हूँ , और सबका

सम्मान रखना जानती हूँ

कहना तो नहीं चाहती

पर फिर भी कहना चाहती हूँ

किसी को ठेस लगे इस कविता से

तो पहले ही माफ़ी चाहती हूँ

सवाल पूछा है और आपसे

जवाब चाहती हूँ

क्या कोई पुरुष, पुरुष होने का सही

अर्थ समझ पाया है

या वो शारीरिक क्षमता को ही

अपनी पुरुषता समझता आया है??

हमेशा क्यों स्त्रियों से ही

चुप रहने को कहा जाता है

जब कोई पुरुष अपनी सीमा लाँघ

किसी स्त्री पर हाथ उठता है

कोई कमी मुझ में होगी

यही सोच वो सब सेह जाती है

ये बंधन है सात जन्मो का

ये सोच वो रिश्ता निभा जाती है

उनके कर्त्वयों का जो

एक रात अपने पत्नी पुत्र को

छोड़ सत्य की खोज में निकल जाता है

हो पुरुष तो पुरषोत्तम बन के दिखाओ

किसी स्त्री का मान सम्मान

न यूं ठुकराओ

ये देह दिया उस ईश्वर ने

इसके दम पर न इठलाओ

वो औरत है कमज़ोर नहीं

प्रेम विवश वो सब सेह जाती है

तुम्हारे लाख तिरस्कार सेह कर भी

वो तुम्हारे दरवाज़े तक ही सिमित रह जाती है

ये सहना और चुप रहना सदियों से चला आया है

क्योंकि उन्हें अर्थी पर ही तुम्हारा घर छोड़ना

सिखाया जाता है

जब उस ईश्वर ने हम दोनों को बनाया

हमे एक दूसरे का पूरक बनाया

जो मुझमे कम है तुमको दिया

जो तुम में कम है मुझमे दिया

ताकि हम दोनों सामानांतर चल पाए

और एक दूसरे के जीवन साथ बन पाए

न तुम मेरे बिन पुरे ,मैं भी तुम बिन अधूरी हूँ

जितने तुम मुझको ज़रूरी, उतनी ही तुमको ज़रूरी हूँ

इस बात को हम दोनों क्यों नहीं समझ पाते हैं?

गाडी के दो पहिए क्यों संग नहीं चल पाते हैं?

तुम्हे याद न हो तो बता दूँ

भगवान शंकर को यूं ही नहीं अर्धनारीश्वर कहा जाता है

सब एक जैसे नहीं होते, कुछ विरले भी होते हैं

जो स्त्री के मान सम्मान को, अपना मान समझते हैं

जो एक स्त्री में माँ बहन पत्नी और बेटी का रूप देखते हैं

और उसके स्त्री होने का आदर करते हैं

उसके सुख दुःख को समझते हैं

कितना अच्छा होता जो सब सोचते

इनके जैसे

बंद हो जाते कोर्ट कचेहरी

और मुकदद्मों के झमेले

जहा कोई इंसान पहुंच जाये तो बस चक्कर लगाता रह जाता है

मैं ये नहीं कहती सब पुरषों की ही गलती है

कुछ महिलाओं ने भी आफत मची रखी है

जो अपने स्त्री होने का पुरज़ोर फायदा उठाती हैं

जहाँ हो सुख शांति वहां भी आग लगा जाती हैं

अपने पक्ष में बने कानून का उल्टा फायदा उठाती है

ऐसी स्त्रियों के कारन उस स्त्री का नुकसान हो जाता है

जो सच में कष्ट उठाती है और

अपने साथ हुए अत्याचार और प्रताड़ना को सिद्ध नहीं कर पाती है

नारी तुम सबला हो ,

शांति ,समृद्धि और ममता का प्रतीक हो

कृपया कर “बवाल” मत बनो

अपने स्त्री होने का मान बनाये रखो

उसे तिरस्कृत मत करो

तुम्हारी विमूढ़ता से किसी का घर सम्मान बर्बाद हो जाता है

मैं स्त्री हूँ , और सबका

सम्मान रखना जानती हूँ

किसी को ठेस लगी हो इस कविता से

तो माफ़ी चाहती हूँ

वो पुराना इश्क़

November 9, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो इश्क अब कहाँ मिलता है

जो पहले हुआ करता था

कोई मिले न मिले

उससे रूह का रिश्ता

हुआ करता था

आज तो एक दँजाहीसी सी है,

जब तक तू मेरी तब तक मैं तेरा

शर्तों पे चलने की रिवायत

सी है ,

मौसम भी करवट लेने से पहले

कुछ इशारा देता है

पर वो यूं बदला जैसे वो कभी

हमारा न हुआ करता था

मोहब्बत में नफरत की

मिलावट कहा होती है

जो एक बार हो जाये तो

आखिरी सांसो तक अदा होती है

मुझे बेवफा करार कर बखूबी

पीछा छुड़ाया उसने

उस से पहले मेरे दामन में

कोई दाग न हुआ करता था

लोग इश्क़ में अंधे हो जाते हैं

बिना सोचे समझे

इस आग में कूद जाते हैं

दिमाग जो लगाते तो

तुमसे इश्क़ कहाँ निभा पाते

पर वो बेचारा तो तुम्हारी

गिरफ्फत में हुआ करता था

बहुत प्यार लुटाया उसने

जब तक हम उसकी नज़र

में थे

नज़र बदलते ही इश्क़ का

नया रंग सामने आया

जब उसने सारे एहसासों का मोल

कागज़ से लगाया

जब अपनाया था उसको हमने,

वो गुमनाम हुआ करता था

कौन कहता है इश्क़ और दोस्ती में

शुक्रिया और माफ़ी की जगह नहीं होती

रिश्ता बनाये रखने को ये

तकल्लुफ़ भी ज़रूरी है

चोट छोटी हो या बड़ी वख्त पर

मरहम ज़रूरी है

पर वो जब भी मिला उसको कोई

पछतावा न हुआ करता था

मिला था जो प्यार तुमसे

उसे आज भी ढूंढता हूँ

जिस मोड़ पर तुम मिले थे

वही आज भी खड़ा हूँ

हां बस आज तुम्हारा इंतज़ार

नहीं मुझको

मेरी राहें तुमसे अलग हैं

ये समझ चूका हूँ

दूरियां अब दिलो में हैं

जो की कभी दो शहरों का फासला ,

फासला न हुआ करता था

अगर मेरी जगह तुम होते

तो कब के बिखर गए होते

मगर मैं आज भी

तुम्हारी खैरियत रखता हूँ

तुमसे शिकायतें करता हूँ

तुमसे आज भी उस बात पे लड़ता हूँ

हमारा एक दूसरे के बिना गुज़ारा

भी कहाँ हुआ करता था

किराये का मकान

November 7, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

बात उन दिनों की है

जब बचपन में घरोंदा बनाते थे

उसे खूब प्यार से सजाते थे

कही ढेर न हो जाये

आंधी और तूफानों में

उसके आगे पक्की दीवार

बनाते थे

वख्त गुज़रा पर खेल वही

अब भी ज़ारी है

बचपन में बनाया घरोंदा

आज भी ज़ेहन पे हावी है

घर से निकला हूँ

कुछ कमाने के लिए

थोड़ा जमा कर कुछ ईंटें

उस बचपन के घरोंदे

में सजाने के लिए

यूं बसर होती जा रही है ज़िन्दगी

अपने घरोंदे की फ़िराक में

के उम्र गुज़ार दी हमने

इस किराये के मकान में

अब तो ये अपना अपना

सा लगता है

पर लोग ये कहते हैं

चाहे जितना भी सजा लो

किराये के मकान को

वो पराया ही रहता है

ज़रा कोई बताये उनको

की पराया सही पर

मेरे हर गुज़रे वख्त का

साक्षी है वो

भुलाये से भी न भूले

ऐसी बहुत सी यादें

समेटें है जो

बहुत कुछ पाया और गवाया

मैंने इस किराये के मकान में

इसने ही दिया सहारा जब

मैं निकला था अपने घर की

फ़िराक में

मैं जानता हूँ के एक दिन

ऐसा भी आएगा

जब मेरा अपने घरोंदे

का सपना सच हो जायेगा

और मेरा ये किराये का

मकान फिर किसी और का

हो जायेगा

मैं जब कुछ भी नहीं था

तब भी तू मेरे साथ था

आज जब मैं कुछ हो गया

तो तेरा मुझसे रिश्ता न भुला

पाउँगा

तुझे सजाया था पूरे

शानो शौक़त से

तू किसी का भी रहे

पर तुझसे अपनापन

न मिटा पाउँगा

मैं देखने आया करूंगा तेरा

हाल फिर भी

गुज़रा करूंगा तेरी गलियों से

रखने को तेरा दिल भी

मैं एहसान फरामोश नहीं

जो तेरी पनाह भुला पाउँगा

अपने अच्छे बुरे दिन को याद

करते

हमेशा तुझे गुनगुनाऊँगा

उस बचपन के घरोंदे की हसरत

को साकार करने में

तेरी अहमियत सबको न

समझा पाउँगा

रुक्मणि की व्यथा

October 29, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

न मीरा ही कहलाई

न राधा सी तुझको भायी

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

न रहती कोई कसक

मन में

जो मैं सोचती सिर्फ

अपनी भलाई

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

सहने को और भी

गम हैं

पर कोई न लेना पीर

परायी

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

न कोई खबर न कोई

ठोर ठिकाना

बहुत देखी तेरी

छुपन छुपाई

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

लोग लेते तुम्हारा नाम

राधा के साथ

मीरा को जानते हैं

तुम्हारा भक्त और

दास

किसी को रुकमणी

की मनोस्थिति नज़र न आई

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

तेरी हो के भी तेरी

नहीं

सिर्फ अर्धांगिनी हूँ

प्रेमिका नहीं

कभी जो सुन लेते

तुम मेरी दुहाई

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

सब तूने रचा सब

तेरी ही लीला है

फिर किस से कहूँ

तेरी चतुराई

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

न मीरा ही कहलाई

न राधा सी तुझको भायी

श्याम तेरी बन के

मैं बड़ा पछताई

देखो फिर आई दीपावली

October 23, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

देखो फिर आई दीपावली, देखो फिर आई दीपावली

अन्धकार पर प्रकाश पर्व की दीपावली

नयी उमीदों नयी खुशियों की दीपावली

हमारी संस्कृति और धरोहर की पहचान दीपावली

जिसे बना दिया हमने “दिवाली”

जो कभी थी दीपों की आवली

जब श्री राम पधारे अयोघ्या नगरी

लंका पर विजय पाने के बाद

उनके मार्ग में अँधेरा न हो

क्योंकि वो थी अमावस्या की रात

स्वागत किया अयोध्या वासियों ने

उनका सैकड़ों दीप जलाने के साथ

लोगों के हर्ष की सीमा न थी

चारों ओर खुशियां ही खुशियां थी

क्योंकि कोई लौट आया था

चौदह वर्षों के वनवास के बाद

इसलिए ऐसी कहते हैं दीपावली

जिसे बना दिया हमने दिवाली

जो कभी थी दीपों की आवली

अब न हम दीप जलाते

खुशियों के

अब तो हम लगाते हैं

झालरों की कतार

दीवारों को ऐसे सजाते हैं

जैसे हो जुगनुओं की बारात

उस सजावट और बिजली के बिल में

निकल जाता है हमारा “दिवाला” हर बार

शायद यहीं सोच हम कहते दिवाली

जो कभी थी दीपों की आवली

तो आओ मनाये एक ऐसी दीपावली

न निकले दीवाला जहाँ किसी का

न हो अँधेरा किसी घर में इस बार

जो ले आये किसी कुम्हार के घर

फिर वहीँ पुरानी दीपावली की बहार

उसका सुना द्वार भी चमके

दीयों की रौशनी से इस बार

उसके घर भी ले आये दीपावली

भूलकर चीन की झालरों की कतार

चलो आओ मनाये ऐसी दीपावली

जो हो दीपों की आवली

चलो पुनर्जीवित करे उसी

संस्कृति और धरोहर को

जो थी हमारी सभ्यता

की पहचान

जिसे ढाँक दिया था हमने

धन कुबेर पाने की इच्छा के साथ

और भूल गए थे हम रीति रिवाज़ सब

इस नयी चमक दमक के साथ

चलो घर के हर कोने को चमकाए

पर सिर्फ दीपों की आवली के साथ

जहां हर तरफ हो दिये ही दिये इस बार

अगर हो सके तो

कुछ फ़िज़ूल खर्ची रोक कर

थोड़ा निकलते हैं अपने घर की गलियों में

जहां तरस रहा हो कोई बच्चा

मानाने को ये त्यौहार

उसके चहेरे पे भी खुशियां लाये

दे कर मिठाई और उपहार

चार दीप उस के घर जलाये

तब लगेगा ये त्योहार

वरना सब दिखावा है बेकार

सच पूछों तो यही अर्थ है त्योहारों का

जो ले आये किसी उदास चेहरे पर बहार

फिर देखना हो जाएगी

तुम्हारी दीपावली की खुशियां

दो गुनी मेरे यार

गर किया तुमने इस पर विचार

तो हर तरफ होंगे खुशियों के दीपक इस बार

और हर कोई कहेगा

देखो फिर आई दीपावली, देखो फिर आई दीपावली

अन्धकार पर प्रकाश पर्व की दीपावली

नयी उमीदों नयी खुशियों की दीपावली

हमारी संस्कृति और धरोहर की पहचान दीपावली

मैंने तो ये सोच लिया है

सदा ऐसे ही दीपावली मनाऊंगी

अपने घर को हर बार दीपों से ही सजाऊंगी

खूब खुशियां बाटूंगी और आशीर्वाद कमाऊँगी

ऐसी होगी मेरी दीपावली इस बार

ऐसी होगी हम सब की दीपावली इस बार

सिर्फ तुम्हारी

October 15, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब तुम आँखों से आस बन के बहते हो

उस वख्त तम्हारी और हो जाती हूँ मैं

लड़खड़ाती गिरती और संभलती हुई

सिर्फ तुम्हारी धुन में नज़र आती हूँ मैं

लोगो की नज़रो में अपनी बेफिक्री में मशगूल सी

और भीतर तुम में मसरूफ खूद को पाती हूँ मैं

वो दूरियां जो रिश्तो को नाकामयाब कर देती हैं

उन दूरियों का एहसान मुझ पे, जो खुद को तुम्हारे और करीब पाती हूँ मैं

सारे रस्मों रिवाज़ो को लांघ कर बंधन जो तुमसे जुड़ा

अब उसी को अपना ज़मीनो आसमाँ मानती हूँ

हुआ है ना होगा अब किसी से इस कदर इश्क हमसे पिया

अब ये गुनाह हो या रहमत खुदा की, इसे अपना गुरूर जानती हूँ मैं

मुझे अपने साथ ले चलो

October 13, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

इत्र बन कर मेहकती रहूंगी तुम्हारे बदन की खुशबू के साथ

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

रुमाल बन कर, तुम्हारे माथे को चूम लूंगी ,जब करनी हो बात

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

घड़ी बन कर, लिपटी रहूंगी तुम्हारी धड़कनों के साथ

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

फ़ोन समझ कर, मुझे थामे रखना अपने हाथों के साथ

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

चादर बन कर, ओढ़ लेना मुझे किसी ठंड की रात

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

पर्स में लगी फोटो बन कर , देखते रहना मुझे तुम सदा मुस्कराहट के साथ

तुम न आ सको तो मुझे अपने साथ ले चलो

यूँ ही सहेज लिया है, मैंने खुद को सूटकेस में,तुम्हारे सामान के साथ साथ

ज़िद्दी ज़िन्दगी

October 12, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़िन्दगी मुझ से बस अपनी ही मनवाती है

कभी मेरी सुनती नहीं बस अपनी ही सुनाती है…

कभी जो पूछू सवाल उस से,माँगा करू जवाब

उस से

बस वो धीरे से मुस्कुराती है

ज़िन्दगी मुझ से बस अपनी ही मनवाती है…

कई बार बतलाई अपनी ख्वाहिशे उसको ,

इल्तजा भी की कोई जो पूरी कर दो

वो मेरी अर्ज़ियाँ मुझको ही वापस भिजवाती है

ज़िन्दगी मुझ से बस अपनी ही मनवाती है …

मुझसे कहती है आज न सही, कल

पूरी कर दूंगी ख्वाहिशे तेरी,तू हौसला न छोड़

बस इसी कल की आरज़ू में, मुझे दो कदम

और अपनी ओर ले जाती है….

ज़िन्दगी मुझ से बस अपनी ही मनवाती है

कभी मेरी सुनती नहीं बस अपनी ही सुनाती है ……

मेरा स्वार्थ और उसका समर्पण

October 2, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैनें पूछा के फिर कब आओगे, उसने कहा मालूम नहीं

एक डर हमेशा रहता है , जब वो कहता है मालूम नहीं

चंद घडियॉ ही साथ जिए हम , उसके आगे मालूम नहीं

वो इस धरती का पहरेदार है, जिसे और कोई रिश्ता मालूम नहीं

उसके रग रग में बसा ये देश मेरा, और मेरा जीवन वो, ये उसे मालूम नहीं

है फ़र्ज़ अपना बखूबी याद उसे, पर धर्म अपना मालूम नहीं

उसका एक ही सपना है, इस मिट्टी पे न्यौछावर होने का

पर मेरे सपने कब टूटे ये उसे मालूम नहीं

उसने कहा न बॉधों मुझे इन रिश्तों में, मुझे कल का पता मालूम नहीं

मैं हँस कर उसको कहती हूँ,मेरा आज भी तुमसे और कल भी तुमसे इसके अलावा मुझे कुछ मालूम नहीं

वो कहता है तुम प्यार हो मेरा, पर जान मेरी ये धरती है

ये जन्म मिला इस धरती के लिये, ये वर्दी ही मेरी हसती है

कितनी शिकायतें कर लूँ उसकी,पर नाज़ मुझे है उस पे कितना ये किसे मालूम नहीं

फिर पछता के खुद से कहती हूँ , ये भी तो निस्वार्थ प्रेम है

जिसके आगे सब नत्मस्तक है , उसका समर्पण किसे मालूम नहीं

ये जरुरी तो नहीं

September 28, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

हर तरफ उजाला हो ये जरुरी तो नहीं

मुझे धीमी रोशनी भी अच्छी लगती है

यहाँ हर कोई एक आरज़ू ओढ़े बैठा है

पर सबकी जरुरी हो ये जरुरी तो नहीं

मुझे कमियां भी अच्छी लगती है

मंज़िलें चूनने में गलतियाँ ना हो

इतना समझदार होना जरुरी तो नहीं

मुझे बेवकूफ़ियाँ भी अच्छी लगती है

है उसके पास जो ये उसका (भगवान) करम है

हर कर्म का मिले सिला ये जरुरी तो नहीं

मुझे उसकी ये रज़ा भी अच्छी लगती है

मैं इंसान हूँ गलतियों से बना

पर उसकी कोई माफी न हो ये जरुरी तो नहीं

मुझे थोड़ी शरमदारी भी अच्छी लगती है

उमर गुजरने के साथ तजुर्बा तो मिला बहुत

पर अब कोई और तजुर्बा ना हो ये जरुरी तो नहीं

मुझे नादानियां अब भी अच्छी लगती है

मेरा परिचय, मेरी कलम

September 27, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी कलम , जिससे कुछ ऐसा लिखूँ

के शब्दों में छुपे एहसास को

कागज़ पे उतार पाऊँ

और मरने के बाद भी अपनी

कविता से पहचाना जाऊँ

मुझे शौक नहीं मशहूर होने का

बस इतनी कोशिश है के

वो लिखूं जो अपने चाहने वालों

को बेख़ौफ़ सुना पाऊँ

ये सच है के मेरे हालातों

ने मुझे कविता करना सीखा दिया

रहा तन्हा बहुत अब कलम

और कागज़ का साथ थमा दिया

जी चाहता है के लिखता रहूँ

बस लिखता रहूँ

जो कभी कह न सका किसी से

उसे दुनिया तक पहुँचा पाऊँ

मेरी आवाज़ अक्सर शोर में दब

जाया करती थी

पर जब से कागज़ पे बोलना शुरू किया

अब वो भी वाह वाह करते हैं

जिनका नाम शायद इन कविताओं

में न ले पाऊँ

शुक्रगुज़ार हूँ आप लोगों का

जिन्होंने इतना सराहा मुझे

वरना मेरी क्या हस्ती थी

जो लोगों के दिलों में

घर कर जाऊँ

बस यूँ ही निभाती रहना साथ

तू “मेरी कलम” के

मैं शब्द लिखूं और एहसास बन कर

लोगों को हमेशा याद आऊं

और मरने के बाद भी अपनी

कविता से पहचाना जाऊँ

एक शाम के इंतज़ार में

September 26, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

कोई शाम ऐसी भी तो हो

जब तुम लौट आओ घर को

और कोई बहाना बाकी न हो

मुदत्तों भागते रहे खुद से

जो चाहा तुमने न कहा खुद से

तुम्हारी हर फर्माइश पूरी कर लेने को

कोई शाम ऐसी भी तो हो

जब तुम लौट आओ घर को

और कोई बहाना बाकी न हो

मैं हर किवाड़ बंद कर लूँ

के कोई दरमियाँ आ न सके

बस ढलते सूरज की रौशनी में हम दोनों

कोई शाम ऐसी भी तो हो

जब तुम लौट आओ घर को

और कोई बहाना बाकी न हो

ढेरो शिकायतें शिकवे गिले

जो अब तक दिल में हैं दबे पड़े

उन्हें तुम्हारे सीने में छूप के कह लेने को

कोई शाम ऐसी भी तो हो

जब तुम लौट आओ घर को

और कोई बहाना बाकी न हो

हो हर सुबह शुरू तुमसे

और रात आँखों में कटे

जैसे लम्बे इंतज़ार की थकान बाकी न हो

कोई शाम ऐसी भी तो हो

जब तुम लौट आओ घर को

और कोई बहाना बाकी न हो

धन्यवाद्

September 25, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी रचना व मेरी मेरी शब्द

अब रहे नहीं सिर्फ मुझ तक

अब इन में बसा आपका प्यार

और आशीर्वाद

के मैं जो भी लिखती हूँ

आप बना देते हैं उसे खास

” पथिक ” की ” प्रकृति “

September 24, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी छाँव मे जो भी पथिक आया

थोडी देर ठहरा और सुस्ताया

मेरा मन पुलकित हुआ हर्षाया

मैं उसकी आवभगत में झूम झूम लहराया

मिला जो चैन उसको दो पल मेरी पनाहो में

उसे देख मैं खुद पर इठलाया

वो राहगीर है अपनी राह पे उसे कल निकल जाना

ये भूल के बंधन मेरा उस से गहराया

बढ़ चला जब अगले पहर वो अपनी मंज़िलो की ऒर

ना मुड़ के उसने देखा न आभार जतलाया

मैं तकता रहा उसकी बाट अक्सर

एक दिन मैंने खुद को समझाया

मैं तो पेड़ हूँ मेरी प्रकृति है छाँव देना

फिर भला मैं उस पथिक के बरताव से क्यों मुर्झाया

मैं तो स्थिर था स्थिर ही रहा सदा मेरा चरित्र

भला पेड़ भी कभी स्वार्थी हो पाया

ये सोच मैं फिर खिल उठा

और झूम झूम लहराया …

इश्क़ का विषपान

September 23, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

कितना भी कड़वा हो ये विष इसे पी कर

मैं श्री शंकर सी मलंग रहना चाहती हूँ

मैं बस तेरा ध्यान लगाए हुए

सिर्फ तेरी धुन में रहती हूँ

तू मुझ में बसा कस्तूरी की तरह

फिर भी तुझको ढूँढा करती हूँ

तू यहीं कही है मेरा पास

ऐसे जाने कितनी मृग तृष्णा पार करती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

ये सुलग़ता इश्क़ जब से तन पर लगाया है

कोई और श्रिंगार तुम बिन न मन को भाया है

इसकी भस्म को तन पर रमा के

तेरी खुशबू सी महक जाती हूँ

अब किसी और इत्र का क्या साथ करूँ

जब सिर्फ तेरी तिशनगी में खुद को डूबा पाती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

मुझे न चिंता तुम्हे भुलाने की

न किसी व्यसन की लत लगाने की

तेरा इश्क़ ही काफी है

अब इस पर कोई और नशा चढ़ता नहीं

अब रोज़ इसका दो कश लगाती हूँ

और तुम्हारी यादों से खुद को खींच

ज़िन्दगी की और बढ़ती जाती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

इश्क़ न आसान था उनके लिए

जिनकी भक्ति हम करते हैं

राधा-कृष्ण को ही देख लो

जिनकी उपासना सब करते हैं

दोनों अलग हो के भी साथ हैं

युगों युगांतर के लिए

सीता माँ की विरह वेदना

श्री राम को भी तो सताती होगी

जब “सती” हो गई माँ सती अग्नि में

तो श्री शिव को भी पीड़ा हुई होगी

जब ईश्वर ही न बच सके

विधि के विधान से

तो हमारी क्या हस्ती है

यहीं सोच मैं मंद मंद मुस्काती हूँ

जब से इश्क़ का विषपान किया

मैं पूर्ण खुद को पाती हूँ

कितना भी कड़वा हो ये विष इसे पी कर

मैं श्री शंकर सी मलंग रहना चाहती हूँ

मैं हूँ नीर

September 22, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं हूँ नीर, आज की समस्या गंभीर

मैं सुनाने को अपनी मनोवेदना

हूँ बहुत अधीर , मैं हूँ नीर

जब मैं निकली श्री शिव की जटाओं से ,

मैं थी धवल, मैं थी निश्चल

मुझे माना तुमने अति पवित्र

मैं खलखल बहती जा रही थी

तुम लोगों के पापों को धोती जा रही थी

पर तुमने मेरा सम्मान न बनाये रक्खा

और मुझे कर दिया अति अपवित्र

इस पीड़ा से मेरा ह्रदय गया है चीर

मैं हूँ नीर, आज की समस्या गंभीर

मैं सुनाने को अपनी मनोवेदना

हूँ बहुत अधीर , मैं हूँ नीर

तुमने वृक्ष काटे , जंगल काटे

जिनपे था मैं आश्रित

जब बादल उमड़ा करते थे

उन घने वृक्षों को देख कर

मैं हो जाता था अति हर्षित

अब न पेड़ बचाये तुमने

मैं भी सूखने को आया हूँ

क्या कहूँ मैं अपनी वेदना तुमसे

बेच डाला है तुमने अपना ज़मीर

मैं हूँ नीर, आज की समस्या गंभीर

मैं सुनाने को अपनी मनोवेदना

हूँ बहुत अधीर , मैं हूँ नीर

चारों ओर कंकरीट की इमारतें

न दिखती कही हरियाली है

सारे उपवन काट कर कहते हो

ग्लोबल वार्मिंग आई है

न होती है वर्षा अब उतनी

क्या करोगे उन्नति इतनी????

अब मैं विवश हो गया हूँ

अब मैं हाहाकार मचाऊंगा

और खुद अपनी जगह बनाने

महाप्रलय ले आऊंगा

तुमने अपनी हदें हैं लाँघी

अब मैं अपनी क्षमता तुम्हें दिखाऊंगा

तुम्हारी उन्नति और प्रगति को

अपने में समा ले जाऊंगा

सब तरफ होगा नीर ही नीर

जब न होगा मानव इस धरती पर

न होगी कोई समस्या गंभीर

मैं हूँ नीर, आज की समस्या गंभीर

मैं सुनाने को अपनी मनोवेदना

हूँ बहुत अधीर , मैं हूँ नीर

तुम अब भी न जागे

तो पछताओगे

अपने वंश को आगे क्या दे जाओगे

यही दूषित वायू और प्रदूषण

की समस्या गंभीर ???

मैं हूँ नीर, आज की समस्या गंभीर

मैं सुनाने को अपनी मनोवेदना

हूँ बहुत अधीर , मैं हूँ नीर

मैं हूँ नीर

मैं हूँ नीर ….

इस बार की नवरात्री

September 21, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस बार घट स्थापना वो ही करे
जिसने कोई बेटी रुलायी न हो
वरना बंद करो ये ढोंग
नव दिन देवी पूजने का
जब तुमको किसी बेटी की चिंता सतायी न हो

सम्मान,प्रतिष्ठा और वंश के दिखावे में
जब तुम बेटी की हत्या करते हो
अपने गंदे हाथों से तुम ,उसकी चुनर खींच लेते हो
इस बार माँ पर चुनर तब ओढ़ना
जब तुमने किसी की लज़्ज़ा उतारी न हो
और कोई बेटी कोख में मारी न हो
वरना बंद करो ये ढोंग
नव दिन देवी पूजने का
जब तुमको किसी बेटी की चिंता सतायी न हो

जब किसी बाबुल से उसकी बेटी दान में लाते हो
चार दिन तक उसे गृह लक्ष्मी मान आडम्बर दिखलाते हो
फिर उसी लक्ष्मी पे अत्याचार बरसाते हो
और चंद पैसों की खातिर उसे अग्नि को सौंप आते हो
इस बार हवन पूजन तब करना
जब कोई बेटी तुमने जलायी न हो
वरना बंद करो ये ढोंग
नव दिन देवी पूजने का
जब तुमको किसी बेटी की चिंता सतायी न हो

कितनी सेवा उपासना कर लो तुम “माँ “की
वो तुमको देख पछताती होगी
तुम्हारी आराधना क्या स्वीकार करेगी
वो तुम्हारे कर्मों पर नीर बहाती होगी
वो भी तो एक “बेटी” है
क्या तुमको तनिक भी लज़्ज़ा न आती होगी
इस बार माँ के दरवार में तब जाना
जब तुमको “उस बेटी” से नज़र मिलाते लज़्ज़ा आती न हो
वरना बंद करो ये ढोंग
नव दिन देवी पूजने का
जब तुमको किसी बेटी की चिंता सतायी न हो

इस बार घट स्थापना वो ही करे
जिसने कोई बेटी रुलायी न हो
जिसने कोई बेटी रुलायी न हो
वरना बंद करो ये ढोंग
वरना बंद करो ये ढोंग …

एक छोटी सी घटना

September 20, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब भी तुम्हें लगे की तुम्हारी परेशानियों का कोई अंत नहीं
मेरा जीवन भी क्या जीना है जिसमे किसी का संग नहीं

तो आओ सुनाऊँ तुमको एक छोटी सी घटना
जो नहीं है मेरी कल्पना

उसे सुन तुम अपने जीवन पर कर लेना पुनर्विचार

एक दिन मैं मायूस सी चली जा रही थी
खाली सड़को पर अपनी नाकामयाबियों का बोझ उठाये हुए
इतने में एक बच्चा मिला मुझे (तक़रीबन पाँच साल का)
अपनी पीठ पर नींबू का थैला ढोये हुए
उसने कहा दीदी नींबू ले लो दस रूपये में चार
और चाहे बना लो सौ रूपये में पूरे का आचार
मैं नींबू नहीं खाती थी,मुझे एसिडिटी हो जाती थी
पर कर के उस बच्चे का ख्याल
मैंने बोला , मैं नींबू तो नहीं लूंगी
पर चलो तुमको कुछ खिला देती हूँ
यह सुन वो बच्चा बोला
नहीं दीदी मुझे नहीं चाहिए ये उपकार
वो घर से निकला है मेहनत कर
कमाने पैसे चार
अपनी दो साल की बहन को छोड़ आया हूँ
फुट ओवर ब्रिज के उस पार
जो कर रही होगी मेरा इंतज़ार
के भैया लाएगा शाम को पराठे संग आचार
यह सुन मैं हो गई अवाक्
मैंने पूछा तुम्हारी माँ कहा है
उसने कहा सब छोड़ के चले गए
अब मैं यही फुटपाथ पर रहता हूँ
और दिन में सामान बेचता हूँ
कमाने को पैसे चार
मैं स्तब्ध खड़ी थी,
क्या कहूँ कुछ समझ नहीं पाई
मैंने उस से नींबू ले लिए बनाने को आचार
उसने उन पैसों से पराठे खरीदे चार
उसके चेहरे पे वो मुस्कान देख कर
मेरा हृदय कर रहा था चीत्कार
वो खुद्दार तथा, और ज़िम्मेदार भी
इतनी छोटी से उम्र में
अपना बचपन छोड़ उसने
कमाना सीख लिया था
अपनी ज़िम्मेदारी का
निर्वाह करना सीख लिया था
वो बच्चा उतनी देर में मुझे
सीखा गया जीवन का सार
इतनी कठिन परिस्थितियाँ देख कर
भी उसने नहीं मानी थी हार
ये सोच मैंने किया अपने जीवन पर पुनर्विचार

बस यहीं पछतावा रहता है के
उस वख्त मैं उस बच्चे के लिए
उस से ज़्यादा कुछ कर नहीं पाई
पर यही दुआ रहती है के
हर बहन को मिले ऐसा भाई
और ऐसे भाई को सारी ख़ुदाई
मैं अब जब वह से गुज़रती हूँ
तो मुझे दिखता नहीं
यहीं आशा करती हूँ
के काश किसी काबिल ने उसका हाथ थाम कर
उसके जीवन का कर दिया हो उद्धार
यहाँ बहुत ऐसे भी हैं जिनकी कोई औलाद नहीं
और कितने ऐसे भी जिनकी किस्मत में माँ की गोद नहीं
मेरा भी एक सपना है , के मैं भी एक दिन किसी को अपनाकर
ले आउंगी अपने घर में बहार

जब भी तुम घिरे हो मुसीबत में मेरे यार
तब कर लेना इस कविता पर पुनर्विचार
कितनी भी कठिन परिस्थिति हो आसानी से कट जाएगी
और मेरी इस कविता को तुम पढ़ना चाहोगे बार बार

मैं हारूँगा नहीं

September 18, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

थक चूका हूँ , पर हारा नहीं हूँ

मैं निरंतर चलता रहूँगा

आगे बढ़ता रहूँगा

उदास हूँ ,मायूस हूँ

पर मुझे जितना भी आज़मा लो ,

मैं टूटूँगा नहीं ,

मैं निरंतर कोशिश करता रहूंगा,

पर अपनी तक़दीर को, तक़दीर के

हवाले सौंप , हाथ बाँध

बैठूंगा नहीं ,

मैं निरंतर कोशिश करता रहूंगा ,

अपनी तक़दीर को कोसूंगा नहीं

आगे बढ़ता रहूँगा।

मैं और उठूँगा,

जितना तुम मुझे गिराने की कोशिश करोगे,

मुझे शायद आज इस हाल में देख,

तुम अपनी पीठ ठोकोगे ,

पर मुझे जितना भी आज़मा लो,

मैं हारूँगा नहीं

मैं निरंतर कोशिश करता रहूंगा,

अपनी तक़दीर को कोसूंगा नहीं

आगे बढ़ता रहूँगा।

तुम उस पल से बचना

जब गूँजेगा मेरा नाम हवाओं में ,

हर तरफ चर्चा होगा मेरा

शोहरत की किताबों में ,

और मैं शुक्रिया कर रहा हूँगा,

उन “अपनों” का जिन्होंने मुझे

बेसहारा कर दिया था कभी

मेरी तक़दीर के हवाले मुझे छोड़ दिया था कभी,

फिर समझ पाउँगा उन सब का यूँ चले जाना

समझ पाउँगा

के क्यों निरंतर चलता रहा मैं

बिना रुके, बिना झुके

शायद आज इस मक़ाम पे आने के लिए

जिस चोट से मैं पत्थर बना

उसे तराश कर हीरा बनाने के लिए

मैं निरंतर चलता रहूँगा

आगे बढ़ता रहूँगा

आगे बढ़ता रहूँगा…..

मेरे मित्र

September 17, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

जब भी मन विचलित होता है
किसी अप्रिय घटना से
घंटो सुनते रहते हैं वो मेरी बकबक
चाहे रात हो या दिन
मेरे फिक्र में रहते हैं वे
सदा उद्विग्न
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र
मैं उनसे अपने मन की कहता हूँ
वो मुझे कभी तोलते नहीं
मेरे राज़ किसी और से बोलते नहीं
हैं समझ में मुझसे परिपक़्व बहुत
पर उम्र मैं हैं वो मुझसे बहुत भिन्न
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

मैं कभी जो झुंझला जाओ उनपे
बेवजय यूँ ही
वो मन छोटा कर मुझसे मुँह मोड़ते नहीं
मैं उनको मना ही लाता हूँ
चाहे वो मुझसे कितना
भी हो खिन्न
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

हमेशा साथ होते हैं जब भी मैंने
पुकारा उन्हें
जैसे मेरी दुःख तक़लीफों को साँझा करने
भेजा हो ईश्वर ने
कोई अलादीन का जिन्न
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

हमारे विचारो में हैं मत भेद बहुत
फिर भी हृदय से हम नज़दीक बहुत
एक दूसरे की दोस्ती पे कभी न रहता
कोई प्रश्न चिन्ह
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

माता पिता ने दिया जीवन हमें
जिसका मैं सदा ऋणी रहूंगा
पर मित्रों के बिन जीवन की कल्पना
न कर सकूंगा
जन्म से जुड़ा रिश्ता तो सब पाते हैं
पर मेरे जीवन का वे
हिस्सा हैं अभिन्न
एक खुशबु सी बिखर जाती है
मेरे इर्द गिर्द
जब याद आते हैं मुझे मेरे मित्र

***************************
उद्विग्न :- बेचैन , व्याकुल

अभिन्न:- बहुत करीब या जिसे बांटा या अलग न किया जा सके

तुम्हें माफ़ किया मैंने

September 16, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने
बस इतना सुकून है
जैसा तुमने किया
वैसा नहीं किया मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

हाँ खुद से प्यार करती थी
मैं ज़रूर
पर जितना तुमसे किया
उस से ज़्यादा नहीं
तुम्हारी हर उलझनों को
अपना लिया था मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

तुम्हारी लाचारियाँ मज़बूरियाँ
सब स्वीकार थी मुझको
सिर्फ उस रिश्ते के खातिर
जिस पर अपना सब कुछ
वार दिया मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

तुमने जो वादे किये
उन्हें निभाने की झूठी
कोशिश भी नहीं की
हर बार सब्र का इम्तहाँ देकर
अपना प्यार साबित किया मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

वो सपने जो हमें
साथ थे पूरे करने
उन्हें आँसुओं में लपेट कर
गंगा में बहा दिया मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

जीवन में कभी जो
टकराये हम फिर से
सिर्फ इतना ही पूछूँगी
इन सब से क्या हासिल
किया तुमने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

मैंने अब इस छल को
अपना लिया है
जीवन में आगे बढ़ चली हूँ
खुद को संभाल लिया है
यूँ समझ लो तुम बिन जीना
सीख लिया है मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने
जाओ तुम्हें माफ़ किया मैंने

हिंदी हम तुझ से शर्मिंदा हैं

September 13, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

आज कल ओझल हो गयी है हिंदी एसे
महिलाओं के माथे से बिंदी जैसे

कभी जो थोड़ा बहुत कह सुन लेते थे लोग
अब उनकी शान में दाग हो हिंदी जैसे

लगा है चसका जब से लोगों अंगरेजियत अपनाने का
अपने संस्कारों को दे दी हो तिलांजलि जैसे

अब तो हाय बाय के पीछे हिंदी मुँह छिपाती है
मात्र भाषा हो के भी लज्जित हो रही हो जैसे

है गौरव हमें बहुत आज एक शक्तिशाली देश होने का
पर अपनी पहचान हिंदी को हमने भूला दिया हो जैसे

आज हिंदी दिवस पर हमें हिंदी याद आयी एसे
हमारे पूर्वजों को दे रहे हो श्रद्धांजलि जैसे

आज कल ओझल हो गयी है हिंदी एसे…

कई बार हुआ है प्यार मुझे

September 12, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

हाँ ये सच है, कई बार हुआ है प्यार मुझे

हर बार उसी शिद्दत से

हर बार टूटा और सम्भ्ला

उतनी ही दिक्कत से

हर बार नया पन लिये आया सावन

हर बार उमंगें नयी, उमीदें नयी

पर मेरा समर्पण वहीं

हर बार वही शिद्दत

हर बार वही दिक्कत

हाँ ये सच है, कई बार हुआ है प्यार मुझे

हर बार सकारात्मक रह बढ़ चला उसकी ओर

जिसको देख यूँ लगा

हाँ के अब शायद न टूटूँ

उस तरह जिस तरह कभी टूटा था

पर हर बार वही शिद्दत

हर बार वही दिक्कत

हाँ ये सच है, कई बार हुआ है प्यार मुझे

हर बार सोचा शायद मैंने ही कोई कमी की

हर बार दिल ने कहा “नहीं पगली”

उन्हें तेरी भावना का मोल नहीं

प्यार अँधा तो था पर अब स्वार्थी भी हो चला है

किसी को भावना नहीं दिखती

और किसी को शिद्दत से चाहने पे भी

मोहब्बत नहीं मिलती

भूल जा उसे जो तुझे छोड़ के बढ़ चला है

वरना यूँ ही पछताती रहेगी

खुद को बदल वरना मोहब्बत में आँसू बहाती रहेगी

पर हम तो कवि ठहरे,

तो कैसे हार मान लेते

फिर ढूंढते रहे किसी की एक नज़र को

हर बार उतनी ही शिद्दत से

हर बार उतनी ही शिद्दत से

प्रकृति मानव की

September 11, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मेरी छाँव मे जो भी पथिक आया
थोडी देर ठहरा और सुस्ताया

मेरा मन पुलकित हुआ हर्षाया
मैं उसकी आवभगत में झूम झूम लहराया

मिला जो चैन उसको दो पल मेरी पनाहो में
उसे देख मैं खुद पर इठलाया

वो राहगीर है अपनी राह पे उसे कल निकल जाना
ये भूल के बंधन मेरा उस से गहराया

बढ़ चला जब अगले पहर वो अपनी मंज़िलो की ऒर
ना मुड़ के उसने देखा न आभार जतलाया

मैं तकता रहा उसकी बाट अक्सर
एक दिन मैंने खुद को समझाया

मैं तो पेड़ हूँ मेरी प्रकृति है छाँव देना
फिर भला मैं उस पथिक के बरताव से क्यों मुर्झाया

मैं तो स्थिर था स्थिर ही रहा सदा मेरा चरित्र
भला पेड़ भी कभी स्वार्थी हो पाया

ये सोच मैं फिर खिल उठा
और झूम झूम लहराया …

नारी होना अच्छा है

September 10, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

नारी होना अच्छा है पर उतना आसान नहीं

मेरी ना मानो तो इतिहास गवाह है

किस किस ने दिया यहाँ बलिदान नहीं

जब लाज बचाने को द्रौपदी की

खुद मुरलीधर को आना पड़ा

सभा में बैठे दिग्गजों को

शर्म से शीश झुकाना पड़ा

किसने दिया था अधिकार उन्हें

अपनी ब्याहता को दांव लगाने का

खेल खेल में किसी स्त्री को यूँ नुमाइश बनाने का

था धर्मराज, तो कैसे अपना पति धर्म भूला बैठा

युधिष्ठिर इतना तो नादान नहीं

नारी होना अच्छा है पर उतना आसान नहीं

जब त्याग किया श्री राम ने जानकी का

एक धोबी के कहने पर

अग्नि परीक्षा दे कलंक मिटाया

ऊँगली उठते अस्तित्व पर

चौदह वर्षो का वनवास भी इतना कठिन न था

जब अपरहण किया रावण ने तो वो भी इतना निष्ठुर न था

उस पल जानकी पे क्या बीती

इसका किसी को पश्चाताप नहीं

नारी होना अच्छा है पर उतना आसान नहीं

ये सुब तो हुआ उस युग में

जब कलयुग का आगमन भी न था

स्त्री की दशा में अंतर न कलयुग में है

न सतयुग में था

आज तो फिर भी स्त्री हर क्षेत्र में

बराबरी की दावेदार है

फिर भी ऐसा क्यों लगता है

की अब भी कोई दीवार है

चाहे जितना भी पढ़ा लो

चाहे जितनी ऊंचाइयां पा लो

आज भी एक दुःशाशन हर

गली में वस्त्र हरण को तैयार है

आये दिन सुनते रहते हैं

किसी दुर्योधन दुःशाशन के बारे में

जिनसे बच पाना किसी “दामिनी” के लिए आसान नहीं

नारी होना अच्छा है पर उतना आसान नहीं

विकृत पागल प्रेमी द्वारा

मैंने क्षत विक्षत चेहरे देखे

है कसूर उनका बस इतना के वो इस रिश्ते को तैयार नहीं

संतावना तो हर कोई देता है पर कोई साथ देने तैयार नहीं

नारी होना अच्छा है पर उतना आसान नहीं

रोज़ सुबह मैं समाचारो में

ऐसी खबरें पाती हूँ

मैं बेटी हो कर भी इस जग में

बेटी बचाओ के नारे लगाती हूँ

यही प्रार्थना करती हूँ ईश्वर से

के कोई दिन ऐसा भी देखूँ

जब समाचारो में कोई दहेज़ उत्पीड़न, बलात्कार , अपरहण

का नामो निशान नहीं

जहाँ नारी होना अच्छा है और किसी वरदान से कम नहीं

और किसी वरदान से कम नहीं।।।

थोड़ा स्वार्थी होना चाहता हूँ मैं

September 9, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

कल्पनाओं में बहुत जी चूका मैं

अब इस पल में जीना चाहता हूँ मैं

हो असर जहाँ न कुछ पाने का न खोने का

उस दौर में जीना चाहता हूँ मैं

वो ख्वाब जो कभी पूरा हो न सका

उनसे नज़र चुराना चाहता हूँ मैं

तमाम उम्र देखी जिनकी राह हमने

उन रास्तों से वापस लौटना चाहता हूँ मैं

औरों की फिक्र में जी लिया बहुत

अब अपने अरमान पूरे करना चाहता हूँ मैं

गुज़रा वख्त तो वापस ला नहीं सकता

इसलिए अपने आज को सुधारना चाहता हूँ मैं

चिंताओं में पड़ के अपने आज को खोता रहा मैं

अब उन्मुक्त हो के जीना चाहता हूँ मैं

प्रेम को निस्वार्थ समझ कर, अपनी भावना लुटाता रहा मैं

अब थोड़ा स्वार्थी होना चाहता हूँ मैं

अपने जीवन में एक और दिन नहीं

बल्कि दिन में जीवन जोड़ना चाहता हूँ मैं

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