by Anupam

मृगतृष्णा

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

रेत सी है अपनी ज़िन्दगी
रेगिस्तान है ये दुनिया,
रेत सी ढलती मचलती ज़िन्दगी
कभी कुछ पैरों के निशान बनाती
और फिर उसे स्वयं ही मिटा देती,
कांटों को आसानी से पनाह देती
फूलों को ये रेत हमेशा नकार देती,
जो रह सकता है प्यासा उसे रखती,
बाकियों को मृगतृष्णा में उलझा देती।
दूर तक भी कोई नहीं नजर आता
रेत ही रेत में सब ओझल हो जाता,
प्यास से जब मन बावला होता है,
हर मृगतृष्णा उसे अपना पराव लगता है,
और एक कोने से दूसरे कोने भागते हुए
रेत में ही रेत दफन हो जाता है,
रेगिस्तान राज यूं ही चलता है
हर रोज़ कई कहानियों को रेत में कैद कर
अपने राज्य की शान बनाए रखता है।
©अनुपम मिश्र

by Anupam

समन्दर

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

समन्दर का वो किनारा साथी है हमारा,
जहां बैठ घंटों है वक्त हमने गुजारा,
जैसे कि उनसे सदियों से नाता हो हमारा,
बहुत बार तो मिलना नहीं हुआ है
पर एक अनोखा रिश्ता सा कायम रहा है,
मिलन का अनुभव हर बार उम्दा ही रहा है;

उसकी लहरे खूब बतियाती हैं पास आके,
कहती हैं, “आना जाना तो लगा रहेगा यूं ही,
वक्त भी चलता रहेगा हर आने जाने के साथ ही,
फिर भी, हर गमन पर दुख होगा उतना ही
जितना की आगमन पर अपरिमित खुशी होगी,”
इस सांसारिक नियम का अलग ही आनंद है,
जिसमें जीवन के हर रस रंग की अनुभूति होती है,
वो रंग आसमान के रंग से साफ़ या दुधीले,
लाल, नारंगी, सतरंगी, बदरंगी, या नीले
और कभी बादलों से घिरे काले रंग जैसे ही होते हैं,
जिन रंगों में जीवन के अलग अलग आयाम मिलते हैं,
वो दिल में आस व उमंगों को गतिमान रखते हैं,
येे उमंगे अग्नि के उस गोले सरीखे होते हैं
जो उसी आंधी से धधक उठते हैं
जो कभी उन्हें बुझा दिया करती हैं;
आरजू है बस इतनी सी,
इन लहरों की तरह ही गतिमान रहूं हमेशा ही,
चाहे आंधी आए कैसी भी।
©अनुपम मिश्र

by Anupam

पिंजरे में कैद पंछी

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

किसी पिंजरे में कैद पंछी की तरह
जैसे हमारा मन भी कैद हो गया है,
सामने खुली चांदनी नजर आती है
पर चार दिवारियों के बाहर नहीं निकल पाती,
कुछ रस्मों की दीवारें हैं
कुछ मर्यादाओं की रेखाएं हैं
और कुछ ऊसूलों की सलाखें हैं
जिनको तोड़कर जाने की उम्मीद नहीं
बस देखकर सुकून मिले अब वही सही,
ऐसा नहीं कि भीतर जोश या हिम्मत नहीं
पर यह सोचकर हूं मन को बांध लेती
कि जब इस पंछी का अंत निश्चित है ही
फिर क्यूं इसे खुले में छोड़ना कभी,
येे बावला तो देख लेता है कभी भी कुछ भी
और चाहता है कि सब मिल जाए उसे यहीं,
बेहतर है कि ये पिंजरे में बंद रहे यूं ही
पता नहीं फट पड़े कब कौन सी ज्वालामुखी।
©अनुपम मिश्र

by Anupam

मैं हिन्दी हूं

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं हिन्दी हूं
भारत की भक्त हिन्दी,
संस्कृत मेरी जननी
जिसमें अंकित है संस्कृति,
उस संस्कृति की अब मैं उत्तराधिकारणी,
उद्धरित हुई मेरे संग कई और बहने भी,
उर्दू, पंजाबी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी,
हरियाणवी, गढ़वाली व दक्खिनी,
पर बस गई सब अपनी नगर में ही,
मैं ही कहीं एक जगह न बैठी रही,
भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक चलती रही,
देश को एक कोने से दूसरे तक जोड़ती रही,
प्रेम के पैगाम अपने संग लेकर चलती रही,
सब अपनाते गए मुझे, अपने हिसाब से बदलते रहे,
मैं हर भाषा को खुद में ढालकर खुद को निखारती रही,
हर प्रान्त से कुछ लेकर उसे देश को समर्पित करती रही,
खड़ी बोली से शुरू होकर अब तक उसी प्रयत्न में रही,
कि भारतवर्ष को एक लड़ी में पिड़ो कर बढ़ती रहूं,
हजारों वर्ष का सफ़र मैं यहां तय कर चुकी
पर अफसोस की मेरी इज्जत मेरे अपनों ने ही नीलाम की,
न जाने क्यूं मेरे साथ से उनका ओहदा कम होने लगा,
मुझे एक एक कर कितनों ने ही त्याग दिया,
मेरी जगह अपने शोषकों की भाषा तक को अपना लिया,
मुझे अपनाने में उन्हें शायद गुलामी का बोझ याद आ गया
तभी तो दो सौ वर्ष के उन अत्याचारी साहबों को अपना बना लिया,
और मुझे अपनी जिंदगी से दरकिनार कर दिया,
अपने ही देश में आज मेरी दशा गुलाम भारत सा कर दिया,
देशी को फ्लॉप और विदेशी को हीरो बना दिया,
अब भी एक आस है, कोई तो मेरा सही परिचय दे दे,
नई पीढ़ी को कोई तो मेरा इतिहास भी बता दे,
मुझे कफ़न ओढ़ाने से पहले कोई
नई पीढ़ी को मेरा असली चेहरा तो दिखा दे,
जो आज मुझे बकवास समझ कर मुझे देखता भी नहीं,
मेरी रचनायें तो दूर, मेरी लिपि तक को समझता भी नहीं!
©अनुपम मिश्र

by Anupam

पाखंड

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

अजीब नौटंकी लगा रखी है जमाने ने
मेरी विकलांगता पर खुल के हंसते हैं
और अपनी कमी को दिन रात रोते हैं;
गिर पड़ी जब ठोकर खाकर पत्थर से
अंधा बताकर हमे मज़े लेते रहे खूब वे
पर जब खुद अंधे हुए धूल में चलने से
अपने आप को गमगीन बेचारा बताते रहे।
©अनुपम मिश्र

by Anupam

दर्द का उम्र

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

जीवन के इस सफर में टूटी हूं कई बार,
घायल होकर दर्द में तड़पी हूं कई बार,
पर हर दर्द का अपना हिसाब रहा,
कोई बस तन पर एक दाग बन जमा रहा,
और कोई टीस बनकर हृदय में चुभता रहा;
कभी किसी पत्थर से हुई हमारी टकरार
कभी घायल हुई लगके चाकू की नुकीली धार,
गिरी हूं कई बार सीखते हुए सायकल सवार
छलनी हुआ था बदन जब बसा था मेरा संसार,
पर इन क्षणिक दर्दों का नहीं कोई भार,
इनसे तो आई थी जीवन में हमारे बहार,
उमर पड़ा था जैसे हर तरफ प्यार ही प्यार,
पर कुछ दर्द ऐसे मिले जिनमें न हुआ कोई प्रहार
और न हुआ कोई जख्म भीतर या बाहर,
बस उनका हम पर कुछ ऐसा हुआ असर,
कि हम टूट कर गए कई टुकड़ों में बिखर
और जब उठ खड़े हुए होश संभालकर
तब हुई इस बात की हमें खबर
कि उन चोटों की कोई खास न रही उम्र
जो सिर्फ जिश्म पर जख्म बन कर लगे
पर कुछ शब्द बाण और कुछ मौन बाण,
इतने नुकीले निकले कि दर्द अब भी ताज़ा है,
उन चोटों की उम्र मेरी उम्र से ज्यादा है!
©अनुपम मिश्र

by Anupam

संभव-असंभव

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

सोच रही हूँ डालने को बालू समंदर में

ताकि राह खुल जाये मुसाफिर की;

अजीब दास्ता है ये, हो सकता नहीं ये संभव,

पर है ये दुनिया असंभव को संभव करने वाली,

हर सपने की है इसके पास चाभी निराली,

लोगों ने तो चाँद मंगल तक की राह बना ली

तो अब तो बस सपने देखने की ही थी देरी,

क्या पता कब कौन सी चाभी हाथ लग जाये!

©अनुपम मिश्र

by Anupam

अधूरापन

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

पूर्ण समृद्ध न तो मैं हूं और न ही कोई अन्य,

सर्वज्ञ तो इस जहाँ में कोई भी नहीं,
हर किसी में कुछ न कुछ रिक्तता है जैसे,
किसी भी ह्रदय का ज्ञान सम्पूर्ण नहीं,
और वही खालीपन उसे प्रेम करना सिखाता है;
उस रिक्तता की पूर्ति को वो दिन रात भटकता है,
जो उस खालीपन को दूर करता सा लगता है,
हृदय उस साधन में तल्लीन सा हो जाता है,
और उसे अपना अभिन्न हिस्सा मान लेता है;
इस दीवानगी में कई बार ऐसा भी होता है,
मरीचिका के पीछे ह्रदय स्वयं स्वत्व को भूल जाता है,
आजीवन उससे जुड़ने की आस में भटकता रहता है,
और अधूरे प्रेम के प्यास से दम तोड़ देता है,
जो ह्रदय की गति को बाधित करे वो प्रेम कैसा!

यदि यही सत्य है कि पूर्ण इस जहां में कोई नहीं
फिर अपने अधूरेपन को क्यों बोझ मान जीए,
खेतों में पलने वालों को पेट की भूख है,
भरे हुए पेटों को स्वर्ण महलों की भूख है,
महलों में रहने वालों को शांति की भूख है,
और शांति बेचारी हर जगह होकर भी
हर किसी से अजनबी बन कर बैठी है,
जिस दिन अपने अधूरेपन को स्वीकार लिया,
उसी दिन सुख शांति से परिचय तय है,
तो क्यूं न इस अपूर्णता को संजोए हम कहीं,
और एक दूजे को पूर्ण करे हम बस यूं ही,
चाहत होती है बस सबसे वह वही सुनने की,
पर असल में आगे बढ़ाता है हमे वही,
जो अधूरेपन से परिचय कराये कभी।
©अनुपम मिश्र

by Anupam

पल दो पल के शायर

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हैं बहुत यहाँ एक से बढ़कर एक,
है काबिलों की बस्ती ये जहाँ ,
हैं कितने ही माहिर आये यहाँ
और आकर चले गए न जाने कहाँ,
कोई रहा कहाँ एक वक़्त जीकर यहाँ,
हर किसीको आकर फिर जाना ही पड़ा,
चाहे वो कितना भी माहिर क्यों न रहा!

पल दो पल के शायर
दो शब्द सुनते हैं
और दो शब्द कह जाते हैं
पर उन्हीं चंद शब्दों में
ज़िंदगी के कई मायने दे जाते हैं,
वो किसी पुष्प का निराला रंग हो
या अनछुआ सा कोई रस या गंध हो,
चंद शब्दों में वो कितना कुछ पिड़ो जाते हैं!

© अनुपम मिश्र

by Anupam

समानता क्या है?

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

धूल, कंकड़, पत्थर, पहाड़ सबकी अपनी शान है,

अपना मान है; हवा, जल, अग्नि सबकी अपनी पहचान है,

कौन किससे भला समान है?

समान कुछ नहीं यहां सबका बस अपना स्थान है

छोटी सी झोपड़ी हो या ऊंची महल अटारी

नहीं वो किसी समानता के अधिकारी

पर दोनो का एक ही प्रयोजन है,

अब भला नर हो या नारी

दोनो की अपनी अपनी जिम्मेदारी,

इसमें समानता असामनता की बात क्यूं आई?

दोनो मिलकर ही तो सजाते जग की क्यारी

अब जलाए अग्नि या बुझाए जल,

जलाए जल या बुझाए अग्नि

सबकी करनी अपनी अपनी,

इससे क्या फर्क पड़ता है कि

वो कौन से जिस्म में रहता है

फल तो सब कर्मों के ही भोगता है।

©अनुपम मिश्र

by Anupam

शुरुआत जरूरी है

October 5, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

हो चाहे कैसी भी घड़ी,
आंधी तूफ़ान की लगी हो लड़ी,
या मन को झुलसा रही हो अग्नि,
डर हो यदि आगे हार जाने की,
या फिर अपना सब खो देने की,
शुरुआत जरूरी है;

महल खड़ी करने को,
नीव बेहद जरूरी है,
मीठे फल खाने को
बीज बोना जरूरी है,
अँधेरे को बुझाने को,
लौ जलाना जरूरी है!

बस पहला कदम जो ले लिए
आगे कदम बढ़ते जायेंगे
हर कांटे पत्थर को पार करते जायेंगे,
अँधेरे राहों में भी रौशनी धुंध लेंगे,
बस वो पहला कदम जरूरी है
वो शुरुआत जरूरी है!

©अनुपम मिश्र

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