कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामना

August 15, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

तन को दीप बनाय के, मन में ज्योति जलाय
मोती हरि आरत करें, जीवन भोग लगाय

मोहक मन भावन छवि, मेघ वर्ण अति रूप
मृगी नयन कोमल बदन, लज्जित मदन अनूप

रूप राशि मुख चन्द्र सों, चकाचौंध चहुँ लोक
चकित होय चित्रवत खड़े, मोती मुदित बिलोक

किलकारी कान्हा सरस, सुन सुर मुदित अघाय
खिला बसंत ब्रज भूमि वन, जलद सरस चहुँ छाय

जय जननी

August 14, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

जय हे भारत स्वर्ण भूमि जय
जय जननी, जय कर्म भूमि हे

गंगा यमुना ब्रह्म सरस्वती
पावन सतलज सिन्ध बहे

विन्ध्य हिमालय गिरी अरावली
मणि माणिक नवरत्न भरे

जलधि हिन्द बंगाल अरब जल
स्वर्ण भूमि नित अंक भरे

आर्य द्रविड़ मंगोल भूमि हे
हिन्दू इसाई यवन मातृ जय

जय हे भारत स्वर्ण भूमि जय
जय जननी, जय कर्म भूमि हे

वाल्मिक मुनि व्यास कालि कवि
तुलसी सूर कबीर संत स्वर

गूँजे धनुष टंकार राम की
गीता का उपदेश गूँजे

जय राणा जय शिवा गोविन्द सिंह
जय भारत संतान वीर हे

जय हे भारत स्वर्ण भूमि जय
जय जननी, जय कर्म भूमि हे

जंगे आज़ादी (आजादी की ७०वी वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर राष्ट्र को समर्पित)

August 12, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

वर्ष सैकड़ों बीत गये, आज़ादी हमको मिली नहीं
लाखों शहीद कुर्बान हुए, आज़ादी हमको मिली नहीं

भारत जननी स्वर्ण भूमि पर, बर्बर अत्याचार हुये
माता बहन बेटियों के, इज्ज़त धन सम्मान लुटे

बिक गये धरम लुट गये करम, सब ओर गुलामी बू छायी
प्राचीन सभ्यता संस्कृति गौरव, भूल गये हम सच्चाई

ब्राह्मण कहता हम सर्वशेष्ट, छत्रिय कहता हम शासक है
बनिया कहता हम धन कुबेर, हरिजन अछूत बस सेवक है

मंदिर मस्जिद स्कूल सभी, जाना हरिजन को वर्जित था
ईश्वर था उच्च जातियों का, सब पुण्य उन्हीं को हासिल था

बेकार अगर हो जाय अंग, मानव ताकत घट जाती है
सब लोग दबा सकते उसको, आबरू मान छिन जाती है

भारतजन का एक बड़ा भाग, हमने ही निष्क्रिय कर डाला
शक्तिहीन बना इनको हमने, कमजोर देश को कर डाला

हर वर्ग धर्म में फूट डाल, दंगे फ़साद करवाते थे
राजा राजा जनता राजा, हिन्दू मुस्लिम लड़वाते थे

आपस में जब फूट पड़ी, अंग्रेजों कि बन आई थी
आज़ादी कैसे मिल सकती, आपस में ठनी लड़ाई थी

कुछ रजवाड़े कुछ नेतागड़, गोरों के सिपहसलार बने
कुछ राय बहादुर सर की ताज, बने गोरों के सच्चे बन्दे

अन्न, कपास जूट लोहा, भर भर जहाज़ ले जाते थे
हर साल नया लंदन बनता, हर साल स्वर्ग बन जाते थे

कंगाल हो गया देव भूमि, लाखों भूखे नंगे फिरते
हर साल पड़े बंगला अकाल, हर साल हज़ारों जरे मरे

यह देश हमारा अपना था, सब चीज़ यहाँ कि उनकी थी
अंग्रेज़ हमारे स्वामी थे, बेड़ियाँ पैर में जकड़ी थी

कानून न्याय सब उनका था, हम बने मूक दर्शक केवल
लाखों बिस्मिल आज़ाद मरे, हम मौन रो रहे थे केवल

देवभूमि उद्धार हेतु, गांधी का अवतार हुआ
भारत जननी स्वर्ण भूमि में, नया रक्त संचार हुआ

सत्य अहिंसा निर्भयता की, बचपन में शिक्षा पाई
मानव सेवा सर्वशेष्ठ धर्म, माता ने यही सिखाई थी

इंग्लैंड गये शिक्षा लेने, आज़ाद मुल्क की हवा मिली
आज़ादी है अनमोल रत्न, जौहरी हृदय को भनक लगी

भाषण लिखने पढ़ने की, गोरे केवल अधिकारी थे
पेशा चुनने धन रखने की, केवल वे ही अधिकारी थे

काले हिन्दुस्तानी कुत्ते, दोनों ही एक बराबर थे
होटल गिरजा में जाने से, भारतवासी वर्जित थे

गोरे काले का भेद देखकर, गाँधी का दिल भर आया
आज़ादी है एकमात्र लक्ष्य, दिल में यह बात उभर आया

भारत आकर देख दुर्दशा देश की गाँधी रोया
कैसे टूटे लौह बेड़ियाँ, इस विचार में खोया

सत्य अहिंसा जन क्रांति का, मार्ग श्रेष्ठ व उत्तम है
मात्रभूमि की मुक्ति अर्थ, बस मार्ग यही सर्वोत्तम है

सत्य अहिंसा शस्त्र ग्रहण कर, आज़ादी रण में कूद पड़ा
आज़ादी का शंख फूंककर, भारत छोड़ो आवाज़ दिया

लार्ड ह्यूम की कांग्रेस, निर्जीव शक्ति से हीन बनी
कर्मठ नीतिज्ञ नेता अभाववश, जन जन मन से दूर हटी

गाँधी का नेतृत्व मिला तो, प्राण शक्ति संचार हुआ
एक नयी शक्ति एक नया जोश, ले कांग्रेस तैयार हुआ

तैयार हुआ संघर्ष हेतु, अन्याय गुलामी के विरुद्ध
जन जन में जागृति लाने को, चल पड़े कांग्रेसी विश्रुब्ध

झंडा कांग्रेस नीचे, हर वर्ग किस्म के लोग जुटे
जंजीर गुलामी तोड़ेंगे, लाखों हज़ार कंठ स्वर फूटे

नेताजी नेहरु पटेल, राजेन्द्र रत्न अब्दुल कलाम
अम्बेडकर राजा जयप्रकाश, चल पड़े तिरंगा हाथ थाम

धनवान पुत्र वनिता छोड़े, सब मोह नेह से मुँह मोड़े
आज़ादी की आग जलाने, चल पड़े फकीरी वेश धरे

एक नयी चेतना नयी लहर, जन जन में भर आयी थी
उठ खड़ा हुआ सम्पूर्ण देश, आज़ादी की लिप्सा जागी

चल पड़ा देश गाँधी पीछे, सब छोड़ मोह माया धन जन
भर गये जेल अंग्रेजों के, अभिमान मान उनके टूटे

गाँधी की आवाज़ राह पर, जत्थे के जत्थे निकल पड़े
निज माथ हथेली पर रक्खे, शत शत सहस्त्र इन्सान चले

चल पड़े छोड़ रोते बच्चे, कोई सुहाग की रात तजे
बूढ़े माँ बाप छोड़ कोई, कोई धन राज्य मान छोड़े

माता बहनों कि फौज़ देख, चल पड़ी पोंछ सिन्दूर माथ
मातृभूमि को मुक्त कराने, चल पड़ी नारियों की बरात

निकल पड़े नवयुवक छोड़, कॉलेज पढ़ाई सब अपनी
आज़ादी की आग जलाने, चल पड़े नवयुवक नवयुवती

छोड़ वकालत कोर्ट चला, कानून पंडितों का जत्था
भूखे नंगे श्रमिकों का, निकल पड़ा पैदल जत्था

छोड़ किसानी चले भूमिधर, व्यापारी व्यापार छोड़ कर
आजादी का दीप जलाने, चले सिपाही कफ़न बांध कर

मंदिर मस्जिद गुरुदारे, बन गये सभा स्थल सारे
आज़ादी की प्रतिमा को, हर रोज़ पूजते जन सारे

हर रोज़ हजारों आते थे, संदेश सुनाये जाते थे
हर गाँव गली में जाकर के, सब लोगों तक पहुँचाते थे

देश में निर्मित अपनी चीज़े ही, भारतवासी अपनाओ
अगर रोकनी ब्रिटिश लूट है, भाई भाव स्वदेशी लाओ

बहिष्कार कर ब्रिटिश माल का, मोह विदेशी छोड़ो
ब्रिटिश माल की होली फूंको, कानून ब्रिटिश की तोड़ो

माल विदेशी की होली, हर गाँव गली में खूब जली
ब्रिटिश किताबें कपड़े लत्ते, गोरों की सम्मान जली

बहिष्कार कर ब्रिटिश माल का, लोग स्वदेशी अपनाये
हर घर में चरखा चलता था, घर घर वस्त्र बनाते थे

जूट कपास चाय कहवा, ब्रिटिश मिलों कि जननी थी
अंग्रेज़ व्यापारी को हमने, इनकार किया इनको देनी

ब्रिटिश मिलें हो चलीं बंद, लंदन में हाहाकार मचा
चरखा करघा पर रोक लगे, लंदन में आवाज़ उठा

ब्रिटिश मिलें हो जाय बंद, यह उनको नहीं गँवारा था
खो जाय हाथ से पारसमणी, हरगिज़ यह नहीं गंवारा था

भारत जन के इन कामों से, गोरे शासक थे घबराये
सदियों से दबी जातियों का, उठना कैसे उनको भाये

हर रोज़ हजारों चले जेल, हर रोज़ गोलियाँ चलती थी
हर रोज़ सैकड़ों विधवा हों, हर रोज़ चितायें जलती थीं

जलियाना का बाग़ देख,कुर्बान सैंकड़ों हुए जहाँ
जनरल डायर की गोली से, सिन्दूर हजारों मिटे जहाँ

खून का हर कतरा कतरा, हर चोट जिस्म पर पड़ा हुआ
गोरी शासन कि नींव ईट, हर रोज़ हिला खोखला करता

ज्यों ज्यों अत्याचार बढ़े, चिनगारी जोर पकड़ती थी
लाखों शहीद कुर्बान हुए, पर आग लगी न बुझती थी

एक ओर खड़े थे शांति वीर, एक ओर क्रांति मतवाले थे
एक ओर अहिंसा के सेवक, एक ओर खून के प्यासे थे

आज़ाद भगत सिंह बिस्मिल ने, एक लहर क्रांति की फैलायी
आजादी मस्तक माँग रही, आवाज़ देश भर में छायी

बम फेंक अंग्रेजी संसद में, इन्क़लाब भगत सिंह चिल्लाया
सोती जनता की नींद तोड़, गोरी शासन को झकझोरा

पंजाब के कोने कोने में, इक आग लाजपत ने फूंका
आजादी की समर भूमि में, वह वीर निडर होकर जूझा

बलिदान हो गया देश अर्थ, बर्बर शासक के हाथों से
यह खून व्यर्थ नहीं जायेगा, आवाज़ उठी हर बूंदों से

भगत सिंह सुखदेव गुरु, हँसते फांसी पर झूल गये
जय जननी जय कर्मभूमि, जपते आज़ाद कुर्बान हुए

देश पर मरने वालों का, बलिदान रंग लेकर आया
अन्यायी शासन के विरुद्ध, जेहाद देश भर में छाया

आज़ादी के रंग मंच पर, गाँधी सुभाष दो नायक थे
सत्य अहिंसा जन क्रांति के, दोनों की सच्चे साधक थे

लाहौर कांग्रेस सम्मेलन से, दोनों नेता दो राह चले
सुभाष क्रांति की राह पकड़, कांग्रेस से मुहँ मोड़े

ब्रिटिश राज की गिद्ध दृष्टि से, कब तक सुभाष बच सकते थे
शासन की खोजी आखों से, कब तक सुभाष छिप सकते थे

पड़ गयी बेड़ियाँ हाथों में, निज घर में बंदी बन बैठे
ब्रिटिश फौज़ के घेरे में, सन्यासी का रूप धरे

वह शेर नहीं था जंगल का, जो लौह सींखचों में रहता
वह तो ऐसा अंगारा था, जो नीचे राख नहीं दबता

ब्रिटिश कैद से निकल पड़े, सब तोड़ गुलामी के बंधन
आज़ादी के हवन कुंड में, चल पड़े जलाने अपना तन

सिंगापुर रंगून पहुँच, “आज़ाद हिन्द” का गठन किया
खून के बदले आज़ादी, जन जन को आवाज़ दिया

बन गये सिपाही लाखों जन, लाखों ने धन का दान किया
मातृभूमि के चरणों में, लाखों ने जीवनदान दिया

सिंगापुर, इटली जापान गये, हिन्दुस्तानी मित्रों से मिलने
नापाक ब्रिटिश शासन विरुद्ध, हथियार समर्थन धन लेने

हथियार समर्थन धन लेकर, सेना का विस्तार किया
ब्रिटिश दैत्य से भिड़ने को, “आज़ाद हिन्द” तैयार हुआ

हे वीर पुत्र भारत माँ के, आज़ादी तुम्हें पुकार रही है
हिम आलय है बाट देखता, दिल्ली तुम्हें निहार रही है

गूंज उठा जय हिन्द हिन्द, सर कफ़न बाँध फौजी निकले
ब्रिटिश हुकुमत थर्रायी, जब आज़ाद हिन्द पलटन निकले

अंडमान निकोबार द्वीप, “काला पानी” कहलाते थे
आज़ादी के दीवानों के, बंदीगृह समझे जाते थे

विहँस पड़ी उस समय भूमि, जब झंडा सुभाष ने फ़हराया
रो पड़ा सिंह समकक्ष देख, बंदी वीरों की कृष काया

ब्रिटिश दासता के प्रतीक, उन द्वीपों के नव नाम दिये
आज़ादी पा जो हर्षित थे, ‘स्वराज्य’ ‘शहीद’ वे कहलाये

नागालैंड तरफ बढ़ गया वीर, सदियों से दास बना जो था
आज़ाद हिन्द गोरी फौजों का, वह प्रांत बना रणस्थल था

ललकार उठा वह मस्त सिंह, वीरों जय शीश मांगती है
देखो आज़ादी प्यासी है, वह खून खून चिल्लाती है

बढ़ गए वीर तन मोह छोड़, छोड़े प्रिय जन घर माया
कुर्बान हुये जननी खातिर, संपूर्ण जगत में यश छाया

वह महायुद्ध की बेला थी, हो गया पराजित जर्मन था
इटली जापान मर चुके थे, विजयी इंग्लैंड मुदित मन था

हाथ दाहिना टूट गया, जब हार गये जापानी
अभाग्य देश का सचमुच था, जय ‘आज़ाद हिन्द’ को मिली नहीं

जन जन के नेता गाँधी यदि, असहयोग क्रांति को फैलाते
वीरवर सुभाष के युद्ध यज्ञ में, थोड़ा भी खून गिरा पाते

उस समय अन्य स्थिति होती, आज़ाद देश हो सकता था
सदियों से बना गुलाम देश, आज़ाद हवा ले सकता था

हार गया आज़ाद हिन्द, भाग्य देश अपना हारा
सो गया देश का पारसमणि , जो बना देश का प्यारा था

बुझ गयी विश्वयुद्ध कि लपटें, नव निर्माणों की बेला थी
पर भारत में सत्य अहिंसा, क्रांति युद्ध की बेला थी

इस नयी क्रांति की ज्वाला को, रे कौन बुझा सकता था
सदियों से सोयी जाति जगी, रे कौन कुचल सकता था

थका हुआ बूढा ब्रिटेन, कमजोर शक्ति से हीन बना
अमरीका कम्युनिस्ट रूस, दो नयी शक्ति से दीन बना

गोलमेज़ कांफ्रेंस चला, आज़ादी की बात चली
दिन गुजरे हफ्तों गुजरे, पश्चात देश की भाग्य जगी

ब्रिटेन उस समय शासित था, लेबर के लार्ड ऐटली से
कुछ सहानुभूति जो रखता था, गुलाम देश व दलितों से

आज़ादी से वंचित रखना, ब्रिटेन के वश की बात न थी
पर हिन्दू मुस्लिम भाई भाई, में नफरत की बीजें बोयी

जिन्ना साहब मुस्लिम लीगी, आज़ादी के इक नायक थे
अंग्रेजी शासन के खिलाफ, इंसान सही माने में थे

ब्रिटिश कूटनीति के फंदे में, स्वयं जिन्ना साहब फंस बैठे
मजहब धर्म की आंधी में, दो देश समर्थक बन बैठे

हिन्दू मुस्लिम में आग लगी, बन गये खून के प्यासे थे
जो कल तक भाई होते थे, बन गये आज दुश्मन पक्के

हर साल रंग की होली थी, इस साल खून से हम खेले
हर साल प्यार की खुशबू थी, इस साल घृणा के मेले थे

आज़ादी की या सत्ता की, नेताओं में जो जल्दी थी
ब्रिटिश कूटनीति के फंदे में, फंसने की उनको जल्दी थी

सब शर्त मान अंग्रजों का, आज़ादी हमने हासिल की
जो भूमि गुलामी में जुड़ी रही, वह आज़ादी में टूट गयी

सैंतालिस का पन्द्रह अगस्त, खुशियों का सागर लाया
एक तरफ हजारों जीवन में, दुःख का मातम छाया

लाखों हज़ार घर उजड़ गये, चहुँ ओर भीड़ थी दुखियों की
जन जन के प्रिय गाँधी के लिए, वह समय नहीं था खुशियों की

जिन आदर्शो के खातिर, जीवन भर संग्राम किया
दब गये घृणा आंसू नीचे, सब बापू का अरमान मिटा

श्रधांजलि

August 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आवो !

हम सब नमन करें

भारत के वीर सपूतो का !

जिनने आज़ादी के हवन कुंड में

अपना सब कुछ होम दिया

आवो !

हम सब नमन करें

भारत के वीर शहीदों का !

जो नित्य बलिदान दे रहे

सीमा पर अपने प्राणों का !

आज़ादी की रक्षा खातिर

आवो उनकी आवाज़ सुने

पर्वतों के पार से

सीमा के हम पहरेदार

पड़े रहते

खुले मैदानों में

नंगी चट्टानों पर

बर्फ की सिल्लियों पर

या कभी

धूल रेत के

कोमल गद्दों पर

चाँद तारों की महफ़िल को

निहारते

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

झेलते

सर्द बर्फीली हवा को

धूल रेत की आंधी को

या कभी

नभ से हो रहे हिमपात को

मूक बने देखते

प्रकृति के व्यापार को

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

हड्डियो के जोड़ जोड़ काँप रहे

पोर पोर सिहर रहे देह के

या कभी

बर्फ के तूफ़ान में फँसे

कड़कड़ाती सर्दियों से जूझते

बर्फ को निहारते

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

रक्त लाल बर्फ बने

नैन नीर शून्य बने

या कभी

नैन ज्योति शून्य बने

हवा विहीन शून्य में निहारते

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

कट जाय हाथ मोह नहीं

कट जाय पैर मोह नहीं

या कभी

पुरुषत्व भी सदैव के लिए मिटे

देश अर्थ मिट रहे लुट रहे

स्वयं को निहारते

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

दुश्मनों को रोकने को

पत्थरें खड़ी हुई

गोलियों को रोकने को

छातियाँ अड़ी हुई

या कभी

दुश्मनों को चीरने को

आरियां खड़ी हुई

गोलियों से जूझते

देश को निहारते

साथ ही निहारते

पर्वतों के पार

सीमा के हम पहरेदार

अलख जगाआकाश

June 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तन कुँआ मन गागरी, चंचल डोलत जाय !

खाली का खाली रहे, परम नीर नहिं पाय !!

 

मोती तेरा नूर मैं, देखूं चारों ओर !

धरती नभ चारों दिशा, तू ही तू ही सब ओर !!

 

माया विष को खाय के, मोती पड़ा अचेत !

लाख जतन मैंने कियो, फिर भी भयो न चेत !!

 

सात रज़ाई ओढ़ के, मैं सोअत दिन रात !

साँझ समय आवत दिखा, दुलहा संग बारात !!

 

शोर मचा आवत पिया, चढ़कर पवन तुरंत !

रोवत दुल्हिन चल पड़ी, बाँह पसारे संग !!

 

प्रेम नीर पीकर फिरे, मोती मस्त विभोर  !

तन मन सुधि विसराय के, नाचे संग किशोर !!

 

भाग-भाग मंज़िल पकड़, आवत काल निहार !

मोती संशय छाड़ि के, चल सागर के पार  !!

 

मन स्वचछंद नाचत फिरे, जैसे फिरे समीर  !

हँसा सोवत कर्म वश, वापस मुड़ा फ़क़ीर !!

 

मोती थामे काल गति, पलटा मृत्यु विधान  !

अमर सुधा पी मुदित मन, सोवत चादर तान !!

 

नारी को पापिन कहे, करे नित्य अपमान  !

मोती वह घर छोड़िए, वह दूषित शमशान !!

 

मोती नारी ढोल नहि, जो ताड़न के योग्य !

पंडित मिथ्या बोलते, वे हरि कृपा अयोग्य !!

 

किसकी धाती भक्ति हरि, किसकी सम्पत्ति ज्ञान  !

निम्न जाति शबरी तेरी, जिसका प्रेम महान !!

 

नभ में स्याही छा गयी, घर को मुड़े विहंग !

जल्दी से तैयार हो, जाना प्रियतम संग  !!

 

अग़्नि बरे चहुँ देह में, धूं धूं जले मकान  !

मोती गाये झूम के, राख मले शमशान !!

 

मन डोले चारों दिशा, जैसे फिरे समीर !

मन विकार रथ पर चढ़े, बिखरे माया नीर  !!

 

जड़ चेतन हर जीव में, देखूं तेरा नूर !

मोती सबमें तुम बसे, प्रीतम सखा हज़ूर  !!

 

मोती बैठा आग में, तप कर कुंदन होय !

मन विकार ज्यों ज्यों जले, सोना पक्का होय !!

 

घर में इक विषधर छिपा, मोती लउकत नाहि !

न जाने कब कहाँ डसे, कुछ भी सूझत नाहि !!

 

मोती बैठा सोच में, कैसे जले पार !

सागर की लहरें विषम, चारों ओर अन्हार  !!

 

नैनन से लउकत नहीं, केवल दिखे अन्हार !

मन की नैना खोलिये, तब लउके करतार  !!

 

मोती क्यों दुविधा फँसा, पकड़ राह जो चाह !

काल खड़ा तव शीश पर, जल्दी कूद अथाह !!

 

मोती सरपट भागिए, पीछे आंधी आय !

साईं पग जल्दी धरो, फिर संकट टल जाय  !!

 

धूं धूं धूं देहिया जले, बरसे परमानन्द  !

मैल जले अति जोर से, मोती भयो आनंद !!

 

विदा काल रोअत खड़ी, प्रिय नारी सुकुमार  !

फेंक फटी चुनरी चली, माया तम को फार !!

 

 

मोती क्यों दुविधा फँसा, पकड़ राह जो चाह !

काल खड़ा तव शीश पर, जल्दी कूद अथाह !!

 

पुष्प कमल वन भ्रमर दल, मोहित पान पराग !

अनजाने भावी प्रबल, निशि दिन करत बिलास !!

 

 

अलख जगे आकाश

June 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तन कुँआ मन गागरी, चंचल डोलत जाय !

खाली का खाली रहे, परम नीर नहिं पाय !!

 

मोती तेरा नूर मैं, देखूं चारों ओर !

धरती नभ चारों दिशा, तू ही तू ही सब ओर !!

 

माया विष को खाय के, मोती पड़ा अचेत !

लाख जतन मैंने कियो, फिर भी भयो न चेत !!

 

सात रज़ाई ओढ़ के, मैं सोअत दिन रात !

साँझ समय आवत दिखा, दुलहा संग बारात !!

 

शोर मचा आवत पिया, चढ़कर पवन तुरंत !

रोवत दुल्हिन चल पड़ी, बाँह पसारे संग !!

 

प्रेम नीर पीकर फिरे, मोती मस्त विभोर  !

तन मन सुधि विसराय के, नाचे संग किशोर !!

 

भाग-भाग मंज़िल पकड़, आवत काल निहार !

मोती संशय छाड़ि के, चल सागर के पार  !!

 

मन स्वचछंद नाचत फिरे, जैसे फिरे समीर  !

हँसा सोवत कर्म वश, वापस मुड़ा फ़क़ीर !!

 

मोती थामे काल गति, पलटा मृत्यु विधान  !

अमर सुधा पी मुदित मन, सोवत चादर तान !!

 

नारी को पापिन कहे, करे नित्य अपमान  !

मोती वह घर छोड़िए, वह दूषित शमशान !!

 

मोती नारी ढोल नहि, जो ताड़न के योग्य !

पंडित मिथ्या बोलते, वे हरि कृपा अयोग्य !!

 

किसकी धाती भक्ति हरि, किसकी सम्पत्ति ज्ञान  !

निम्न जाति शबरी तेरी, जिसका प्रेम महान !!

 

नभ में स्याही छा गयी, घर को मुड़े विहंग !

जल्दी से तैयार हो, जाना प्रियतम संग  !!

 

अग़्नि बरे चहुँ देह में, धूं धूं जले मकान  !

मोती गाये झूम के, राख मले शमशान !!

 

मन डोले चारों दिशा, जैसे फिरे समीर !

मन विकार रथ पर चढ़े, बिखरे माया नीर  !!

 

जड़ चेतन हर जीव में, देखूं तेरा नूर !

मोती सबमें तुम बसे, प्रीतम सखा हज़ूर  !!

 

मोती बैठा आग में, तप कर कुंदन होय !

मन विकार ज्यों ज्यों जले, सोना पक्का होय !!

 

घर में इक विषधर छिपा, मोती लउकत नाहि !

न जाने कब कहाँ डसे, कुछ भी सूझत नाहि !!

 

मोती बैठा सोच में, कैसे जले पार !

सागर की लहरें विषम, चारों ओर अन्हार  !!

 

नैनन से लउकत नहीं, केवल दिखे अन्हार !

मन की नैना खोलिये, तब लउके करतार  !!

 

मोती क्यों दुविधा फँसा, पकड़ राह जो चाह !

काल खड़ा तव शीश पर, जल्दी कूद अथाह !!

 

मोती सरपट भागिए, पीछे आंधी आय !

साईं पग जल्दी धरो, फिर संकट टल जाय  !!

 

धूं धूं धूं देहिया जले, बरसे परमानन्द  !

मैल जले अति जोर से, मोती भयो आनंद !!

 

विदा काल रोअत खड़ी, प्रिय नारी सुकुमार  !

फेंक फटी चुनरी चली, माया तम को फार !!

 

 

मोती क्यों दुविधा फँसा, पकड़ राह जो चाह !

काल खड़ा तव शीश पर, जल्दी कूद अथाह !!

 

पुष्प कमल वन भ्रमर दल, मोहित पान पराग !

अनजाने भावी प्रबल, निशि दिन करत बिलास !!

 

 

अलख जगा आकाश

May 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

‘मोती’ रोवत थान पर, माई गयी आकाश !

किसकी माई कब गयी, वह तो तेरे पास !!

 

अलख जगा आकाश में, सुना जो भागत जाय !

बाकी सब नाचत फिरें, जग माया के साथ !!

 

काँव-काँव कौआ करे, उसका दिया सन्देश  !

एक रात बस ठहर कर, निकल दूसरो देश !!

 

निज स्वरुप को त्याग कर, नदिया बनी समुंद्र  !

जीव मिला पर्ब्रम्हा से, धरा ब्रह्मा का रूप !!

 

मोती न आवत दिखा, न जाते कोई देख !

जाते हल्ला हो उठा, ना जाना कोई भेद !!

 

अचरज  देखा आज मैं, चेतन जड़ बन जाय !

जड़ चेतन का स्वांग भर, रोवे हँसे ठठाय !!

 

भांग-धतूरा खाय के, ‘मोती’ चढ़ा आकाश !

शून्य की घंटी ज्यों बजी, उलटा गिरा पाताल !!

 

धन खातिर योगी बने, ज्ञान बघारे रोज !

माया-विषया नित तपें, वे क्या जानें योग !!

 

जड़-चेतन सब में वही, सब में उसका बास !

ग्रह तारे पिण्डी सकल, सब में वही प्रकाश !!

 

रेत की गिनती हो सके, गिनती सिर के बाल !

उसकी गिनती को करे, जिसका आदि न काल !!

 

तेरे डिग लेटा पड़ा, तेरा प्रियतम मीत !

कब तक तू सोयी पड़ी, उठ मोती कर प्रीति !!

 

कैसा गुरु, किसका गुरु, सब माया के दास !

मेरा गुरु बस एक है, जनम मरण के साथ !!

 

हाड़ माँस को जोड़ कर, चर्बी दिया चढ़ाय !

सवा टका के भवन में, उसको दिया बिठाय !!

 

धर्म अधर्म की बात पर, रोज़ बढ़े तकरार !

‘मोती’ सब विरथा लड़ें, बिन जाने सरकार !!

 

फूल खिलें इक दिन रहें, रात होय मुरझायँ !

सब मानव की गति यही, फिर कांहे इतराय !!

 

प्रेम बँधा संसार है, प्रेम ही जग में सार !

प्रेम बिना कैसे मिले, जग का तारनहार !!

 

माया चोंगा पहन कर, ‘मोती’ गया बजार !

नकली को असली समझ, रोज़ करे व्यापार !!

 

पण्डित, मुल्ला, पादरी, घर-घर आग लगाय !

नफरत की आँधी चला, दीपक दिया बुझाय !!

 

फूला फूल पलाश का, आग लगा चहुँओर  !

मेरा घर धूं-धूं जला, भीतर हुआ अंजोर !!

 

उजड़ा घर हँसा उड़ा, बसा दूसरो गेह !

योनि योनि भटकत फिरे, भिन्न भिन्न धरे देह !!

 

एक दीप जैसे जला, लाखों दीप जलें !

धरती आलोकित हुई, तम की घटा छंटे !!

 

भीतर झाँका वह दिखा, बाहर घोर अन्हार !

बाहर भटकत मैं फिरा, मिला न मेरा यार  !!

 

ढूढत ढूढत मैं थका, “काल” मिले जब होय !

मैं “अकाल” निशचित रहा, काल करे क्या होय !!

 

तेल चुका बाती बुझी, सुगना उड़ा विदेश !

कर्म साथ लेता गया, कुछ भी बचा न शेष !!

 

प्रियतम तेरे रूप पर, मोहित जग संसार !

अपना मेरा कुछ नहीं, कैसे पाऊँ पार !!

 

भीतर जलता आग है, बाहर धधके आग !

ऐसी अँधेरी गुफा, ना दिन दिखे प्रकाश !!

अलख जगा आकाश

May 26, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

करुणा की बारिश हुई, लथपथ हुआ शरीर !

देहियां में दीपक जला, लउका परम शरीर !!

 

एक रूप सब में बसा, एक ही बना अनेक !

सागर गागर में दिखे, सूरज एक अनेक !!

 

कमल खिला आकाश में, देहियां हुआ अंजोर !

अमृत टपका पहर भर, फूल खिले चहुँ ओर !!

 

नश्वर सुख संसार का, अनजाने दुःख पाय !

जो ‘मैं’ को जाने, मिले परमानन्द प्रकाश !!

 

बूँद-बूँद सागर बना, कण-कण बना पहाड़ !

जो जाने सागर बने, धरती उठा आकाश !!

 

अमृत बरसे रात दिन, पान करें जनकार !

काल जाल से परे वे, ज्योति भरे संसार !!

 

आया तार आकाश से, आवत  एक विमान !

उठ दुल्हिन श्रृंगार कर, सजा सेज सामान !!

अलख जगा आकाश

May 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जंगल नाचत मोर है, अंगना नाचत भोर !

मैं नाचत-नाचत थका, तब तनि हुआ अंजोर !!

 

मनुआ माया में फंसा, भूला अपनी राह !

गहरी खाई में गिरा, राम मिले न राह !!

 

साधु तपता धूप में, मल-मल आग नहाय !

सत्य नाम को ना गहे, राम कहाँ से पाय !!

 

जोग जतनबहु विधि किया, घर में रखा छिपाय !

न जाने कैसे घुसा, कब ले गया उड़ाय !!

 

शबनम गिरी आकाश से, बिखरी धरती आय !

कुछ मेरे अंगना गिरी, अंगना हुआ प्रकाश !!

अलख जगा आकाश

May 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

पृथ्वी और आकाश में एक पुरुष का वास !

कण-कण जिससे व्याप्त है, जीवन, मृत्यु, प्रकाश !!

 

पूरब कोई पश्चिम कहे, पृथ्वी और आकाश !

कण-कण में मुझको दिखे, आगे पीछे  पास !!

 

कर्म मध्य वह व्याप्त है, निराकार साकार !

गुण-अवगुण से परे है, तत्व-तत्व आधार !!

 

किसकी पूजा मैं करू, किसके गाऊं गीत !

मेरे भीतर व्यापत है, मेरा प्रियतम मीत !!

 

प्यासा मूरख क्यों खड़ा, चल नदिया के पास !

पथ की चिंता छोड़ तू, दौड़ हमारे साथ !!

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