ग़ज़ल

August 14, 2016 in ग़ज़ल

काश! कोई तो रास्ता निकले.
मुश्किलों से मेरा गला निकले.

जान..छूटेगी.. उसके.. छूने से,
जान आये तो मेरी जां निकले.

लाख सदियों में तय नहीं होगा,
फ़ासले.. इतने दरमियां निकले.

कौन.. होता हूँ.. दोष दूँ उसको,
क्या पता मुझमें ख़ामियाँ निकले.

—डॉ.मुकेश कुमार (Raj Gorakhpuri)

राज गोरखपुरी

June 3, 2016 in Other

माँ के दिल में बसर नहीं छोड़ा.
बाकी कोई कसार नहीं छोड़ा.
घर की मजबूरियों ने भेजा है,
हमनें यूँ ही शहर नहीं छोड़ा.

—–डॉ.मुकेश कुमार (राज गोरखपुरी)
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राज गोरखपुरी

June 3, 2016 in शेर-ओ-शायरी

फिर वही रात की उदासी है.
ज़िस्म बेकल है रूह प्यासी है.
मारती है न जीने देती है,
याद तेरी बड़ी सियासी है.

—–डॉ.मुकेश कुमार (राज गोरखपुरी)

जब चाँद भीगता था

May 2, 2016 in गीत

“जब चाँद भीगता था छत पर”

बहका सावन-महकी रुत थी,
ये हवा भी मीठी चलती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

वो बाल खुले बिखरे-बिखरे,
होठों पे’ कभी आ रुकते थे.
तेरे गालों से होकर के,
बूंदों के मोती गिरते थे.
आकर मेरी खिड़की पर तब,
चिड़िया बनके तुम उड़ती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

कमरे की तन्हाई मेरे,
इक पल में गुल हो जाती थी.
जब मीठे -हलके क़दमों से,
यूँ सीढ़ी से तुम आती थी.
कानों की वो छोटी बाली,
तब सच में तुम पर फबती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

पास मे’रे जब रहती थी तो,
ये दिल भी तेज धड़कता था.
दुनिया ज़न्नत सी लगती थी,
और सब कुछ अच्छा लगता था.
कमरा खुशबू से भर जाता,
जब शरमा के तुम हँसती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

अब दूर हुये हो जबसे तुम,
मौसम भी हमसे रूठ गया.
ख़्वाबों में आने – जाने का,
अब वो’ सिलसिला भी टूट गया.
ये पल है’ कि नाराज़ हो तुम,
तब अपनी कितनी बनती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

जब चाँद भीगता था छत पर,
तब सावन कितना अच्छा था.
अब सावन भी तो खार लगे,
तब आँसू मीठा लगता था.
मैं नीचे छत से नहीं आता,
माँ कितना गुस्सा करती थी.
जब चाँद भीगता था छत पर,
तब बारिश अच्छी लगती थी.

–डॉ.मुकेश कुमार (राज गोरखपुरी)

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