बीड़ी की बास

May 24, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

कुछ स्वप्न
ममतत्व के,
कोमल भावनाएँ,
कोमल अटूट बंधन
और इन सबके बीच,
अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट।
अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट की
ऊट-पटांग अबूझ भाषा
सिर्फ
सफ़ेद चोगे वाले ही समझते हैं।
ठीक ही है
समझ लेते हैं,
पर जब ये समझ
दिमाग से जुबान का सफ़र
तय कर
ले लेती है
शब्दों का आकार,
तो ठीक उसी वक़्त
वैसे ही, तत्काल, तत्क्षण
दरकने लगते हैं-
ममतत्व के कोमल अटूट बंधन
भरभरा उठते हैं स्वप्न;
ढह जाती है ममता
और कलुषित हो उठती हैं
कोमल भावनाएँ,
उसकी कोख़ से उसे
सुलगती हुई बीड़ी सी
गंध आने लगती है।
प्रकृति को मंज़ूर नहीं कि वो
अपने जैसी प्रकृति को जन्म दे।
प्रदूषित लगने लगती है
वो कोख़ एकाएक,
अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट के बाद,
और
उसका दम घुटने लगता है।
वैसे भी
बीड़ी की गंध से उसे ऊब होती है।
कोख़ का प्रदूषण दूर करना
जरुरी हो जाता है
इसलिए,
कोख़ का प्रदूषण, कचरा, गरल
कोख़ से निकालकर
बहा दिया जाता है
गटर के रास्ते।
उसे संतोष होता है कि चलो
उसकी कोख़ से अब
बीड़ी की बास तो नहीं आएगी।
वैसे भी
ऊब होती है उसे,
बीड़ी की बास से।

चश्मे

May 23, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक के ऊपर एक
परत-दर-परत चढ़े होते हैं,
आँखों पर तरह-तरह के चश्मे।
पर, न तो
नाक पर उनके
वजन का अहसास होता है;
न ही कानों पर उनका बोझ;
इसीलिए वो समझ नहीं आते
पता ही नहीं चलते
बोध ही नहीं होता
चढ़े रहते हैं ये चश्मे
एक के उपर एक
गुरुर बनकर।
पर दूसरों के चश्मे
सहज ही दिख जाते हैं,
और हम
सहन नहीं कर पाते
दूसरों की आँखों पर चढ़े चश्मे
और तत्पर हो जाते हैं
उतारने को
दूसरों के चश्मे।
किसी और का चश्मा हटाकर,
एक चश्मा और चढ़ जाता है
हमारी आँखों पर।
गुरुर होता है कि आज
एक चश्मा उतार दिया
चढ़ा था जो उसकी आँखों पर
उसका गुरुर बनकर;
और इस गुरुर में
चढ़ जाता है
एक और चश्मा,
हमारी आँखों पर।
पर जब दिखते हैं चश्मे
चढ़े हुए दूसरों की आँखों पर
तो क्या?
वो सचमुच होते हैं उन आँखों पर
क्या वो सचमुच नज़र आ रहे हैं
या फिर
है ये हमारी आँखों पर चढ़े
चश्मों की नज़र का ही भ्रम?
क्या देख पाते हैं हम
हटाकर परे
अपनी आँखों पर चढ़े
सारे चश्मे?
क्या देख पाते हैं?
एक निर्दोष निरपेक्ष दृष्टि के साथ;
या फिर
वो चश्मे दिखते हैं तब
जब प्रकाश की किरण
विपथित हो चुकी होती है
चश्मों के लेंस से गुज़रकर,
लेंस के पदार्थ की
प्रकृति के अनुसार?
जैसे जिस तरह से
विपथित या परावर्तित
वैसे ही नज़र आने लगते हैं
उन चश्मों से चेहरे।
पर क्या?
इन चश्मों से छुटकारा
संभव है पाना,
वो जो ढलते गए हैं
शनैः शनैः
पहले
नाक, आँख, कान
और फिर
पूरे व्यक्तित्व के साथ।
क्या संभव है?
हटा पाना उन चश्मों को
जो कभी दिखते नहीं
जबकि होते हैं
हमारी नाक पर,
ठीक वैसे जैसे
दिखता नहीं कभी भी
जबकि होता है स्थिर
गुस्सा किसी की नाक पर।
प्रार्थना करता हूँ कि
छूट जाएँ ये
पर डरता हूँ कि
इन चश्मों के छूटने के साथ,
इस चश्मा चढ़ी दुनिया में
कहीं मैं अलहिदा न छूट जाऊँ;
इसीलिए, नहीं छूट पाते
ये चश्मे
क्योंकि
सच्चे दिल से ये प्रार्थना करना
नहीं संभव हो पाता है, सच में।
छोड़कर मुझे,
दिखते हैं सभी को
मेरे चश्मे,
इसीलिए कभी-कभी
उतर जाते हैं ये
जब कोशिश करता है
कोई और मेरे लिए;
चाहे कुछ पल के लिए ही
या फिर तब जब
गड़ने लगते हैं ये
खुद की ही नाक पर
होने लगती है चुभन
इनकी वजह से आँखों में,
जब कभी
मैं ही रख देता इन्हें
नाक से उतारकर
ताक पर।
और तब दिखते हैं
ताक पर रखे हुए
नाक से उतरे हुए
ये चश्मे।

बलिदानी सिपाही

May 20, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

बलिदानी सिपाही

शूल सी चुभती हृदय में
उस शिशु की चीत्कार है,
जनक जिसका है सिपाही,
करता वतन से प्यार है ।
जो अपनी मातृभूमि के सदके
जान अपनी कर गया,
श्रृंगार-रत नवयौवना को
श्वेत वसन दे गया;
वतन की मिट्टी की खातिर
जिसने गोली खाई है,
देश की माटी की इज्ज़त
लुटने से जिसने बचाई है;
इज्ज़त लुटे न बहन की,
सौगंध जिसने खाई है,
उस बहन रुपी वतन का भाई
जांबाज़ एक सिपाही है ।
ध्येय जिसका प्रतिशोध हो,
उद्देश्य जिसका हो अमन,
उस सच्चे सपूत को मन
आज करता है नमन ।
उस दिव्यात्मा के स्वप्न को
करना हमें साकार है,
गर धुल में रिपु न मिले तो
जीने से हमें धिक्कार है ।
लहू से दुश्मन के है धोना
वेवा के दुर्भाग्य को ,
अरि की हड्डी का खिलौना करेगा
शांत शिशु की चीत्कार को ।
आओ प्रण लें आज हम उस
शहीद की मज़ार पर,
चैन से सोयेंगे न तब तक, है-
जब-तक, रिपु एक भी ज़िन्दा द्वार पर ।

(C) @ Deepak Kumar Srivastava “Neel Padam”

आज कुछ मत कहो

May 20, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

नहीं,
आज मुझसे कोई
तस्वीर रंगने को मत कहो।
क्योंकि, हर बार
जब मैं ब्रश उठाता हूँ,
और उसे
रंग के प्याले में डूबता हूँ;
उस रंग को जब
कैनवास के
धरातल पर सजाता हूँ;
तो सिर्फ एक ही रंग होता है
अपने वतन की सीमा पर
शहीद हुए जवान के
लहू का रंग।
नहीं,
आज मुझसे कोई
मूरत गढ़ने को मत कहो।
क्योंकि,
जिस मिट्टी से
मैं उस मूरत को गढ़ता हूँ,
उससे
दुश्मन के पंकयुक्त
पैरों की
दुर्गन्ध आती है;
उसी मिट्टी को रौंदकर
कोई
भारत माँ की प्रतिमा को
छलनी करने का
प्रयास करता है।
नहीं,
मुझे आज कोई,
गीत गाने को मत कहो।
क्योंकि आज,
दोस्ती का ढोंग करके,
दुश्मनी निभाने वाले,
दगावाज सावन में,
ग़ज़ल, कज़री या दादरा नहीं,
बल्कि क्रंदन-
सिर्फ क्रंदन ही बिलखता है।
नहीं,
आज मुझसे कोई
साज़ छेड़ने करने को मत कहो।
क्योंकि, सारंगी आज
सरहद पे शहीद हुए
सिपाही की माँ के ह्रदय की तरह
चीख़-चीख़ कर फटी जाती है;
बाँसुरी
सुहाग-सेज़ पर
प्रतीक्षा करती रह गई-
दुल्हन की,
व्यथा ही सुनती है;
सितार के हर तार में
मौत की झंकार है;
वीणा के हर तार में
उस शिशु की चीत्कार है-
कि पिता जिसका सरहद पे,
खा गोली सीने पे
मर गया,
और, शहीदों की कड़ियों से जुड़कर
वो
अपना नाम
अमर कर गया।
नहीं,
आज मुझसे कुछ मत कहो।

(c)Deepak Kumar Srivastava दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

गंदा है क्योंकि अब धंधा है

April 7, 2023 in हिन्दी-उर्दू कविता

रहम, त्याग, सेवा का
बाज़ार अब मंदा है
इस शहर से बच निकलो
ये अब नरक का पुलिंदा है.
खून की कीमत आज
पानी से फीकी है,
मेरे शहर के फरिश्तों की
शैतान से माशूकी है.
छोड़ कर सेवा भाव
स्वार्थ में अंधा है,
ये अब गंदा है
क्योंकि अब धंधा है.

@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

*प्रकृति वर्णन*

December 10, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

*प्रकृति वर्णन*

सुबह उठें हम सूरज की
मखमली रोशनी को पायें,
चिड़ियों का संगीत सुने और
फूल कोई कविता गायें ।।
भंवरों का संगीत मनोहर
हरियाली स्वर्ग सी है,
नदियों का मुड़ मुड़कर चलना
जैसे कोई नर्तकी है ।।
शाम ढ़ले तो चाँद चले
तारों की बारात लिये,
बूंदें पुलकित करती हैं जब
हों बादल बरसात लिये ।।
धरती, अम्बर, दरिया, जंगल
क्या कुछ हमको देते हैं,
प्रकृति की रक्षा करनी है ये
शपथ आज हम लेते हैं ।।

Copyright @ neelpadam नील पदम्

हाँ, मेरी माँ हो तुम

December 5, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

थकती हैं संवेदनाएँ जब
तुम्हारा सहारा लेता हूँ,
निराशा भरे पथ पर भी
तुमसे ढाढ़स ले लेता हूँ,
अवसाद का जब कभी
उफनता है सागर मन में
मैं आगे बढ़कर तत्पर
तेरा आलिंगन करता हूँ,
सिकुड़ता हूँ शीत में
जब कभी एकाकीपन की
खींच लेता हूँ चादर सा तुम्हें
गुनगुना मन कर लेता हूँ ।


जब कभी भी घबराता हूँ
अन्जान अक्षरों की भीड़ में,
ओ माँ, मेरी मातृभाषा,
तेरी गोद में जा धमकता हूँ ।।

@*नील पदम्*
१४•०९•२०१९

यूं ही चलते चलते

December 1, 2019 in शेर-ओ-शायरी

निगाहों के पैमाने से शख्शियत भांप लेते है,
राह चलते ही बुलंदियों के कद मांप लेते हैं।।

जलने वालों का कुछ हो नहीं सकता,
वो तो मेरी बेफिक्री से भी जल बैठे ॥

सरहदें बदलती हैं दिनरात अपनी,
चलो समझौता, सुलह, करार करें ॥

मेरे वश में नहीं है, तुम्हारी सजा मुकर्रर करना ।
तुम ही कर लो जिरह औ फैसला मुकम्मल कर लो ॥

वह चलते पानी से बह जाते हैं,
थोड़ा गर उनको आजमाते हैं ॥

अपने वजूद से यूँ कतराते हैं,
आइना देख के भी घबराते हैं ॥

ऐसा भी नहीं कि कोई
रंजिश है उन्हें हमसे,
दुश्मनों से वफादारी
बस निभानी थी उन्हें ।।

जालिमों तुम खोप्ते रहो सीने में खंजर
हम उफ्फ़ भी करें तो गुनाह हो जाये

ये जो इश्क का इक कतरा,
तेरी आंखों से झलका है ।
मयस्सर है ना मुकद्दर में ,
जमाना इससे जलता है ॥

मेरी हसरतों का क्या, कटी पतंग हैं ।
वो लूटने की बात, मन की उमंग है ॥

कांटों का काम है चुभते रहना,
उनका अपना मिज़ाज होता है,
चुभन सहकर फिर भी सीने में,
कोई गुल उसका साथ देता है ।

@ नील पदम्

यूं ही चलते चलते

December 1, 2019 in शेर-ओ-शायरी

निगाहों के पैमाने से शख्शियत भांप लेते है,
राह चलते ही बुलंदियों के कद मांप लेते हैं।।

जलने वालों का कुछ हो नहीं सकता,
वो तो मेरी बेफिक्री से भी जल बैठे ॥

सरहदें बदलती हैं दिनरात अपनी,
चलो समझौता, सुलह, करार करें ॥

मेरे वश में नहीं है, तुम्हारी सजा मुकर्रर करना ।
तुम ही कर लो जिरह औ फैसला मुकम्मल कर लो ॥

वह चलते पानी से बह जाते हैं,
थोड़ा गर उनको आजमाते हैं ॥अपने वजूद से यूँ कतराते हैं,
आइना देख के भी घबराते हैं ॥

ऐसा भी नहीं कि कोई
रंजिश है उन्हें हमसे,
दुश्मनों से वफादारी
बस निभानी थी उन्हें ।।

जालिमों तुम खोप्ते रहो सीने में खंजर
हम उफ्फ़ भी करें तो गुनाह हो जाये

ये जो इश्क का इक कतरा,
तेरी आंखों से झलका है ।
मयस्सर है ना मुकद्दर में ,
जमाना इससे जलता है ॥

मेरी हसरतों का क्या, कटी पतंग हैं ।
वो लूटने की बात, मन की उमंग है ॥

कांटों का काम है चुभते रहना,
उनका अपना मिज़ाज होता है,
चुभन सहकर फिर भी सीने में,
कोई गुल उसका साथ देता है ।

@ नील पदम्

चलते चलते

December 1, 2019 in शेर-ओ-शायरी

जलने वालों का कुछ हो नहीं सकता,
वो तो मेरी बेफिक्री से भी जल बैठे ॥

@नील पदम्

तुम धूप बुला लो

November 30, 2019 in मुक्तक

आँसुओं से भीगे हुए, तकिये को हटा लो,
तुम आस के रूठे हुए, पंछी को बुला लो,
अन्मनी रातों के चांद बुझा दोगे तुम,
ये रात ढ़ल जायेगी गर, तुम धूप बुला लो ।।

copyright@ नील पदम्

प्यासा समंदर और मैं

November 28, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं प्यासा था,
समंदर में,
दो अंजुली प्यास, खो आया ।
बड़ा आरोप लगा मुझ पर,
मैं अपना आप खो आया ।।

समंदर नें,
उदासी को,
मेरी आंखों में जब देखा ।
उदासी घुल गई उसमें,
मैं पल्लव सा, निखर आया ।।

समंदर को,
शिकायत हो,
तो हो जाये, ये जायज है ।
मगर उनको शिकायत है,
मैं जिनको भूल ना पाया ।।

समंदर तो,
अभी भी है,
किसी की प्यास, का प्यासा ।
मैं सचमुच में ही, घुल जाता,
रहते वक़्त, निकल आया ।।

समंदर की,
कहानी भी,
बड़ी दिलचस्प है, यारों ।
समंदर आज भी, प्यासा,
कई दरिया, निगल आया ।।

Copyright @ नील पदम्
Deepak Kumar Srivastava

दौर

November 28, 2019 in शेर-ओ-शायरी

जाने कैसे दौर से गुजर रहा हूँ मैं,
वक़्त के हर मोड़ पे लड़खड़ाता हूँ,
वो बन्दा ही जख्म-ए-संगीन देता है,
जिसको पूरे दिल से मैं अपनाता हूँ ।।
*नील पदम् *

तब

November 28, 2019 in शेर-ओ-शायरी

तबकी बात और है,
ना करो तबकी बातें,
थे तब भी लेकिन,
जख्म हँसते ना थे।
होंगे सांप तब भी,
यकीनन आस्तीनों में,
रहते थे खामोश,
तब ये डसते ना थे ।।

Copyright@ नील पदम्

छब्बीस ग्यारह (मुम्बई) 26/11

November 27, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

सागर के सीने से निकले थे, काल सरीखे नाग।
मुम्बई में बरसाने आये थे, जो जहरीली आग ।।

रण रिपु छेड़ रहा था लेकिन, हम थे इससे अन्जान।
छब्बिस ग्यारह दिवस ले गया, कई निर्दोषों की जान ।।

तांडव करती मौत फिरी थी, शहर में लेने जान।
बरस रहे थे गली गली में, बुझे सन्खिया बाण ।।

कपट भरे दुश्मन के छल को, जब तक समझा हमने।
कितने हुए अनाथ, विधवाएं, खोये भाई और बहनें ।।

दुश्मन की इस धृष्टता का, बदला हमको लेना था ।
हर दुखते फोड़े की पीड़ा को, दुश्मन को देना था ।।

छब्बीस ग्यारह तारीख बना, इतिहास का दुखता पन्ना।
फिर से दोहराया ना जाये ये, ध्यान हमें है रखना ।।

हुए शहीद जो इस तारीख पर, उनको मेरा नमन है।
ऐसे सपूत है भारत माँ के, तभी खुशहाल चमन है ।।

@नील पदम्
26-11-2019

बोगेनविलिया

November 27, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो
बोगेनविलिया की बेल
रहती थी उपेक्षित,
क्योंकि
थी समूह से दूर,
अलग,
अकेली एक तरफ;
छज्जे के एक कोने में
जब देती थीं
सारी अन्य लताएँ
लाल, पीले, नारंगी फूल,
वो रहती थी मौन,
सिर्फ
एक पतली-सी डंडी
कुछ पत्ते लिए हुए
काँटों के साथ.

आज सुबह से ही
हरसिंगार का पौधा
हर्ष का
मचा रहता था
शोर,
लाल, पीले, नारंगी फूल,
जा चुका था
इनका मौसम.
था
सफ़ेद,
शांत
फूलों का दौर.
तभी तो
हरसिंगार के सफ़ेद फूल
हैं प्रसन्न,
पाकर
अपना नया साथी,
क्योंकि
बोगेनविलिया की
उस उपेक्षित लता पर भी
खिल उठे थे
धवल चांदनी-से
श्वेत फूल.

Copyright@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम् “

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