बचपन

August 10, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

फूलों ने जब साथ दिया,
मैं भी महकना सीख गया
चिड़ियों ने जब साथ दिया,
मैं भी चहकना सीख गया
चलना गिरना, गिरकर चलना,
लगा रहा यह जख्मो भर
पापा की जब उंगली थामी,
तब मैं भी चलना सीख गया
जीवन के कुछ अनुभव लेने
घर से बाहर निकला था
देख के उनकी मोहक सूरत
दिल से अपने फिसल गया
छोड़ दिया जिसके खातिर,
मैंने अपने जीवन को
वह मुझे छोड़कर बीच डगर में
घर को अपने निकल गया
मैं डूबा था जिसकी आंखों में
ख्वाबों में जिसके खोया था
वह दिल में मेरे बसती थी
जिसकी खातिर मै रोया था
जो कभी नहीं हारा
बिन कोशिश हरदम जीत गया
लाख कोशिश की मगर
वह अपनो से ही हार गया।

जेपी सिंह ‘अबोध’

माँ

August 10, 2020 in शेर-ओ-शायरी

आज मेरी मां के चेहरे पर मायूसी छाई है
फिर भी देख कर मुझे वह मुस्कुराई है
मेरी रोटी के खातिर जल जाते थे जो हाथ
पहली बार मां के उन हाथों मे कम्पन अाई है

ख़ामोशी

August 9, 2020 in शेर-ओ-शायरी

धीरे-धीरे वो हमसे अनजान हो गए
जो कभी खास थे आज आम हो गए
गुफ्तगू करने से जिनका जी नहीं भरता
आज उनकी खामोशी से हम बदनाम हो गए

पप्पू प्रधान

August 8, 2020 in अवधी

पप्पू परधानी मा खड़ा हयिन
जनता के गोडे मा पड़ा हयिन
जनता ताई वय लड़ा हयिन
जनता ताई वय खड़ा हयिन
जितय ताई वय हैरान हयिन
पूर्व परधान से परेशान हयिन
भावी परधान लिखाए लिहिन
गली मा पोस्टर चिपकाए दिहिन
हर देवी देवता का मनाय लिहिन
चुनाव के एक दिन पहिले
दारू मुर्गा बटवाय दिहिन
होईगा चुनाव जब रिज़ल्ट आवा
पप्पू परधानी जीत गए
जनता से जवन किए रहे वादा
वाका एक घूंट मा पी गए
अब जनता से हैरान होई गए
जनता से परेशान होई गए
पप्पू अब परधान होइय गए
पप्पू अब परधान होइय गए

अपना गांव

August 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

बहुत ढूंढा, बहुत कोशिश की, बहुत आवाज लगाई।
लेकिन वह वापस ना आया, वह बचपन था मेरे भाई।
गांव की गलियों में खेलना, कूदना, दौड़ना, भागना,
गलती छुपाने के लिए हर बात पर, मां की कसम खाना,
सब कुछ छूट गया, अपनों तक, बीते वक्त के उस दौर में
अब हम उलझ चुके है, दो वक्त की रोटी, रहने के ठौर में,
जिस गांव को छोड़ना, ना चाहता था कोई गांव का भाई,
रोटी के खातिर अब शहर में, करना पड़ रहा उसे कमाई।।

जिस हाथ से वो गाव में ,
मिट्टी की मूर्ति बनाता था
जाकर अब वह शहर में ,
डबलरोटी बनाता है
सपनों को अपने तोड़ कर
अपने घर को छोड़कर
खुद चुपके से रोकर वह,
अपनो को खूब हसाता है।

जेपी सिंह ‘ अबोध ‘

भाई- बंधु ( पत्र )

August 8, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

शीर्षक भार्इ- बन्धु

हे भ्रातृ लिखे हो जो छंद मुझे,
पढ़कर मैं बहुत प्रसन्न हुआ ।
उत्तर में लिखा सवैया हूं,
जैसा मन में उत्पन्न हुआ ।।
जो कुछ त्रुटियां होगी उसमें,
तुम ध्यान नहीं उस पर देना।
सुमति मार्ग को छोड़ कभी,
कुमति पर पांव नहीं देना ।।

सवैया
मुझ हीन मलीन अधीनन पर
इक दृष्टि दया की किये रहियों।
मैं हूं एक मूर्ख अबोध जन,
मम पावन हार बने रहियों।।
जब आए कबहु विपदा मुझ पर,
धरि धीरज बाह गहे रहियो।
भ्रातृ समान नहीं कोऊ जग में ,
एक कोख की लाज किए रहियो।।
धन दौलत बार ही बार मिले ,
पर भाई सहोदर मिले नहीं दूजा।
आपत्ति काल कोऊ नहीं देखत,
नारी भी त्याग करें घर दूजा।।
भाई ही भाई की जाने व्यथा,
जग में नहीं जानत है कोऊ दूजा।
सारी सृष्टि भरी है अबोधन से,
पर हम ‘अबोध’ सा नर नहीं दूजा।।

जेपी सिंह ‘ अबोध ‘

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