
राजेन्द्र मेश्राम-नील
इक नई कहानी
November 25, 2020 in गीत
#सुप्रभात_मित्रों
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नवभाव लिए
है गीत मेरा,
याद रहे यह, तुम्हें जुबानी
मैं लिखता हूँ उम्मीद भरी,
इक नई कहानी |
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हो मस्त मगन,
लें चूम गगन,
उर में उठती, लहर सुहानी |
मैं लिखता हूँ उम्मीद भरी,
इक नई कहानी |
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जो है दलदल,
कर दूं मखमल,
बंजर भू-सी, रीत पुरानी |
मैं लिखता हूँ उम्मीद भरी,
इक नई कहानी |
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ये लक्ष्य तेरा,
तू भेद जरा,
हो राह भले, दृढ़ अनजानी |
मैं लिखता हूँ उम्मीद भरी,
इक नई कहानी |
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श्रम के निर्झर,
झरते झर-झर,
हो जाये मन, निर्मल पानी।
मै लिखता हूँ उम्मीद भरी,
इक नई कहानी।।
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रचना-#राजेंद्र_मेश्राम_नील*
फिर क्या जीना फिर क्या मरना
August 17, 2020 in गीत
rajendrameshram619@gmail.com
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जलने दो हृदय की वेदना,
विचलित मन से कैसे डरना |
हो जीवन संताप दुखों का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
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युद्ध अनघ है मन के भीतर,
परितापों से प्राण पिघलते |
दूर करो असमंजस बादल,
मन पावक में कैसे जलते ||
धार बढा दो पराक्रमी तुम,
कुरुक्षेत्र सा जीवन लड़ना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
~~~~~00000~~~~~
तुम में ज्वाला सूर्य सरीखी
हेतु धर्म तुम जल सकते हो |
पीर पराई थोड़ी समझो,
कष्ट दूर सब कर सकते हो ||
फिर पुण्य मिले कुछ नही मिले,
दीपक बनकर पथ पर जलना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
~~~~~00000~~~~~
आनंद स्वतः मिल जाएगा,
हो दूर निराशा की बातें |
अपने दीपक तुम स्वयं बनो,
दूर करो अंधेरी रातें ||
कटु वचनों का बोझा लादे,
शुष्क हँसी फिर कैसे हँसना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
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रचना-राजेन्द्र मेश्राम “नील”
अपने लहू से
August 17, 2020 in गीत
समस्त देशवासियों को
#स्वतंत्रता दिवस की 74 वी वर्षगांठ पर हार्दिक मंगलकामनाएँ
राजेन्द्र मेश्राम-नील
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अपने लहू से तर,
धरा का शृंगार कर,
सोई हुई चेतना को,
इतना तो भान दे |
भावी वर्तमान भूत ,
सब को बिसारकर ,
कर तू नवल काज ,
देश को उत्थान दे |
फूंक दे प्राणों में प्राण ,
है हो गए जो निष्प्राण ,
उनके हृदय चित्त ,
उर स्वाभिमान दे |
जन्मदायिनी जो मेरी ,
मातृभूमी भारती है,
विजयी पताका नभ ,
छोर तक तान दे |
रचना-#राजेन्द्र_मेश्राम_नील
नही मिलते
December 16, 2019 in ग़ज़ल
ये रास्तें है कैसे हमसफ़र नही मिलते,
छूट गए जो पीछे उम्र भर नही मिलते!
सूख चूके है उनके दीदार के इंतजार में,
हरे-भरे अब ऐसे शजर नही मिलते!
तार-तार होते रिश्तों पर खड़ी दीवार हो गई,
मोहब्बत हो जहां अब ऐसे घर नही मिलते!
एक दूजे की मुसीबत में काम आए कोई,
दरिया दिल लोग अब मगर नही मिलते!
मिल जाये ठिकाना इस उखड़ती सांस को,
न गांव मिलते है अब और शहर नही मिलते!
वक्त की भीड़ में न जाने रातें कहाँ खो गई,
चैन की नींद मीले ऐसे पहर नही मिलते !
दिखावे की चाह ने आखिर वृद्घालय ढूंढ ली,
तभी तो “नील”बुजुर्ग महलों पर नही मिलते!
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स्वरचित-राजेन्द्र मेश्राम “नील”
कहीं खामोश लम्हा है
December 16, 2019 in ग़ज़ल
कहीं खामोश लम्हा है,कहीं ये शोर कैसा है,
कहीं पर शाम मातम की,ये सुख का भोर कैसा है!
कहीं मासूम जलते है ,पिघलते मोम के जैसे,
सियासत का कहीं झगड़ा,बढ़ा हर ओर कैसा है!
कहीं दुत्कार, नफरत है,कहीं विषदार ईर्ष्या है,
दिखावे का कहीं देखों,धुँआ घनघोर कैसा है!
कहीं जज्बात जलता है,हमारा शुष्क पत्तों सा,
कहीं रोना कहीं हंसना,दिखाना चोर कैसा है!
बड़ा अफसोस है मुझको,ये ताकत खो रहे है हम,
बना है खून अब पानी, ये खुद पर जोर कैसा है !
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रचना-राजेन्द्र मेश्राम “नील”