क्रांतियुवा

August 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

खल्क ये खुदगर्ज़ होती।
आरही नज़र मुझे।।
इंकलाब आयेगा ना अब।
ये डर सताता अक्सर मुझे।।

अशफ़ाक़ की,बिस्मिल की बातें।
याद कब तक आएँगी।।
शायद जब चेहरे पे तेरे।
झुर्रियां पड़ जाएँगी।।

क्या भूल गए हो उस भगत को।
जान जिसने लुटाई थी।।
तेईस में कर तन निछावर।
दीवानगी दिखाई थी।।

वीरता के रास्तों से
आज़ादी घर पर आई थी।
बेड़ियों के निशां थे सर पर
और खून में नहाईं थी।।

आज सूरज वीरता का।
बादलों में गुम है।।
आधुनिक समय का युवा निक्कट्ठु।
निहायती मासूम है।।

इंक़लाबी बन चुकी है।
एक लद इतिहास का।।
जुगाड़ ही सर्वोपरि है।
सत्य यही है आज का।।

आसमा से क्रांतिकारी।
झांकते होंगे यहाँ।।
देखते होंगे के मुल्क हमरा।
आज तक पहुंचा कहाँ।।

देखते के हर कोई।
राजनीति कर रहा।।
देश पे कोई क्या मरेगा।
अब देश अपना मर रहा।।

आज़ाद सा कोई नहीं है।
सब भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।।
सुखदेव जैसे युवा तो यहां।
चूर नशे में,विक्षिप्त हैं।।

आज़ाद सारे भारतीय।
मज़हबों में कैद हैं।।
दूसरों से क्या लड़ेंगे।
आपस में धोखे-फरेब हैं।।

माँ भारती के बाशिंदों सुन लो।
ये देश ही एक धर्म है।।

उत्थान करना है इसी का।

सर्वोपरि यह कर्म है।।

हिंदू-मुस्लिम,सिख-ईसाई।
सब राष्ट्र की बिसात हैं।।
ये जो आज़ादी मिली है।
ये क्रांति की सौगात है।।

क्रांतिकारी वीर सारे।

लड़ गए और मर गए।।

देश को गौरव दिलाकर।

स्वयं फांसी चड़ गए।।

बन सको तो बनो ऐसा।

के साथ में हो हिम्मतें।।

लड़ाई अपनी खुद लड़ो।

ना करो अब मिन्नतें।।

क्रांतिवीर ना सही।

सबल,प्रबल बन जाओ तुम।।

ढूँढो भीतर के भगत को।

युवा असल बन जाओ तुम।।

एक संवाद तिरंगे के साथ।

July 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब घर का परायों का संगी हुआ।

क्रोधित तेरा शीश नारंगी हुआ।

ये नारंगी नासमझी करवा न दे।

गद्दारों की गर्दने कटवा न दे।।

साँझ को अम्बर जब श्वेत हुआ।

देख लेहराते लंगड़ा उत्साहित हुआ।।

श्वेताम्बर गुस्ताखी करवा न दे।

मेरे हाथों ये तलवारें चलवा न दे।।

तल पे हरियाली यूँ बिखरी पड़ी।

खस्ता खंडहरों में इमारत गड़ी।।

ये हरियाली मनमानी करवा न दे।

गुलमटों को अपने में गड़वा न दे।।

तेरा लहराना मुसलसल कमाल ही है।

तेरी भक्ति करूँ क्यूँ?निरुत्तर सवाल ही है।।

तेरी लहरें मेरे रक्त को लहरा न दें।

कहीं हर तराने में तुझे हम लहरा न दें।।

वन डे मातरम

July 17, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

स्वतंत्र हैं हम देश सबका।

आते इसमें हम सारे

हर जाती हर तबका।।

 

सोई हुई ये देशभक्ति

सिर्फ दो ही दिन क्यूँ होती खड़ी।

एक है पंद्रह अगस्त और

दूसरा छब्बीस जनवरी।।

 

देश रो रहा रोज़ रोज़

फिर एक ही दिन क्यों आँखे नम

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्

 

देखो कितना गहरा सबपर

दिखावे का ये रंग चढ़ा।

एक दिन तिरंगा दिल में

अगले ही दिन ज़मीन पे पड़ा।।

 

उठते तो हो हर सुबह

चलो उठ भी जाओ अब तुम

सो रहे हो अब भी अगर तो खा लो थोड़ी सी शरम।

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

सब बातें बोले गोल गोल

सोच कड़वी,कड़वे बोल

एक दिन हो जाते मीठे खा के लड्डू नरम नरम।

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

राष्ट्र ध्वज में तीन रंग

तीन बातों के प्रतीक हैं।

सम्मान करना है इन्ही का

ये जान ले ये सीख लें।।

 

सफ़ेद कहता रखो शांति

साथ दो सच्चाई का।

पर झूठा शान से फिर रहा और

सच्चा मोहताज पाई पाई का।।

 

केसरिया हम सभी को

देता एक उपदेश है।

हिम्मती बनो तुम सारे

बलिदानो का ये देश है।।

 

हरा निशानी समृद्धि का

देता विविधता का ज्ञान है।

मगर भारतीय होने से पहले

लोग हिन्दू-मुसलमान है।।

 

ये रंग हवा में लहरा रहे

इन्हें मन में भी फैला ले हम।

चलो बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

देश के हर ज़ख्म का

हमारे पास मरहम है।

इन निहत्थे हाथों में

धारदार कलम है।।

 

रूढ़िवादी खंजरों पर

अब चल जाने दें ये कलम।

चलो बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

दूसरों का इंतज़ार क्यूँ

तुम ही करदो अब पहल।

एक दिन में क्या बन सका है

घर,ईमारत या महल।।

 

याद करलो आज सब

कर्म अपना,अपना धर्म

चलो राष्ट्र निर्माण में बढ़ाये छोटे छोटे से कदम।

अब बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।

कविनिकेतन

May 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

यह कविता एक ऐसे आवास के विषय में है जो सिर्फ कवि या लेखकों के मन में निर्मित है।
कवियों के उस आवास को मैंने कविनिकेतन नाम दिया है। इस कविता में उसी आवास का वर्णन है।
कविता की लय बरकरार रखने के लिए सभी महान कवियों के नाम सीधे सीधे इस्तेमाल किये गए हैं।
मेरा उद्देश्य उनका अपमान करना नहीं है।
मैं उन सभी कवियों का सम्मान करता हूँ व उनकी रचनाओं के लिए उन्हें नमन करता हूँ।
तो पेश है – “कविनिकेतन”
आशा है आपको पसंद आएगी।

जहां विचारों की विविधता और
कल्पनाओं का सम्मान है।
जहां भाषाओं का सम्मेलन और
शब्दों का आवाम है।।
जहां सोने के सिक्कों से ज़्यादा
अल्फ़ाज़ों का दाम है।
कवियों के मन में वो बसता
कवियों का एक धाम है।।

हर सदी के कलमकार का
जहां होता साक्षात्कार है।
जहां मीरा का प्रशासन है और
कबीरा की सरकार है।।
जहां दिनकर के व्यंगों से लगता
हर ज़ुबां पे ताला है।
जीवन का यथार्थ बताती
मृदुभाव मधुशाला है।।

जहां वर्ड्सवर्थ के वर्णन से
कुदरत भी शर्मा जाती है।
जहां हरिओम की अग्नि
हर मन में ज्वाला भड़काती है।।
जहां भवानी के भावों से
सब मंगल हो जाता है।
बंजर मन भी सतपुड़ा का
घना जंगल हो जाता है।।

जहां निराला की रचनाएं
ह्रदय पर कब्ज़ा करती हैं।
मेघ बन-ठन जाते हैं और
बारिश भी बातें करती है।।
विश्वास के श्रृंगार रस से
मन में प्यार बेहता है।
बशीर बद्र के बंधों का
हर दिल पर जादू रहता है।।

ग़ालिब की रूहानियत जहां के
रोम रोम में छाई है।
माखन की कलम के आगे
तलवारें धराशाई है।।
गुलज़ार गली के शेरों से
गूंजे गली-गलियारे हैं।
साहित्य रुपी रत्नाकर में
डूब चुके यहां सारे हैं।।

जहां अल्हड़ बीकानेरी की
अल्हड़ता सब पर भारी है।
अनुभवों से सिंचित होती
अनुभूति की क्यारी है।।
काल्पनिक सी उस जगह का
कविनिकेतन नाम है।
कवियों के मन वो बसता
कवियों का एक धाम है।।

जहां गीता से पेहले होते
गीतांजलि के दर्शन हैं।
तुकबंदी ज़र्रे ज़र्रे में
कविता कण कण में हैं।।
शब्दों की शमशीर तानने का
मैं भी अभिलाषी हूँ।
उस कविनिकेतन के कमरों का
मैं भी एक निवासी हूँ।।

#कलम_कुदरती

 

अमरकंठ से निकली रेवा

May 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
वादियां सब गूँज उठी और
वृक्ष खड़े प्रणाम कीए।
तवा,गंजाल,कुण्डी,चोरल और
मान,हटनी को साथ लीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

कपिलधार से गिरकर आई
जीवों को जीवन दान दिए।
विंध्या की सूखी घाटी में
वन-उपवन सब तान दिए।

पक्षियों की ची ची चूं चूं

शेरों की दहाड़ लिए।

अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

सात पहाड़ों से ग़ुज़रे ये
सतपुड़ा की शान है।
प्राकृतिक परिवेश की रानी
पचमढ़ी की जान है।
ओम्कारेश्वर में शिव शंकर
स्वयं खड़े प्रणाम कीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

इस बस्ती में आकर
खुद को विकट विपदा में डाल दिया।
इंसानो के वेश में बेठे
शैतानो को पाल लिया।
यहां पग पग पर पाखंडी बैठे
कर्मकाण्ड के हथियार लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

पेहले तुझमे झांककर
लोग खुद को देख जाते थे।
मन,जुबां की प्यास बुझाने
तेरे दर पर आते थे।
आज तेरे किनारों से लौटा हूँ
मट-मैली मुस्कान लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

तू रोति भी होगी तो हम
देख ना पाते हैं।
तेरे आंसू तुझसे निकलकर
तुझमे ही मिल जाते हैं।
कड़वे कड़वे घूँट दर्द के
तूने घुट घुट कर ग्रहण कीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

ढोंग ढोंग में सबने तुझपर माँ

का दर्जा तान दिया।

हाथ खड़े कर दे वो अबभी

जिसने रंचमात्र सम्मान दिया।

रूढ़िवादी बनकर तुझपर

नजाने कितने आघात कीए।

अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।

?विचार अत्यधिक आवश्यक?

ये बूढ़ी आँखें

February 24, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये बूढ़ी आँखें।

ये सब कुछ तांके।।

ये सल भरे पन्ने।

पुरानी किताबें।।

 

विशाल से वृक्ष थे।

जो अब झुक गय हैं।।

दौड़ते धावक थे।

जो अब रुक गय हैं।।

 

कुछ गांठों को।

ये सुलझा गये हैं।।

ये सुगंधित पुष्प थे।

जो मुरझा गये हैं।।

 

इस समंदर की।

ये अनुभवी लहर हैं।।

इनके विचारों।

से ही सहर है।।

 

इन की थपकी से।

निंदिया आती।।

कहानी,किस्सों से।

साँझ ढल जाती।।

 

ये कल की सोचें।

ये कल में झांकें।।

ये कल की निगाहें।

आज कुछ चाहें।।

 

कपड़ा,खाना और चार दिवारी।

जिसमे गुंझे बाल-किलकारी।।

दर्द सहते हैं मन है धरा सा।

चाहिए इनको प्यार ज़रा सा।।

 

थोड़ी फरमाइशें।

थोड़ी सी ख्वाइश।।

बच्चे बन गए हैं।

जो कभी थे वाइज़।।

 

ये ज़िद भी करेंगे।

तुम चिढ़ न जाना।।

बस याद कर लेना।

वो वक़्त पुराना।।

 

अपमान जो करता।

वो ज़ुर्मि ज़ालिम है।।

ऐसे ज़ालिमों का।

पतन लाज़िम है।।

 

हर घर में हों।

दो बूढ़ी आँखें।।

जो सब को मिलाकर।

परिवार बना दें।।

 

हर इन्सां को।

मेरी हिदायत है।।

के इन की सेवा।

ही ज़ियारत है।।

 

#अश्क??

छोटू

February 20, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

दुबले-पतले,गोरे-काले।
तन पर कपड़े जैसे जाले।।
दिख जाते हैं।
नुक्कड़ पर,दुकानों पर।
ढाबों पर,निर्माणधीर मकानों पर।।

देश में इन की पूरी फौज।
बिना लक्ष्य ये फिरते हैं यहां वहां हर रोज़।।
ज़िन्दगी के पाठ ये बचपन में सीख लेते हैं।
कल की इन्हें फिकर नहीं ये आज में जीते हैं।।

कुछ अनाथ हैं।
कुछ के पास परिवार का साथ है।।
नन्ही सी उम्र में ये परेशान,मजबूर हैं।
देश डिजिटल हो रहा है,ये एनालॉग से भी दूर हैं।।

इनके लिए,ज़िन्दगी एक कठिन सी जंग है।
दिवाली अँधेरी और होली बेरंग है।।
पारिवारिक बोझ ने इनकी आशाओं को धो दिया।
दुनियादारी की होड़ में अपना बचपन युहीं खो दिया।।

ये बेचारे बेबस गुमसुम से रहते हैं।
और इस देश के लोग इन्हें छोटू कहते हैं।।
हमारी से दूर इन्होंने अपनी दुनिया संजोई है।
सपने ये देखते नहीं,उम्मीदें इनकी सोई हैं।।

इतना सब सहकर भी इन्होंने
हिम्मत अपनी खोई नहीं।
मेरी नज़र में इन छोटुओं से बड़ा
पूरी दुनिया में कोई नहीं।।

कागज़ और कलम

February 11, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब आसपास की खट पट

खामोशी में बदलती है।

जब तेज़ भागती घडी की सुइंया

धीरे धीरे चलती है।।

 

दिनभर दिमाग के रास्तों पर

विचारों का जाम होता है।

मन रूपी मेरी तकती पर नजाने

किस किस का नाम होता है।।

 

जब विचारों का ये जाम

हौले हौले  खुल जाता है।

और सर सर करते पंखे का शोर भी

कानो में घुलता जाता है।

तब अचानक कल्पनाओं का

इंद्रधनुष खिल जाता है।।

 

कागज़ और कलम की बातें

तब सुनने में आती हैं।

कागज़ फड़फड़ाता है

कलम इतराती शर्माती है।।

 

बोला कागज़ ऐ कलम-

जो थी मेरी मजबूरी

उसे तुम मुक्कदर समझ बेठी।

मैं तुम्हे सुलझाने आया था

तुम मुझसे ही उलझ बैठी।।

 

तुझसे मिलने को  मैं

कितनी ही बार उखड़ा हूँ।

साथ तेरे कविता ,कहानी

अकेला केवल एक टुकड़ा हूँ।।

 

रहता हूँ पन्नों के बीच

बस इसी इंतज़ार में।

के आकर मेरे पास तू

मेरा जीवन संवार दे।।

 

जानता हूँ आएगी तू पास मेरे

इसलिए मन में रखता हूँ सबुरी।

तेरे बिन हूँ में अधूरा

मेरे बिन है तू अधूरी।।

 

कभी वक़्त मिल जाय तो

मुझे भी याद कर लेना।

मेरे इस कोरेपन को तू

अपनी श्याही से भर देना।।

 

दर्द सहकार भी देख ले

मै चुप ही रहता हूँ।

तू जो लिख देती है मुझ पर

मै बस वो ही कहता हूँ।।

 

कागज़ के बातें सुनकर

कलम के अश्क छलक आय।

कागज़ ने उन्हें संभाल लिया

ताकि मोती बिखर न जाँय।।

 

कलम के आंसुओं से कागज़ पर

एक बात उभर आई।

तूने बुलाया था मुझको

देख ले तेरे पास चली आई।।

 

इस हलकी फुल्की नोक झोंक की

फिर आपस में चर्चा होती है।

और बंज़र पड़े उन दिलों पर फिरसे

प्रेम की वर्षा होती है।।

 

कलम कागज़ की कहानी को

मै कुछ ऐसे कहता हूँ।

और अगर कागज़ हूँ मै तो हाँ

कलम से दूर रहता हूँ।।

 

विचार कीजियेगा???

मस्ती में कूदा मैं मस्ती में झूमा।।

February 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

1452968272010 प्रद्युम्न चौरे


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मेरे पिता मेरी अभिव्यक्ति।।

January 31, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

इस बार बादलो को खोजा हैं 
पहले खुद छा जाते थे 
इस बार  शब्दों को ढूंढा है 
पहले खुद आ जाते थे 

बेतुके से लगने लगे 
अपने ही शब्द 
ये देख कर में रह 
गया अचंभित,स्तब्ध 

इस बार लहरों  को  नहीं 
समंदर को चुना था
इन्होने ही मेरा 
पूरा 

राह उनकी काटों से 
भरी रही 
मगर मन  रूपी घांस 
हमेशा हरी रही 

जीवन में कठिनाइयाँ  आई 
मगर कभी  भी 
गलत राह 
नहीं अपनाई 

जब विशाल पेड़  थे 
तो सबने ली छाया 
कुछ टहनियां क्या कटी 
खुद को  अकेला  पाया 

टेहनियों  के कटने  से 
कमज़ोर नहीं पड़े 
और मज़बूती व्  हिम्मत से 
हर समस्या से लड़े 

विपरीत परिस्थितियों  से 
लड़ने की दम थी 
सम्मान कम मिला 
क्यूंकि हरियाली कम थी 

मन  का सरोवर 
दर्द से भरा होगा 
अकेला ही सारे बोझ 
सेह रहा  होगा 

उस सरोवर की एक बूँद भी 
 उनके चेहरे पर नही  दिखती 
मेरे पिता 
मेरी अभिव्यक्ति 

खुद की इच्छाओं का गला घोंट 
 मेरी तम्मना  पूछते हैं 
मेरे लिए अनेको बार 
खुद से ही झुन्जते  हैं

उनमे है   सहनशीलता  की
अनोखी  शक्ति 
मेरे  पिता  
मेरी  अभियव्यक्ति 

डगमगा जाता हूँ अगर 
आपकी सीखो से संभलता  हूँ 
पैसों  की इस दुनिया में 
मै  संतोष की राह पर चलता हूँ 

मुझसे पहले खुलती है 
मेरे बाद बंद  होती  है 
चमक दमक से भरी वो आँखे 
मुझसे छुपकर रोती  है 

वो कहते है चंद रुकावटों 
से ज़िन्दगी थम नहीं सकती 
मेरे पिता 
मेरी अभिव्यक्ति 

प्रद्युम्न चौरे??

वन डे मातरम्।।

January 26, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

गणतंत्र है हम देश सबका।

आते इसमें हम सारे

हर जाती हर तबका।।

 

सोई हुई ये देशभक्ति

सिर्फ दो ही दिन क्यूँ होती खड़ी।

एक है पंद्रह अगस्त और

दूसरा छब्बीस जनवरी।।

 

देश रो रहा रोज़ रोज़

फिर एक ही दिन क्यों आँखे नम

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्

 

देखो कितना गहरा सबपर

दिखावे का ये रंग चढ़ा।

एक दिन तिरंगा दिल में

अगले ही दिन ज़मीन पे पड़ा।।

 

उठते तो हो हर सुबह

चलो उठ भी जाओ अब तुम

सो रहे हो अब भी अगर तो खा लो थोड़ी सी शरम।

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

सब बातें बोले गोल गोल

सोच कड़वी,कड़वे बोल

एक दिन हो जाते मीठे खा के लड्डू नरम नरम।

अब बंद करदो बंद करदो

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

राष्ट्र ध्वज में तीन रंग

तीन बातों के प्रतीक हैं।

सम्मान करना है इन्ही का

ये जान ले ये सीख लें।।

 

सफ़ेद कहता रखो शांति

साथ दो सच्चाई का।

पर झूठा शान से फिर रहा और

सच्चा मोहताज पाई पाई का।।

 

केसरिया हम सभी को

देता एक उपदेश है।

हिम्मती बनो तुम सारे

बलिदानो का ये देश है।।

 

हरा निशानी समृद्धि का

देता विविधता का ज्ञान है।

मगर भारतीय होने से पहले

लोग हिन्दू-मुसलमान है।।

 

ये रंग हवा में लहरा रहे

इन्हें मन भी फैला ले हम।

चलो बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

देश के हर ज़ख्म का

हमारे पास मरहम है।

इन निहत्थे हाथों में

धारदार कलम है।।

 

रूढ़िवादी खंजरों पर

अब चल जाने दें ये कलम।

चलो बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

दूसरों का इंतज़ार क्यूँ

तुम ही करदो अब पहल।

एक दिन में क्या बन सका है

घर,ईमारत या महल।।

 

याद करलो आज सब

कर्म अपना,अपना धर्म

चलो राष्ट्र निर्माण में बढ़ाये छोटे छोटे से कदम।

अब बंद करदें बंद करदें

ये वन डे वन डे मातरम्।।

 

1947 के बाद से हर दिन देश हमारा था है और रहेगा इसलिए इसके लिए अपने मन में प्रेम,कर्तव्यनिष्ठता और ईमानदारी का भाव सदैव बना रहना चाहिए आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक हार्दिक बधाई।

 

विचार कीजियेगा????

प्रद्युम्न चौरे।।

“वे”

January 21, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आकाश से आती हैं जेसे ठंडी ठंडी ओस की बुंदे।

नन्हे नन्हे बच्चे आते हैं आँखे मूंदे।।

इन बूंदों को सँभालने वाली वो कोमल से पत्तियां।

बन जाती है नजाने क्यों जीवन की आपत्तियां।।

गोद में जिनकी किया इस जीवन का आगाज़ ।

लगती है नजाने क्यों कर्कश उनकी आवाज़।।

दुःख हमारे उनके आंसू,ख़ुशी हमारी उनके चेहरे की मुस्कान।

करते नही नजाने क्यों उनका ही सम्मान।।

हमें खिलाया फिर खाया हमे सुलाकर सोय थे।

खुद की उन्हें फिकर कहा थी वो तो हम में ही खोय थे।।

पता नहीं कुछ लोग किस भ्रम् में रहते हैं।

जिनके सर पर बेठे है उन्हें ही बोझ कहते हैं।।

अरे नासमझ समझदारों बिना किराय के किरायेदारों।

नीचले क्रम की ऊँची सोच वालों मुफ़्त सुविधाओं के खरीदारों।।

ओस पत्ति को ठंडक पहुंचती है न की उसपर अपना अधिकार जताती है।

पत्ति पे बने रहकर ही बूँद अपना अस्तित्व बनती है।

नीचे जो गिर गई तो मिट्टी में मिल जाती है।।

उनका दिल जो झुक गया तो उसका दिल भी दुखता है।

और उसका दिल जो दुःख गया तो पतन फिर न रुकता है।।

उन्हें कर के,खुद चैन से बेठे हो।

ह्रदय को अपने पाषाण बनाय बेठे हो।।

हम लोगों को पोषित किया,सब कुछ उनका गया फिज़ूल।

उनके दिए संस्कारों को हम गये भूल।।

गणेश जी के वो तीन चक्कर याद दिलाते हैं।

तीनो लोक उनके चरणों में आते हैं।।

जो अपने कर्मो से तुम उन्हें खुश कर पाय।

समझ लो के पूरा संसार जीत लाय।।

 

अपने माता पिता का सम्मान करें वही मनुष्य का प्रथम और परम कर्त्तव्य हैं।

प्रद्युम्न चौरे?

माँ

January 18, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

आँखे तुझ पर थम गई जब तुझको बहते देखा।

सोच तुझमे रम गई जब तुझको सेहते देखा ।।

अपनी कलकल लहरों से तूने प्रकृति को संवरा है।

सबको शरण में लेती माँ तू तेरा ह्रदय किनारा है।।

हमे तू नजाने कितनी अनमोल चीज़े देती है ।

और बदले में हमसे कूड़ा करकट लेती है।।

खुद बच्चे बन गए,तुझको माँ कह दिया।

तूने भी बिन कुछ कहे हर दर्द को सेह लिया ।।

तेरे जल में कितने जलचर जलमग्न ही रहते है।

और कर्मकाण्ड के हथियारो से जल में ही जलते रहते हैं।।

पहले तुझमे झांक कर लोग खुद को देख जाते थे।

मन और मुँह की प्यास बुझाने तेरे दर पर आते थे।।

मगर आज जब में पास तेरे आता हूँ।

मन विचलित हो उठता है जब खुद को काला पता हूँ।।

तू रोती भी होगी तो हम देख न पाते हैं।

क्योंकि तेरे आंसू तुझसे निकलकर तुझमे ही मिल जाते हैं।।

इतना सब सहकर भी तूने हमे अपनाया है।

और इसीलिए ही शायद तूने माँ का दरजा पाया है।।

ये फूल ये मालायें सब दिखावे का सम्मान है।

हमे माफ़ कर देना माँ हम नासमझ नादान हैं।।

तू जो चली गई तो तुझे ढूंढेंगे कहाँ।

हमे छोड़कर हमसे दूर कभी न जाना माँ।।

 

Save our lifelines 

Save our rivers…..
??????????

Pradumnrc?

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