पत्थर होना आसान नहीं

June 25, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं ‘पत्थर’ हो गया हूँ
पर वो पत्थर नहीं
जिसे ‘पूजा’ जाय,
बस एक ‘साधारण पत्थर’,
पर साधारण पत्थर होना ही क्या ‘आसान’ है?

देखने में आसान लग सकता है,
पर वो पत्थर कभी ‘मैग्मा’ रहा होगा
धरती के अंदर,
न जाने कितने ‘ताप’, कितना ‘प्रेशर’
उसने कितने दिनों तक झेला होगा,
और जब ‘बर्दाश्त’ से बाहर हो गया होगा सबकुछ
तो एक दिन ‘फट’ गया होगा उसके अंदर का ‘ज्वालामुखी’,
वो ‘लावा’ बन बस बहे जाने को तैयार…
ओह! उस दिन कितनी ‘शांति’ मिली होगी उसे,
फिर धीरे-धीरे ‘ठण्डा’ हुआ होगा वो
अब बिल्कुल दूसरे स्वरूप में…

पर ‘पत्थर’ होने के लिए
फिर न जाने उसने कितनी ‘बारिश’, कितनी ‘धूप’,
और न जाने कितने ‘मौसम’ झेले होंगे,
तब जाकर बन पाया होगा वो ‘पत्थर’,
पत्थर बन जाना इतना भी ‘आसान’ नहीं..
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सफर फासलों का

March 20, 2017 in ग़ज़ल

सफ़र फासलों का है ये बड़ा दर्द भरा,
गर हो मुम्किन,तो कोई और अज़ाब दो ना बड़ा

नहीं देखूँगा तेरी सूरत मैं कभी,
इन आँखों को कोई और पता दो ना ज़रा

बातों-बातों में बनी खामोशी की दीवार है ये
लफ़्ज की एक चोट से गिरा दो ना ज़रा

अश्क के दरिया में हूँ डूबा, गम के शरर में दहकता
और कब तक है तड़पना, ऐ मुंसिफ़ बता दो ना ज़रा

रोज मरता है विनायक, तुझपे मरता हुआ
कर मुकम्मल मुझको,मेरी चिता सजा दो ना ज़रा…..

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डर लगता है

March 13, 2017 in ग़ज़ल

देखो तो मजमा आजकल उनका इधर लगता है
मतलब की है यारी, सर-बसर लगता है

कहते थे कभी मुल्क की आवाम के हैं सेवक
देखो तो आज बनारस ही उनका घर लगता है

कब्रिस्तान और श्मशान की हो रही बराबरी
बनाएंगे पूरे हिन्दुस्तां को, मुजफ्फरनगर लगता है

महंगा हुआ है खाना, महंगी है रसोई
शिद्दतों से आये अच्छे दिन का असर लगता है

आतंक और करप्शन तो हैं ही दर्द-अंगेज़
नए पनपते देशभक्तों से भर गया शहर लगता है

बंद लब कर, चुप बैठा है ‘विनायक’
डर है किसी बात से, अब ये कहने में भी डर लगता है।

ना पूछना कभी इन आँसुओं की कीमत

September 30, 2016 in शेर-ओ-शायरी

ना पूछना कभी इन आँसुओं की कीमत,

तुम गुज़रा हुआ वक़्त लौटा नहीं पाओगे….

देश के इसी हालात पर रोना है

July 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

देश के इसी हालात पर तो रोना है,
69 साल हो गए आजादी के
फिर भी आँखें भिगोना है,
रो रहा कोई रोटी को
और किसी के पास सोना-ही-सोना है,
देश के इसी हालात पर तो रोना है।

भारत के वीर सपूतों ने आज़ादी के लिए
दिए थे अपने प्राण,
पर आज लग रहा है
व्यर्थ चला गया उनका बलिदान,
आज देश में
चारो ओर फैला है भ्रष्टाचार,
लोग भूल गए हैं
अपनी सभ्यता-संस्कृति और संस्कार,
बापू ने कहा था
हिंसा छोड़,अहिंसा के बीज बोना है,
हम भूल गए उनकी बात
और सोचा, देखेंगे जो भी होना है,
देश के इसी हालात पर तो रोना है।

चंद्रशेखर आजाद ने स्वयं को गोली मार
दिलाई हमें स्वतंत्रता,
पर आज स्वतंत्रता दिवस मनाना
रह गयी महज एक औपचारिकता,
आज़ादी के दिन हम
फहराते हैं अपना तिरंगा प्यारा,
पर कितना प्यार है हमें तिरंगे से
ये बताता है कर्म हमारा,
नहीं जानते हम महिला स्वतंत्रता सेनानियों के नाम
और सोचते हैं,उनसे हमें क्या लेना है,
पर इतना जरूर जानते हम
किस फ़िल्म में आलिया और किसमें कैटरीना है,
देश के इसी हालात पर तो रोना है।

नेताजी सुभाषचंद्रबोस ने हमारे लिए
लड़ा था स्वतंत्रता संग्राम,
पर आज के नेताओं ने तो
नेता शब्द को ही कर दिया है बदनाम,
नेताओं ने काफी ठेस पहुंचाई है
इस देश की गरिमा और आन को,
तभी तो नेता बनने में हिचक होती है
एक अच्छे इंसान को,
नेताओं ने यह ठान लिया है
देश की संपत्ति को जितना हो सके
ढोना है,
देश के इसी हालात पर तो रोना है।

अब हमें ही अपने देश के लिए
पड़ेगा कुछ करना
भ्रष्टाचारियों के खिलाफ
हमें ही पड़ेगा लड़ना,
ऐसा तभी संभव है
जब बदल जाएँ लोगों के विचार,
लोगों को रखनी होगी सहयोग भावना
भूलकर अपनी जीत और हार,
आज़ाद हो गए हम
पर हमारी सोच को अभी भी
आज़ाद होना है,
देश के इसी हालात पर तो रोना है।
देश के इसी हालात पर तो रोना है।

©विनायक शर्मा

शबनमी बूँदें

July 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

एक सुबह
असामान्य सी
हाँ,
क्योंकि उस दिन मैं
जल्द जग गया था,
मैंने देखा था
गुलाब के पत्तों पर
शबनमी बूंदों को
बेहद आकर्षक,
अत्यन्त शीतल,
काफी खूबसूरत थीं
वो बूंदे,
जिन्होंने,
एक असामान्य सुबह को
असाधारण बना दिया,
मैंने चाहा
उन्हें अपनी हथेली पर ले लूँ,
और लिया भी
लेकिन,अब ना तो उनमें
वो शीतलता रही
और ना ही,
वो खूबसूरत ही लगती हैं…..

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जिन्दगी और कविता

June 28, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब होश संभाला तो
तुमसे जिंदगी को समझाया जाता था
अब कुछ भी समझता हूँ
तो तुम्हारा सृजन होता है
जब मस्तिष्क का ताल
दिल के तारों को छेड़ता है
तो झंकृत हो तुम बाहर आती हो
तुम तब भी होती हो
जब रात चोरी-छिपे
दिन से मिलकर भाग रही होती है
और तब भी,
जब नदी किनारे
आसमान वसुंधरा की गोद में
अपना सर रख अपने प्यार का इजहार कर रहा होता है
तुम जीवन की हरेक खुशहाली में
शहद की तरह घुली तो हो ही
जीवन के नीम अँधेरे में भी
तुम ज्योतिर्मय हो
‘कविता’ तुम बसी हो
जीवन के हरेक क्षण में,हर कण में
क्योंकि तुम भी तो एक जिंदगी हो…..

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सब देखता है

June 25, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये शब देखता है और सब देखता है,
सावन में भी पेट में है आग , कोई कब देखता है।

दहक जेठ की,या पूस की ठिठुरन
में सश्रम है कोई,क्या रब देखता है!

कब मैं जलूँगा,या ठिठुर कर मरूँगा,
या यूँ ही सड़ते-सड़ते मैं ज़िंदा रहूंगा
मेरे इन्तेहाँ की क्या हद देखता है…।

सूखे का मंजर,बाढ़ की आफत,
“सेल्फ़ी” की आंधी में,हर शख्स देखता है।

बेरहम कुदरत,स्वार्थी फितरत
ये मैं ही तो हूँ, जो सब झेलता है,
मैं ही तो हूँ,जो सब देखता है…..|

©विनायक शर्मा

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