Narendra Singh
लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध
January 23, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता
लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध
आ गया अंततः वह भी क्षण
आरंभ हुआ समर भीषण।
दो वीर अडिग, अटल वीरत्व
था साक्ष्य धरा का तत्व तत्व।
एक ओर अहीश स्वयं लक्ष्मण
है मही सकल टिकी जिनके फण।
डटे सामने मेघनाद
ले शुक्र से शिक्षा का प्रसाद।
एक इंद्र जयी एक सूर्य वंश
दोनों ही में क्षत्रीय अंश।
वाणों में पावक सदृश घात
नैत्रों में जैसे रक्तपात।
तीरों से तीर प्रचण्ड लड़े
सब देव असुर थे स्तब्ध खड़े।
न कोई आधिक न कोई कमतर
दोनों का ही वीरत्व प्रखर।
जब विफल हुए सारे आघात
किया मेघनाद ने शक्तिपात।
जब शक्ति प्रबल ये लगी उदर
गिरे लखन मुर्छित भू पर।
बोला फिर धूर्त अहम से भर
ले चलो लक्ष्मण को पिता के दर।
पर लक्ष्मण थे कितने भारी
ना समझ सका अंहकारी।
हैं धरा उठाए शेषनाग
उन्हें कैसे उठाए मेघनाद।
जब सूर्य देव हो रहे अस्त
एक सूर्यवंशी थे गिरे पस्त।
सुन दोड़े आए रघुराई
क्योंकर ये हुआ मेरे भाई।
हृदयांश अनुज को युं निहार
बह चली नैत्र से अश्रु धार।
हो गई त्रासदी ये क्योंकर
पूछा प्रभु ने व्यथित होकर।
लक्ष्मण हुए मुर्छित जिस क्षण में,
हनुमान नहीं के क्या रण में।
भाई भरत यदि होते
लक्ष्मण मुर्छित न कभी होते।
महावीर खड़े कुंठित होकर
नैत्र गहन ग्लानि से तर ।
नरेन्द्र सिंह राजपुरोहित
एक यादृच्छिक विचार
December 25, 2018 in शेर-ओ-शायरी
तुम गणनों में जीते हो, हम गणों में जीते हैं।
तुम सिफ़र में जीते हो, हम सफ़र में जीते हैं।
पिता
December 23, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल
दरख्त़ की झड़ों में ढूंढ़ता सुकून के चन्द पल।
कभी मिले पत्तों के नर्म साए
तो कभी इनमे छनकर आती कुछ सख्त़ किरणें भी।
बहुत रोया ये हर उस लम्हे
जब इस दरख्त़ को आम का पेड़ कहा किसने भी।
मुझे मिठास तब मिली जब इस दरख्त ने
आसमां से ज़मीं तक हर चीज़ को चखा।
गिरते पत्तों के बदलते रंग देखे
तो इस उंगली को उम्र भर थामे रखा।
मुझे न छुओ चाहे बनादो इन पत्तों के पत्तल
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल…..
ये नीम का पत्ता बरसों से आज तक
मुझे अपने बोल तक समझा न सका।
और रात आंधी में मेरे कंधे आ बैठे इस कंकर से
मैं ज़मीन के राज़ उगलवा न सका।
कल एक पखेरू ने पास बैठ
मुझसे इस तरह झुकने का राज़ पुछा।
मैने कहा गिरने के बाद न मिले किसी महल की दावत
न किसी मंदिर की पूजा।
स्वर्ग तो मिले तब जब इन्ही झड़ों में जाएं पिघल।
किसी अनजान से बोझ से झुका झुका ये फल…..
मुक्तक
December 20, 2018 in मुक्तक
मां भारती का सहस्त्र वंदन, रही है आवृत ये गोधुली से
यहीं दिगम्बर ये अन्नदाता, लगे है पाथेय संबली से।
यहीं पे खेले चराए गैया, जगत खिवैया किशन कन्हैया
यहीं त्रिलोकेश सूर्यवंशी, यहीं कपिश्वर महाबली से।
मंदाकिनी का है काव्य अविरत, है धैर्य अविचल सा हिमगिरी का
प्रथमवृष्टि की सुगंध अनुपम, है स्वाद अद्भुत सा पंजिरी का।
युगों युगों से युगों युगों तक रहा सुशोभित रहेगा चिन्हित
आशीष है ये स्वयं प्रभु का, है भाग्य अतुलित सा गिलहरी का।
न काल परिधी परे निराशा, न दुःख है पारिव्याप्त इस जगत में
सही समय पर हुए प्रस्फुटित ये पुष्प पर्याप्त इस जगत में।
है धैर्य की यह सतत कसौटी सतत करेंगे इसे भी पारित
रावण भागिनी प्रणय निवेदन, कुब्जा को प्राप्त इस जगत में।
करो अहम को तुरत विसर्जित, नहीं विजित ये कभी समय से
यदि बनोगे विवेकानंदम , बनोगे केवल विधु विनय से।
अहम को त्यागें करें परिश्रम, हमारा भारत हो विश्व शीर्षम
प्रभु बचाए मनु अहम से, मनु बचाए पृथा प्रलय से।
है काव्य अपना हे मान्य कविवर, है शब्द अपने कृति स्वयं की
बने कलम ये सशक्त संबल, करे सबल अभिव्यत्कि स्वयं की
ये स्याह छींटे कभी न छोड़े, ये शब्द गरिमा कभी न तोड़े
सतत शत गरिमा भंग कर दे, शिशुपाल आहुति स्वयं की।
कवि
December 20, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता
रातभर हम ओस पर खींचा किए थे लकीरें,
सुबह को सुरज मुआ दुनिया उड़ा कर ले गया।
हमने ज़मीं पर बैठकर इंचों में नापा आसमां,
जाना तो माना कहां तारे से तारा रह गया।
आंखों से नापा तो ये मंज़िल हुई मरीचिका,
कल की कहीं कलकल हुई और आज मेरा बह गया।
पलकों के आगे यहां चुल्लू भरा और चल दिए,
पलकों के पीछे मेरा सागर उलझ कर रह गया।
हर मील के पत्थर पे बैठा मुस्कुराता आदमी,
देखकर, मुंह फेरकर, वो कवि मुझको कह गया।
पथिक
December 20, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता
मीलों का पथ, पथरीला भी
पथिक हूं मैं भी, चल दूंगा।
सारे मौसम शुष्क रहे क्यों
बादल हूं मैं, बदल दूंगा।
भीष्म बनो तुम, कर्ण बनो तुम
पार्थ हूं मैं भी, ध्यान रहे।
मार्ग मेरा अवरुद्ध करोगे
उत्तर तुम्हें प्रबल दूंगा।
तुम शशक दोड़े और फिर
बस चार कदम में हांफ लिए।
मैं कच्छप अपनी दृढ़ता का
परिचय तुमको कल दूंगा।
साथ मेरे तुम यदि चलोगे
साथ चलेंगे मीलों तक।
कुछ प्रश्नों के उत्तर पूछुंगा
कुछ प्रश्नों के हल दूंगा।
राह मेरी है, सफर मेरा है
इसका निर्णय मैं लूंगा,
कि किसको मैं हलाहल दूंगा
किसको गंगाजल दूंगा।
मेरे साथ अनुज भी हैं कुछ
तुमको भी चलना है चलो।
एक मां का आंचल दूंगा
एक पिता का बल दूंगा।
गंतव्यों तक राह कठिन है
मैं एकाग्र चलुं अविरत।
तुम इतना कोहराम करोगे
मैं भी कोलाहल दूंगा।
या मंज़िल तक जाऊंगा मैं
या मिट्टी हो जाऊंगा।
या वृक्ष मैं बन नए पथिकों को
अपने अनुभव के फल दूंगा।
नरेन्द्र सिंह राजपुरोहित