आश बूढ़े माँ-बाप की
अलगाव, अवसाद से निकलने को ,
तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
खुद को आकने, अंतर्मन में झांकने को ,
नये हुनर सीख तैयार, बेहतर करने को ।
भविष्य की अनिश्चितता हमेशा से कायम थी
अकेलेपन की खुमारी पहले ही से व्याप्त थी
टूटते संयुक्त परिवार, एकल में हो रहे तब्दील थे
खुद तक सीमित, पडोसियों से भी अनभिज्ञ थे
हम अकेले ही नहीं, सब तैयार हैं फल भुगतने को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
थोड़ा-सा सुधार करें, खुद में हल्का- सा बदलाव करें
घर-ग्राम जो छोङ आए, पुनः उसपे भी हम ध्यान धरें
बुजुर्ग जो घर में बैठे, अपनी आश लगाए हैं
उनकी कंपित हाथों को थोड़ा-सा आराम दे
हम जो भी हैं, माने प्रतिफल, उनकी साधना को,
बस तैयार हो अपनी सोच बदलने को।
तन्हा बैठे-बैठे तकते रहते वे उस पथ पे
कान्हा उनका आएगा, छोङ गया जिस दर पे
कट रही जिन्दगी पडोसियों के रहमो करम पे
ज़रूरतों के लिए कबतक आश्रृत रहे गैरो पे
इस कोरोना काल में, बीमार जो वे पङे
पङोसी भी नहीं आए, थे जो साथ खङे
इसके का दोषी हम, या दोष दे मानवता को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को ।
भूखे रह, खुद को जोखिम में डालकर
फ़रमाइशे पूरी करने को जो थे हरदम तत्पर
अपनी जरूरतों के लिए भी निर्भर हैं दूसरों पर
जिन्हें गरूर समझ, मेहनत-से सीच- सीचकर
बनाया स्वाबलम्बी, पहुँचाया मनचाहे मुकाम पर
अपना जहाँ बसा, भुला बैठे अपनों की आश को,
बस तैयार हो अपनी सोंच बदलने को
आस
बेहद संवेदनशील मुद्दे पर
खूबसूरत रचना
बहुत बहुत धन्यवाद
सादर आभार
भूल वश आश
” आस माँ- बाप की “
🙏👌✍👌✍👌✍👌🙏
बहुत बहुत धन्यवाद
बेहद प्रशंसनीय रचना
बहुत बहुत धन्यवाद
संवेदनशील प्रभावपूर्ण रचना
सादर आभार ।
मैने बस एक कोशिश की है,अपने आसपास घटित होते,बेधित करने वाले दृश्यों को शब्दों मे पिरोने की ।
वाह बहुत ही सुंदर काव्य रचना की है आपने, आपकी काव्य प्रतिभा विलक्षण है,
अतिसुंदर
बेहतरीन प्रस्तुति
बहुत ही लाजवाब प्रस्तुति
सादर आभार मास्टर जी ।
बहुत दिनों बाद आपकी टिप्पणी प्राप्त हुई ।