अंजान सफ़र

March 3, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं अंजान हूँ इस सफ़र में
मुझे कुछ नहीं है आता
तू ही बता मेरे साथी
कैसे बढूँ इस डगर में।
चुन ली है राह मैंने
तेरे संग ज़िन्दगी की
अब तू ही मेरा सहारा
अब तू ही मेरा किनारा।
अरमा भरे सफ़र में
पंखों में जो जां तूने भर दी
इस जागती आँखों में
ख़्वाबों से बाहं भर दी।
नहीं पता मुझे
तुझे किस नाम से पुकारूं
बस तू ही मेरा हमदम
बस तू ही मेरा हमसफ़र।
बाहों में भर के रखना
नाज़ुक सी इस कली को
फूलों की तरह महकाना
मेरी खामोश ज़िन्दगी को।
जब दिल हो मुश्किल में
मेरा साथ देना हमदम
तेरे बिन मैं अधूरी
ये याद रखना हर दम।
माना कि राह है मुश्किल
इस अंजान सफ़र में
मगर जलता दिया भी तो
अंधेरों से कहां डरता।
अंजान हूँ इस सफ़र में
मेरा हाथ थाम के रहना
ऐ मेरे हमदम
तू साथ मेरा देना।

— सीमा राठी
द्वारा–श्री रामचंद्र राठी
श्री डूंगरगढ़ (राज.)

अलविदा

December 20, 2017 in शेर-ओ-शायरी

अलविदा हम उनसे कैसे कहे
रूह को जिस्म से अलग होने को कैसे कहें|

मानुषी छिल्लर

November 19, 2017 in Other

फ़क्र है हमें, नाज है
हरियाणा की बेटी
तू भारत की शान है|

मैं बेटी हूँ

November 19, 2017 in Other

मैं बेटी हूँ…..
मैं गुड़िया मिट्टी की हूँ।
खामोश सदा मैं रहती हूँ।
मैं बेटी हूँ…..

मैं धरती माँ की बेटी हूँ।
निःश्वास साँस मैं ढोती हूँ।
मैं बेटी हूँ……..
मैं गुड़िया मिट्टी की हूँ।
खामोश सदा मैं रहती हूँ।
मैं बेटी हूँ…..

मैं धरती माँ की बेटी हूँ।
निःश्वास साँस मैं ढोती हूँ।
मैं बेटी हूँ…….

इक सदी से

March 30, 2017 in शेर-ओ-शायरी

मैं इक सदी से बैठी हूं, इस मोड़ पर
मगर कोई इंसा इधर से गुजरा नहीं

मेरे भय्या

February 20, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

तेरे साथ जो बीता बचपन
कितना सुन्दर जीवन था,
ख़ूब लड़ते थे फिर हँसते थे
कितना सुन्दर बचपन था,
माँ जब तुझको दुलारती
मेरा मन भी चिढ़ता था
तू है उनके बुढ़ापे की लाठी
ये मेरी समझ न आता था,
स्कूल से जब तू छुट्टी करता
मेरा मन भी मचलता था
फिर भी मैं स्कूल को जाती
ये मेरा एक मकसद था।

बड़े हुए हम और बीता बचपन
फिर तुझको बहना की सुध आई
हुई जब विदा तेरी बहना
तेरी आँखें भर आई,
अब याद आता है बीता बचपन
कैसे हम हमझोली थे
एक दूसरे की शिकायत करते
फिर भी हम हमझोली थे।
आ गई राखी भय्या अब तो
तेरी बहना घर आयेगी
राखी बाँध तेरे हाथों में
बचपन की याद दिलाएगी।

— सीमा राठी

आज कुछ चाय पे चर्चा हो जाये|

February 16, 2017 in Poetry on Picture Contest

आज कुछ चाय पे चर्चा हो जाये
दिल के राज जो छुपे बैठे है अरसे से
उनसे कुछ गुफ़्तगू हो जाये
इससे पहले उम्र ए दराज धोखा दे
ले ले कुछ लफ्जों का सहारा
कहीं लाठी का सहारा ना हो जाये
आज कुछ चाय पे चर्चा हो जाये|

अंजान सफ़र

February 3, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं अंजान हूँ इस सफ़र में
मुझे कुछ नहीं है आता
तू ही बता मेरे साथी
कैसे बढूँ इस डगर में।
चुन ली है राह मैंने
तेरे संग ज़िन्दगी की
अब तू ही मेरा सहारा
अब तू ही मेरा किनारा।
अरमा भरे सफ़र में
पंखों में जो जां तूने भर दी
इस जागती आँखों में
ख़्वाबों से बाहं भर दी।
नहीं पता मुझे
तुझे किस नाम से पुकारूं
बस तू ही मेरा हमदम
बस तू ही मेरा हमसफ़र।
बाहों में भर के रखना
नाज़ुक सी इस कली को
फूलों की तरह महकाना
मेरी खामोश ज़िन्दगी को।
जब दिल हो मुश्किल में
मेरा साथ देना हमदम
तेरे बिन मैं अधूरी
ये याद रखना हर दम।
माना कि राह है मुश्किल
इस अंजान सफ़र में
मगर जलता दिया भी तो
अंधेरों से कहां डरता।
अंजान हूँ इस सफ़र में
मेरा हाथ थाम के रहना
ऐ मेरे हमदम
तू साथ मेरा देना।

— सीमा राठी
द्वारा–श्री रामचंद्र राठी
श्री डूंगरगढ़ (राज.)

मैं बेटी हूँ

January 30, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं बेटी हूँ
फिर भी मैं अकेली हूँ
मैं सबकुछ नहीं कर सकती
क्योंकि मैं बंधन में बंधी हूँ
किसी को मैं पसंद नहीं तो
कोख में ही मार दी जाती हूँ
गर में किसी को पसंद हूँ तो
मैं उसको नहीं पाती हूँ
रब ने मुझे बनाया
दुनियां को यह दिखाया
मेरे बिन संसार अधूरा है
ये जानते हुए भी
दुनियां ने मुझे नकारा है
जिस घर में मैं आई
खुशियों की सौग़ात लाई
बापू की ऊँगली पकड़ के
दुनियां की राह पाई
माँ ने मुझे सिखाया
जीवन का पाठ पढ़ाया
जब घर से मैं विदा होइ
बचपन की खुशियाँ खोई
किसी ने मुझे दुलारा
किसी ने मुझे दुत्कारा
जीवन में मैंने पाया
संसार है निराला
कहीं क़दम बढ़ा के चली
तो, कहीं बन्दिनी बन के रोइ
किया नाम मैंने रोशन
बंधनों के बीच रह कर
कहीं मुझे नहीं चाहा तो
खाती रही मैं ठोकर
फिर भी मैं बेटी हूँ
मैं वो हूँ
जो हर अवरोध में
कहां मैं नहीं हूँ।

— सीमा राठी

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