दीपक पनेरू
मकर संक्रान्ति
January 8, 2020 in साप्ताहिक कविता प्रतियोगिता
जैसे जैसे मकर संक्रान्ति के दिन करीब आते हैं
हर जगह पतंग! हर जगह पतंग!
ये कागज की पतंगें बहुत आनंद देती हैं
नीले आसमान पर, एकमात्र खिलौना
सबको मंत्रमुग्ध कर देते हैं
हम सभी आनंद लेते हैं
जैसे जैसे मकर संक्रान्ति के दिन करीब आते हैं
“ढेल दियो मियाँ!
लच्छी मारो जी !!!
लपटो !! लपटो !!
“अफआआआआआआआआ !! अफआआआआआआआआ !!”
छतों पर उत्सव का माहोल होता है
बस सूरज और आकाश, और उत्साह भरे स्वर
और पतंग! और पतंग!
पतंग से टकराते ही युद्ध शुरू हो जाता है
पतंग काटने के लिए होड़ लग जाती है
सब बट जाते है गुटों में
आसमान नहीं बँटता! आसमान नहीं बँटता!
जैसे जैसे मकर संक्रान्ति के दिन करीब आते हैं
हर जगह पतंग! हर जगह पतंग!
हमें ये नया साल नहीं स्वीकार
December 31, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता
हमें ये नया साल नहीं स्वीकार
जिसमें वही हालात, वही हार
देश में मचा हुआ है हाहाकार
कविता हुई है अब लाचार
ठिठुर रहा गणतंत्र है
जनता कुहरे में कहीं गुम है
घर -घर है अभी तक गरीबी
जन कर रहा गुहार
हमें ये नया साल नहीं स्वीकार
सावन की बूंदों से
May 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
रिमझिम रिमझिम वर्षा से,
जब तन मन भीगा जाता है,
राग अलग सा आता है मन में,
और गीत नया बन जाता है I
कोशिश करता है कोई शब्दों कि,
कोई मन ही मन गुनगुनाता है,
कोई लिए कलम और लिख डाले सब कुछ,
कोई भूल सा जाता है I
सावन का मन भावन मौसम,
हर तन भीगा जाता है,
झींगुर, मेढक करते शोरगुल,
जो सावन गीत कहलाता है I
हरियाली से मन खुश होता,
तन को मिलती शीत बयार,
ख़ुशी ऐसी मिलती सब को,
जैसे मिल गया हो बिछड़ा यार I
गाड़ गधेरे, नौले धारे सब,
पानी से भर जाते है,
नदिया करती कल कल,
और पंछी सुर में गाते है I
“सावन की बूदों” का रस,
तन पर जब पड जाता है,
रोम रोम खिल जाता है सबका,
स्वर्ग यही मिल जाता है I