
Purav Goyal

कागज पे हालाते-दिल लिखते हुये इक दिन मौत आ जानी है
June 18, 2016 in ग़ज़ल
कागज पे हालाते-दिल लिखते हुये इक दिन मौत आ जानी है
मुझे मरते , तड़पते , बिलखते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
लापता है कई रास्ते मुझ में ,कल रात घर खोने के बाद से
वो गली वो शहर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
ये कोई मौसम ही होगा बारिशो का आँखों की बस्तियों का
नमी दिल की दीवारों से सूखते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
ये क्या हो गया देख दिल को मेरे हर घडी बिमार रहता है
मरिजें-दिल पे कोई दवा लगते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
बो दिया आँसुओ को दिल के सहरा में बस बहार आने दो
जख्मों पे दर्द के फूल खिलते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
जो दर्द है अभी मेरी आहों में है मेरे जख्मो की खलिश में है
लबों की ये खामोशी टूटते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
आ फसा जी के इस जंजाल में जहाँ साँसे बोझ लगने लगी
भीतर यूँ घुट-घुट के मरते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
सो जायेगी तमाम ख्वाइशें मेरे साथ हमेशा हमेशा के लिए
साँसों की थकान दूर करते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
मरने के बाद दर्दे-दिल-पुरव के कई नये नये राज खुलेंगे
तेरा नाम हथेली पर लिखते हुये इक दिन मौत आ जानी है !!
पुरव गोयल
ख़ुदकुशी करने के मैं रोज बहाने ढूँढने लगा हूँ
June 17, 2016 in ग़ज़ल
ख़ुदकुशी करने के मैं रोज बहाने ढूँढने लगा हूँ
जी में रड़क रही है साँसे जैसे मैं मरने लगा हूँ
सीने के जख्मों पे लौट कर कोई बहार आई है
सूना-सूना था भीतर से मैं अब खिलने लगा हूँ
कई बरसों की गर्द जमा थी आज तक चहरे पे
जी भर के जो रो लिया तो साफ़ दिखने लगा हूँ
मुद्दत से लापता है इक शख्स मुझमे ही कहीं
सहरा में दरिया के जैसे खुद को ढूँढने लगा हूँ
आँखों को आखिर कब तक धोखे में रखूँगा मैं
अब जागती हुई आँखो से ख्वाब देखने लगा हूँ
दर्द भरी साँसे भीतर न जाने कौन खिंच रहा है
रूह की तड़प देख के मैं और भी तड़पने लगा हूँ
खो गया न जाने कहाँ खामोशियों के अंदर मैं
चहरे से अब आईने की शनाखत करने लगा हूँ
साँसों का सारा तेल जल चुका पुरव के दिल से
मैं उम्मीदों का इक दिया हूँ जो बुझने लगा हूँ
जी की इस आफत से पीछा कैसे छुडवाऊँ मैं
June 13, 2016 in ग़ज़ल
जी में रड़क रही है साँसे की बस मर जाऊँ मैं
बे-वक़्त के दिले-बीमार आहे किसे सुनाऊँ मैं
मेरे टूटे हुये दिल की अब सदा हो गई हो तुम
इस दर्दे-दिल को अब और कैसे गुन-गुनाऊँ मैं
खैंच-खैंच के आहे-दर्द रोज साँसे लेनी पड़ती है
खुल के इन हालातों में अब कैसे मुस्कुराऊँ मैं
मेरे खाके-दिल में कुछ शरार अब भी बाकी है
जी की इस आफत से पीछा कैसे छुडवाऊँ मैं
चीख रही है भीतर भीतर ख़ामोशी अब मेरे
मासूम से दिल को लोरी पे कैसे सुलाऊँ मैं
आँखों से अब हर घडी मेरे खून टपकता है
ये हलाते-हयात-पुरव अब किसे दिखाऊं मैं
जी की इस आफत से पीछा कैसे छुडवाऊँ मैं
June 13, 2016 in ग़ज़ल
जी में रड़क रही है साँसे की बस मर जाऊँ मैं
बे-वक़्त के दिले-बीमार आहे किसे सुनाऊँ मैं
मेरे टूटे हुये दिल की अब सदा हो गई हो तुम
इस दर्दे-दिल को अब और कैसे गुन-गुनाऊँ मैं
खैंच-खैंच के आहे-दर्द रोज साँसे लेनी पड़ती है
खुल के इन हालातों में अब कैसे मुस्कुराऊँ मैं
मेरे खाके-दिल में कुछ शरार अब भी बाकी है
जी की इस आफत से पीछा कैसे छुडवाऊँ मैं
बे-वक़्त
June 13, 2016 in शेर-ओ-शायरी
जी में रड़क रही है साँसे की बस मर जाऊँ मैं
बे-वक़्त के बीमार दिल ले के किधर जाऊँ मैं

आँखों में अब आंसू छिपाना कितना मुश्किल है
June 11, 2016 in ग़ज़ल
आँखों में अब आंसू छिपाना कितना मुश्किल है
जो रडकते है उनको बहाना कितना मुश्किल है !!
साँसों पे लिख लिया तुझको मैंने आयत की तरह
तक़दीर का ये लिखा मिटाना कितना मुश्किल है !!
न ख़ुशी महसूस होती न कोई गम महसूस होता
भीतर चोट हो तो मुस्कुराना कितना मुश्किल है !!
बनते बनते बिच में ढह जाती है ख्वाबो की हवेली
आँखों की अब नमी सुखाना कितना मुश्किल है !!
बदन पे निकल आये काँटे देख किस मौसम मे
हर ज़ख्म हरा है ये दिखाना कितना मुश्किल है !!
दिल के भीतर ये सब टुटा फूटा सब पुराना है
घर आये मेहमां को ठहराना कितना मुश्किल है !!
ख्वाईश की तितलियों के पर लहू-लुहान से है
बाहरों का उजाड़ा बसाना कितना मुश्किल है !!
कागज़ के कलेजे पे लिखता है पुरव जिगरे-लहू से
हाल-ए-दिल गजल में सुनाना कितना मुश्किल है !!
पुरव गोयल

तेरे ये होंठ जानते है , मेरी सब हसरतें
June 10, 2016 in ग़ज़ल
होठों को होठों से यूँ तुम दबाते क्यूँ हो
बेचैनियां मेरी रोज यूँ तुम बढ़ाते क्यूँ हो ।।
तेरे ये होंठ जानते है , मेरी सब हसरतें
अगर बेखबर हो ,तो तुम शर्माते क्यूँ हो ।।
मुझ से आने लगी तेरी साँसों की खुशबु
हथेलियो में मेरा नाम यूँ लिखाते क्यूँ हो ।।
ये इश्क़ नहीं तुम को तो और ये क्या है
किसी ने टोका नहीं, यूँ मुस्कुराते क्यूँ हो ।।
हो के परेशान पढ़ने लगते हो क्यूँ आयते
हिचकियों से तुम , इतना घबरातें क्यूँ हो ।।
कैसी साजिश है मेरे क़त्ल की ए क़ातिल
नजर मिला के फिर नजरें यूँ चुराते क्यूँ हो ।।
है इश्क़ तो खुल कर इजहार कीजिये ना,
रोज मेरी किताब में गुलाब छिपाते क्यूँ हो ।।
खोले नहीं ख़त तुने मेरे अगर आज तक
तो बता ग़ज़ले-पुरव फिर गुनगुनाते क्यूँ हो ।।
पुरव गोयल
बच्चों के स्कूल जाते ही सूना घर ,घर को खाता है
June 10, 2016 in ग़ज़ल
बच्चों के स्कूल जाते ही सूना घर ,घर को खाता है
ख़ुशी से मुफलिसी का बेटा कहाँ कारखाने जाता है !!
भूख तोड़ देती है इक-इक ख्वाईशों के सब खिलौने,
कोई पत्थर तोड़ता है,कोई अखबार बाँट के आता है !!
न धुप लगती न मासूम बदन पे कभी बरसात लगती
सर पे कई जिम्मेदारियाँ ओढ़ के वो बाज़ार जाता है !!
दुकानें ताक के लौट आती है घर आँखों की हसरतें
बिन माँ बाप के बस,बेचारियाँ खरीद के घर लाता है !!
देख के मेरी इस बेबशी पे ,रूहे – पुरव रोने लगती है
तितली जैसे परो पे जब ईंटों का कोई बोझ उठता है !!
पुरव गोयल
आसमां ये मुझे कभी खरीद नहीं सकता मैं पाँव हमेशा जमीं पे टी’काके रखता हूँ ।।
June 10, 2016 in ग़ज़ल
जिंम्मेदारियों का बोझ मैं उठा’के रखता हूँ
मेले में बेटे को काँधे पे बिठा’के रखता हूँ ।।
आसमां ये मुझे कभी खरीद नहीं सकता
मैं पाँव हमेशा जमीं पे टी’काके रखता हूँ ।।
रखते होंगे बेशक,दिल में लोग दुश्मनी
मगर मैं फिर भी सबसे बना’के रखता हूँ ।।
है ख्वाईशें मेरे दिल में भी बहुत दोस्तों
मगर मैं पाँव चादर तक फैला’के रखता हूँ ।।
मिलती है मेरी कमाई में बरकत यूँ मुझे
पूरी तनख़्वाह माँ के हाथ में ला’के रखता हूँ ।।
उतारती है ज़िंदगी मुझे भी कसौटियों पे
हर हाल में ईमान,अपना बचा’के रखता हूँ ।।
लोग तकते है मेरे आँगन में दीवार खींचे
भाई कुछ भी कहे नज़र झुका’के रखता हूँ ।।
महक आज भी ईंटों से आती है,पसीने की
बुजुर्गों की यादें मैं सीने से लगा’के रखता हूँ
जानता हूँ दुश्मनी का,बस ये इक नतीजा
“पुरव” कब्र के बराबर कब्र बना’के रखता हूँ ।।
पुरव गोयल
ज़िन्दगी खफा है अब मनाऊँ किस तरह
June 10, 2016 in ग़ज़ल
ज़िन्दगी खफा है अब मनाऊँ किस तरह
दिल पे चोट है अब मुस्कुराऊँ किस तरह
चोट कोई अंदर है जिससे टिस उठती है
चिर से दिल दर्द अब दिखाऊँ किस तरह
आँखों के तलवों निचे,काई जमी रहती है
आँसुओं को आँखों में छिपाऊँ किस तरह
न सोता है न चैन से मुझे सोने देता है
दिल को अपने अब बहलाऊँ किस तरह
जल जल के हिज्र में दर्द खीरा हो गया
भीतर लगी आग को बुझाऊँ किस तरह
दिल तो सीने से “पुरव” निकलता नहीं
दर्द-ए-दिल ग़ज़ल में सुनाऊँ किस तरह
आँखों की दीवारों में नमी अब बैठने लगी
June 10, 2016 in ग़ज़ल
आँखों की दीवारों में नमी अब बैठने लगी
भीतर की सब कच्ची , दीवारे ढहने लगी !!
दर्द से अश्क़ो की मौजें , जब तड़पने लगी
दुखती हुई रग दिल में और भी दुखने लगी !!
तपती हुई आहे – दर्द जला ना दे दिल कहीं
साँसे लेके तेरा नाम,तुझे सजदा करने लगी !!
आने लगा जी में जी , साँसों को साँसे जैसे
मेरे जख्मो पे जब तेरी तस्वीर उभरने लगी !!
फलक के दामन पर मातम सा छाने लगा
निकल के दर्दे-दिल से सदा जब गूंजने लगी !!
इक शख्स को तड़पता देख के मेरे भीतर
मौत भी मेरी मौत के अब लम्हे गिनने लगी !!
रोया है दर्द-ए-दिल कागज पे पुरव अपना
लोगो की नजर जिसे ग़ज़ल समझने लगी !!
क्या फर्क है
June 10, 2016 in शेर-ओ-शायरी
इक सी तहरीरें है गीता-ओ-क़ुरान में
क्या फर्क है हिन्दू और मुस्लमान में ।।
खाकी – खद्दर पहने हुये , इंसान बिकने लगे
June 8, 2016 in ग़ज़ल
खाकी – खद्दर पहने हुये , इंसान बिकने लगे
कोडियों में यहाँ लोगो के,ईमान बिकने लगे ।।
कही मुर्दे तो,कही आज शमशान बिकने लगे,
चदरों पे खुदा,पत्थरो में भगवान बिकने लगे ।।
सब की सब इन सियासी लोगो की चाले है,
कहीं पे हिन्दू तो ,कही मुस्लमान बिकने लगे ।।
चिमनियों का धुँआ,अब आवाज लगाता नहीं,
घर से मुफलिस के , अब सामान बिकने लगे ।।
तितलियाँ सर पटक रोने लगी,उजड़े चमन पे
कागजी फूलो के लिए , गुलदान बिकने लगे ।।
रिश्तों की तमाम दीवारों पे धूल जमी देखी है,
थोड़ी सी दौलत देख कर ,मेहमान बिकने लगे ।।
मजबूरियों ने बना दिया, बाज़ारू मासूम को,
कोठो पे बड़े-बडे शरीफों के,ईमान बिकने लगे ।।
माँ अपने बेटे की जिद के आगे , यूँ हार गई
चूड़ी , कंगन हो कर जेवर परेशान बिकने लगे ।।
खुशियाँ भी पुरव गरीब के,घर गम लेकर आई
बेटीयों के जेवर खातिर , मकान बिकने लगे ।।
तेरी याद आई और मेरा रोजा टूट गया
June 8, 2016 in ग़ज़ल
ज़िंदगी मुझसे मैं ज़िन्दगी से ऊब गया
रख के जहन में तुझे , मैं तुझे भूल गया !!
वो शहर वो गली वो रास्ते सब वही पे है
लेकिन छोड़ में मुझे तनहा वो दूर गया !!
समुन्दर तमाशा , मौत का देखता रहा
मैं सहरा की आवारा मौजो में डुब गया !!
भीतर की ख़ामोशी में कैद थे , सन्नाटे
आह भरी तो सारा हाले-दिल खुल गया !!
खैंच – खैंच के आहे दम भर रही है साँसे
काँटा जैसे कोई रूह के भीतर चुभ गया !!
रोते रोते लिखा था इक अशआर में तुझे
तहरीर यूँ की यूँ रह गई , नाम धुल गया !!
हादसा अब के रमजान फिर से वही हुआ
तेरी याद आई और मेरा रोजा टूट गया !!
भीतर से पुरव फुट – फुट के रोने लगा
गमनाक देख के जब वो हाल पूछ गया !!
ज़िन्दगी में तजुर्बों की इक किताब रख
June 8, 2016 in ग़ज़ल
ज़िन्दगी में तजुर्बों की इक किताब रख
चेहरे देख परख और उनका हिसाब रख !!
मुझे बे-घर कर दिया नींद के फरिश्तों ने
सूनी आँखों पे पहले तू कोई ख्वाब रख !!
खुद ही खुद को लिख रहा हूँ खत कब से
मेरे खतों के कभी तो तू कोई जवाब रख !!
भीतर से मैं आज भी बच्चा ही हूँ बहला ले
लाकर हथेली पे मेरी कभी माहताब रख !!
मेरे अंदर झाँक कर,अंदर से देख मुझको
कभी काँटों के बिच तू कोई गुलाब रख !!
पढ़ लेंगे लोग चेहरे से हाल-ए-दिल सारा
पुरव आँखों में तू आँसुओ का सैलाब रख !!
पुरव गोयल
आँखों में दर्द की मौजे अब मचलने लगी
June 8, 2016 in ग़ज़ल
आँखों में दर्द की मौजे अब मचलने लगी
साँसे ही मेरी अब साँसों को चुभने लगी
जब से रुत-ए-बाहर तेरी यादों की आई है
जर्द आँसू टूट के आँखें अब उजड़ने लगी
न जाने कौन है मेरे भीतर जो तड़पता है
आहे जिसकी अब कागज पे बिखरने लगी
दर्द जब से सीने में करवटे बदल रहा है
दिल की उदासी अब चहरे पे दिखने लगी
लम्हों को गुजरे हुए कई कई साल हो गये
मेरी धड़कने अब दिन आखरी गिनने लगी
न जाने कौन सा मौसम है मेरी आँखों में
पलकों के निचे जो इतनी काई रहने लगी
ख़ुद ही ख़ुद को लिख रहा हूँ ख़त जब से
तंग हालत पे तहरीरें-पूरव बिलखने लगी
पुरव गोयल
सीने में ज़ख्म गहरा दिखाई देता है
June 8, 2016 in ग़ज़ल
पानी आँखों में ठहरा दिखाई देता है
सीने में ज़ख्म गहरा दिखाई देता है
अजीब दर्द लिए फिर रहा हूँ सीने में
पुराना है मगर हरा दिखाई देता है
घर की हर बात सुर्ख़ियों में रहती है
किसी का घर पहरा दिखाई देता है
रोता हूँ देख के हालात अब अपने
आईने में तेरा चेहरा दिखाई देता है
घबरा के छिप जाता है अंधेरों में
साया मुझे डरा-डरा दिखाई देता है
ज़िंदा है इसलिए की बाकी जान है
भीतर से पुरव सहरा दिखाई देता है