तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है

April 3, 2017 in ग़ज़ल

तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है,

और तू मेरे गांव को गँवार कहता है।

 

ऐ शहर मुझे तेरी औक़ात पता है,

तू बच्ची को भी हुस्न ए बहार कहता है।

 

थक गया हर शख़्स काम करते करते,

तू इसे ही अमीरी का बाज़ार कहता है।

 

गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,

तेरी सारी फ़ुर्सत तेरा इतवार कहता है।

 

मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं,

तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है।

 

वो मिलने आते थे कलेजा साथ लाते थे,

तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है।

 

बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,

अंधी भ्रस्ट दलीलों को दरबार कहता है।

अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं,

तू इस नये दौर को संस्कार कहता है।

हरेन्द्र सिंह कुशवाह

एहसास

किसी ने ग़म दिया मुझको किसी ने घोंप दी खंजर

November 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

किसी ने ग़म दिया मुझको किसी ने घोंप दी खंजर ,

नहीं फिर प्रेम उग पाया रही दिल की ज़मी बंजर ।

मैं बर्षों से वही बैठा जहाँ तुमने कहा रुकना ,

जुदाई देख ली मैंने बडे अदभुत रहे मंजर ।।

हरेन्द्र सिंह कुशवाह

~~~एहसास~~~

सभी इल्ज़ाम शीशे पर ये जग कबतक लगायेगा

November 8, 2016 in ग़ज़ल

सभी  इल्ज़ाम  शीशे  पर  ये  जग कबतक लगायेगा ,

भला।  नाकामियों   को   वो   यहाँ   कैसे   छुपायेगा ।

 

तुम्हारा  है  तुम्ही  रख  लो  उजाला  और  सूरज भी ,

हमारा   यार   जुगनू    है    हमें    रस्ता    दिखायेगा ।

 

चरागों   के   लिए   मैंने   हवा   से  दुश्मनी  कर  ली ,

मुझे  क्या  था  पता  वो  तो  मेरा  ही  घर  जलायेगा ।

 

सही  मंज़िल  हकीकत  में  उसे  हासिल  नहीं  होगी ,

कभी जो साजिशों को कर किसी का दिल दुखायेगा ।

 

बिना  मतलब  उफनता  है  मियाँ  खारा  समंदर भी ,

किसी  प्यासे  शज़र  की  आग  दरिया  ही बुझायेगा ।

 

जिसे   कंधे  बिठाकर  आज  दरिया  पार  करवाया ,

यक़ीनन  पीठ  पर  वो   ही  कभी  खंज़र  चलायेगा ।

 

हमारे  हौंसले  का  इस  कदर  जो   खूँन  कर  बैठा ,

मियाँ  क्या  खाक  रिश्ता  दोस्ती  का  वो निभायेगा ।

 

यक़ीनन  भूलना  उसको  नहीं  आसान  होगा  फिर ,

मेरी  महफ़िल में आकर जो कभी दो पल बितायेगा ।

 

हरेन्द्र सिंह कुशवाह

~~~एहसास~~~

देखना उनकी नियत भी बे-असर हो जायेगी

July 7, 2016 in ग़ज़ल

देखना उनकी नियत भी बे-असर हो जायेगी,
चालबाज़ी जब हमारी कारगर हो जायेगी.

देखना है खेल मुझे साफ़ पौशाको का उस दिन,
भोली जनता जब कभी भी जानबर हो जायेगी.

बिगडे लोगो के लिए बिगडे तरीके चाहिए जी,
बदसलूकी भी हमारी तब हुनर हो जायेगी.

दुनियाँ मानेगी लोहा फ़िर हमारा सदियों तक,
जिधर चलेगे एक हो वही डगर हो जायेगी.

ढूँढ लेंगे हम आँधेरे मे सफ़र अपना हुजूर,
सूर्य की ये रोशनी भी कम अगर हो जायेगी.

हम अकेले ही चलेंगे देश की खातिर मियाँ,
चीखती चिल्लाती दुनियाँ रहगुज़र हो जायेगी.

फ़िर चलेंगे काफिले अधिकार की लडाई के,
अखबार के बस्ते भी एक खबर हो जायेगी.

फ़िर से बदलेगा जमाना नई पीडी से यहाँ,
जब इंकलाब की ज़ुबानी घर व घर हो जायेगी.

हरेन्द्र सिंह कुशवाह
“एहसास”

तेरी बुराईयों को हर अखबार कहता है,

July 6, 2016 in ग़ज़ल

तेरी  बुराईयों  को  हर अखबार कहता है,
और  तू  है  मेरे  गाँव  को गँवार कहता है.

ऐ  शहर  मुझे  तेरी सारी औकात पता है,
तू  बच्ची  को भी हुश्न-ए-बहार कहता है.

थक  गया है वो शक्स काम करते -करते,
तू  इसे  ही अमीरी और बाज़ार कहता है.

गाँव  चलो  वक्त  ही  वक्त है सब के पास,
तेरी  सारी  फ़ुर्सत  तेरा इतवार कहता है.

मौन  होकर फ़ोन पे रिश्ते निभाये जा रहे,
तू इस  मशीनी दौर को परिवार कहता है.

वो  मिलने  आते थे कलेजा साथ लाते थे,
तू  दस्तुर  निभाने को रिश्तेदार कहता है.

बडे – बडे मसले हल  करती थी पंचायते,
तू अंधीभ्रष्ट दलीलो को दरवार कहता है.

अब  बच्चे  तो बडो का अदब भूल बैठे है,
तू  इसे  ही नये दौर का संस्कार कहता है.

हरेन्द्र सिंह कुशवाह
“एहसास”

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