Manoj Upadhyay
मुक्तक
July 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ये आँखे मेरी निर्झर जैसे झर जाती तो अच्छा होता
जिग्यासा दर्शन की मन में मर जाती तो अच्छा होता |
तुम पथिक मेरे पथ के ही नही तुम दूजे पथगामी हो
मेरे पागल मन से यह प्रीत उतर जाती तो अच्छा होता ||
उपाध्याय…
कविता
July 4, 2016 in हाइकु
अब और परीक्षा नही…
अब और परीक्षा नही
प्रतिक्षा नही करेंगे |
किया नही पर प्रीत हो गई
उल्टी जग की रीत हो गई |
और तितिक्षा नही वरेंगे ||
यह अपराध किया ईश्वर ने
जिसने रचा तन मन मानव का |
जिसने प्रीत और बैर बनाया
ओ न सहे तो हम क्यों सहेंगे !!
अब और परीक्षा नही सहेंगे
प्रतिक्षा नही करेंगे |
जब तक प्रीत नही थी
बैरी ये कब था संसार !
इसे नही क्यों भा सकता
दो पुण्य पथिक का प्यार !!
हम कैसे है हम ही जाने
स्वयं स्वयं को ही पहचाने
और किसी की कोई समीक्षा
हम अपने सर धरेंगे |
अब और परीक्षा नही…!
रोका कौन बहती धारा को
हवा बासंती आवारा को !
अब रोके से हम न रुकेंगे ||
अब न रुकेंगे मिल के रहेंगे |
दुख सुख दोनो मिल के सहेंगे
एक दूजे में विलिन हो कर
जहाँ के बंधन तोड चलेंगे
विरह वेदना से निकलेंगे ||
अब और परीक्षा नही
प्रतिक्षा नही करेंगे नही सहेंगे ||
उपाध्याय…
कविता
July 4, 2016 in हाइकु
” मन के मोती…”
पानी के बुलबुले से
माला के मोतियों से
बिखरता है टूट जाता है |
बनता है मन का मोती
बन कर के फूट जाता है ||
स्वप्नों में साथियों से
मिलना बिछड भी जाना !
समझा नही मै अब तक
जो साथ ही सोया है
ओ साथ छूट जाता है |
कुछेक क्षंण में ही मन
अंदर से टूट जाता है ||
फिर देखकर जठर भी
उलझन में है फंस जाता !
आखिर ये स्वप्न में क्यों
ये तथ्य है दिखाता !!
जो कल्पना में पाते
स्वप्नों में सच हो जाता !
पानी पे चल रहा जो
सूखे में डूब जाता !!
देखा मैं स्वप्न में कि
लहरों पर चल रहे है !
मेरे चरण रज उठ कर
नभ में बिखर रहे है !!
हूँ भागता घर लेकिन
ये पाँव फंस गये है !
ये पत्थरों के दलदल में
कैसे धँस गये है !!
अस्तित्व स्वप्न का है
अनंत मन के मोती
कभी माला टूट जाती
मोती भी बिखर जाते !
बरसात में मुरझाते
पतझड में निखर जाते !!
उपाध्याय…
दोहे
July 4, 2016 in Other
“कुछ दोहे”
गुरु की महिमा का हरि करते है गुंणगान |
श्रेष्ठ न गुरू से है कोई बता दिये भगवान ||
नित्य श्रद्धा से लीजिए श्री भगवत का नाम |
सब संयम से कीजिए दिए जो उसने काम ||
खाली हाथ तु आया है जाना खाली हाथ |
फिर भी पागल भाँति क्यों मरता तु दिन-रात ||
पाखंडो में गवां दिये तुमने कितने धन – धान |
पर गरीब की भूख को दिया न कुछ भी दान ||
आया है तो जायेगा जतन लाख कर योग |
धन बैभव सब कुछ तेरा करता दूजा भोग ||
जीवन का उपयोग करो दान धरम के साथ |
आखिर गत पछताओगे कुछ ना लगेगा हाथ ||
उपाध्याय…
कविता- संवेदना
July 4, 2016 in हाइकु
कविता- संवेदना…
तू कौन है ..!
तू कौन है..! संवेदना !
जो अनछुए अनदेखे
पहलुओं को एकाएक
होने का आभाष कराती है !
तू कौन है..!
जो दूसरे की पीडा का
उद्विग्नता का बोध कराती है !
तू वही तो नही …
जो दूसरों की तकलिफों में
आँखे नम कर जाती है !
तू वही बस वही है न !
जो बिना बोले अकारण ही
मन को उदास अवशादित
और हर्षादित कर जाती है !
तू वही तो नही
जो विभत्सता के प्रति
घृणां के रूप में अवांछनीय रूप में
स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है !
तू वही है बस वही है..
हर्ष में वीर करूण में कारूण्य
श्रृंगार में आकर्षण जगाती है !
तू वही है न ! तू कौन है !
जो अबला पर होने वाले
अत्याचार के विरूद्ध
सहज ही प्रतिकार की
भावनाओं को उद्वेलित करती है !
तू वही है न !
जो अकारण ही पुरूष के मन में
रूपवती स्त्री को देखते ही
कामुकता का भाव जगा देती है !
तू वही है न ! तू कौन है !
जो अपने वश में कर
व्यक्ति को भला-बूरा
लाभ-हानि नैतिक अनैतिक
तक का बोध नही होने देती !
और ग्लानि भी तू ही तो है !
जो अनर्थ के पश्चात मानव
में सहज ही जाग जाती है !
तू कौन है ! कौन है तू !
वही तो नही जो मानव को
अमानव बनाती है !
जगे को सुलाती है
और सोय़े को जगाती है !
तू बस वही है न ..!
जो जीवन में जीवन का प्रमाण है
सर्द गर्म का कठोर नर्म का
मधुर का तीखे का आभाष कराती है !
तू है तो ग्यानेंद्रियां सक्रीय है
तुम्हारे नही होने का अर्थ
नि:संदेह मृत्यु ही है….||
उपाध्याय…
कविता
July 4, 2016 in हाइकु
तू कौन है ..!
तू कौन है..! संवेदना !
जो अनछुए अनदेखे
पहलुओं को एकाएक
होने का आभाष कराती है !
तू कौन है..!
जो दूसरे की पीडा का
उद्विग्नता का बोध कराती है !
तू वही तो नही …
जो दूसरों की तकलिफों में
आँखे नम कर जाती है !
तू वही बस वही है न !
जो बिना बोले अकारण ही
मन को उदास अवशादित
और हर्षादित कर जाती है !
तू वही तो नही
जो विभत्सता के प्रति
घृणां के रूप में अवांछनीय रूप में
स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है !
तू वही है बस वही है..
हर्ष में वीर करूण में कारूण्य
श्रृंगार में आकर्षण जगाती है !
तू वही है न ! तू कौन है !
जो अबला पर होने वाले
अत्याचार के विरूद्ध
सहज ही प्रतिकार की
भावनाओं को उद्वेलित करती है !
तू वही है न !
जो अकारण ही पुरूष के मन में
रूपवती स्त्री को देखते ही
कामुकता का भाव जगा देती है !
तू वही है न ! तू कौन है !
जो अपने वश में कर
व्यक्ति को भला-बूरा
लाभ-हानि नैतिक अनैतिक
तक का बोध नही होने देती !
और ग्लानि भी तू ही तो है !
जो अनर्थ के पश्चात मानव
में सहज ही जाग जाती है !
तू कौन है ! कौन है तू !
वही तो नही जो मानव को
अमानव बनाती है !
जगे को सुलाती है
और सोय़े को जगाती है !
तू बस वही है न ..!
जो जीवन में जीवन का प्रमाण है
सर्द गर्म का कठोर नर्म का
मधुर का तीखे का आभाष कराती है !
तू है तो ग्यानेंद्रियां सक्रीय है
तुम्हारे नही होने का अर्थ
नि:संदेह मृत्यु ही है….||
उपाध्याय…
मुक्तक
July 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
“मुक्तक”
मुझे क्या हो गया है घर में घर अच्छा नही लगता
कोई बेचारगी में दर बदर अच्छा नही लगता !
मुझे सब सोहरते हासिल मगर किस काम की है ये
कि सूरज के बिना मुझको शहर अच्छा नही लगता !!
सभी अमृत्त के है प्यासे जहर किसको सुहाता है
हो हर दम खुशनुमा मौसम कहर अच्छा नही लगता !
जो मर्यादा न समझे दोस्त भी दुश्मन से क्या कम है
मुझे दुश्मन के धड पर उसका सर अच्छा नही लगता !!
उपाध्याय…
मुक्तक
July 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
सरिता पावन हो गई स्निग्ध खुश्बू सी वन में छाई है
तु कौन रमणिका जल क्रिडा को चली कहां से आई है!
सारा उपवन नतमस्तक हो सादर अभिनंदन करता है
तन मन की तपन बढ गई तुने पानी में आग लगाई है!!
उपाध्याय…
गीतिका
July 3, 2016 in गीत
“गीतिका”
मन को छोटा मत कर मानव
तन्मय हो धर्म निभाता चल |
सोया जग घोर तिमिर तो क्या
तू मन का दीप जलाता चल ||मन को..
क्या होगा क्या होने वाला
ये सोच के ना घबराता चल |
जो बीत गई ओ बात गई
उस कल पर ना पछताता चल ||मन को..
जो भटक गये है नीज पथ से
उनको तू पथ बतलाता चल |
अंधे लंगडे गूंगे बहरे को
अपना संदेश सूनाता चल ||मन को..
हो भाग्य नही अनुकूल भी तो
कर से करतब दिखलाता चल |
संघर्ष की वेदी पर चढ कर
तू पत्थर को पीघलाता चल ||मन को..
सोना तप कर पावन होता
इसलिए तू आग लगाता चल |
फड शेषनाग का डोलेगा
धरती में भी होगी हलचल || मन को..
हे क्रांति पथिक अपने पथ को
निष्कंटक राह बनाता चल |
धर धैर्य अग्रसर हो पथ पर
जो आये गले लगाता चल ||मन को..
उपाध्याय…
#copyright
मुक्तक
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
“मुक्तक”
हमने पूछा उनसे क्या दूकानदारी चल रही
अब नकद है या पहले सी उधारी चल रही !
क्या नमक देश का कुछ रंग भी है ला रहा
या कि पहले से भी ज्यादा गद्दारी चल रही !!
कुछ किराये की रकम को आदमी है ठूसते
आदमी की आदमी पर बस सवारी चल रही !
अस्पतालों में चिकित्सक से किया तफ्तीश मैं
मर्ज भी ठीक हो रहा या कि बीमारी चल रही !!
पूछ बैठा शिक्षकों से चल रही शिक्षा भी क्या
बोल बैठे वर्ष भर परीक्षा की तैयारी चल रही !
भात और सब्जी पकाने में ही दिन गुजर रहा
कागजी घोडों को दौडाने बेगारी चल रही !!
उपाध्याय…
कविता- गरीबी
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
एक दिन गया बाजार मैं
जेब में रूपये दस !
जी चाहे खाऊँ समोसे
कुरकुर और भसभस !!
पूछन लगा दूकान में
देगा क्या सरबस !
बोला पेटले सेठ ने
एक का रूपये दस !!
गरीबी अभिशाप है
वही लगाया दंस !
हुआ मुझे एहसास तब
हो गया यह बरबस !!
लेनी थी सब्जी मुझे
मन को डांटा बस !
आँखो को समझा लिया
खुद पे दिया मैं हंस !!
उपाध्याय (मतिहीन)
१८-६-२०१६
मुक्तक
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
“मुक्तक”
खुद कभी माना नही जिसको सीखाते है
थे कभी बहरे जो दुनियां को सुनाते है !
जिन्दगी जिसकी हुई जाया ही गफलतों में
ओ भी हमारी चाल पर उंगली उठाते है !!
पीते हुए बैठे थे कल देखा उन्हे बहुत
लो है पीना खराब वही सबको बताते है !
सबसे नकारा देश के घोषित जो हो गये
क्या बदनसीबी देश को ओ ही चलाते है !!
लाखों करोडों फूंक कर पहुँचते है पैर तक
पापी को संत बोल कर क्या क्या चढाते है !
अभाव में पैसों की एक मासूम खट रहा
उसकी मदद में भूल कर भी जो न आते है !!
उपाध्याय…
एक दोहा एक कुंडलिया
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
” दोहा और कुंडलिया ”
२१. १२२. २१२. ११. ११. ११२ १२
देखि मुखौटा चूतिया | फंसि मति जइयो जाय ||
२२ २२ २१ २ १११. १११ ११. १२
सीधे सादे वेश में | सठहि सहज मिलि जाय ||
१११ १११ ११ २१ २ ११२ २१ १२११
सठहि सहज मिलि जाय के सबके नाच नचावत |
११२. २. ११ २१ १. १ १११. २१ २. २११
फंसिहे जौ एक बार कि निकसत पार ना पावत ||
११. ११२१. ११२१. १२२ १२२. २११
कह मतिहीन कविराय फिरौती पईसा मांगत |
२१. १२१. ११. २१. २१ १२२. २११
जेहि सज्जन अति जान तेही मर्यादा लांघत ||
उपाध्याय…
मुक्तक
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
” मुक्तक ”
आँखों से आंशुओं को यूँ जाया नहीं करते।
हर बात पर बच्चो को रुलाया नहीं करते।।
खुशिंया नहीं दे सकते ना सही मगर कभी
जो दिल से चाहे उसको सताया नहीं करते।।
उपाध्याय…
मुक्तक-मनहरण घनाक्षरी
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
आज का विषय-मनहरण घनाक्षरी/कवित्त
दिनांक-२०/६/१६
विधा- गीत (गौना/भला) वार्णिक छंद
मात्राएँ-८ ८ ८ ७ – १६-१५
धरती पर वृक्ष नित्य अल्प होते जा रहे
पर्यावरण का कौन रखता खयाल है !
वन काटने का जुगत करने तैयार देख
बीच ही बाजार आज घूमता दलाल है !!
भय से दूर लोग है भुजंग दंग हो रहे
मानव बना जो श्रेष्ठ धरती का व्याल है !
विषिधर विकल्प मनुज दनुज समान पर
मानव के दंश का न कोई मिशाल है !!
दूई मास में खतम शर्द व बरसात ऋतु
गर्मी के मौसम बने रहत सालो साल है !
कहे मतिहीन कौन कौन दे उदाहरण
रोती सिसकती धरा हालत बेहाल है ||
उपाध्याय…
मुक्तक-मनहरण घनाक्षरी
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
मुक्तक छंद – वार्णिक (मनहरण घनाक्षरी)
सामांत-आई
पदांत- है
८८८७-१६-१५
पहले जो पढने में गदहे कहलाते थे
उनकी भी दिखती आज नही परछाई है !
नवयुग के बच्चे देते एक भी जवाब नही
पता नही चलता कैसी करते पढाई है !!
लाज और लिहाज सब दूर हो गये सभी
बाप के ही सामने में करते ढीठाई है !
कहत मतिहीन कवि डांट जो पिलाई तो
बेटी ने भाग घर से नाक कटवाई है ||
पढते भी कैसे जब शासन प्रशासन ने
बिना पढै पास करै बीणा उठाई है |
काम के अभाव में बेरोजगारी बढ गई
डिग्रीधारी को महंगी हुई पाई पाई है ||
उपाध्याय…
मुक्तक-मनहरण घनाक्षरी
July 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
“मुक्तक छंद पर चार पंक्तियाँ “(घनाक्षरी)
११. ११२. २. २ २. २१. २. २२ १२. ११ २
पुण्य करना है तो माँ बाप की सेवा जरा कर लो
इनके कदमों में जन्नत है के सर अपना जरा कर दो |
कि इनकी रहमतों की छांव को खुदा भी तरशता है
के इनके साथ भी जीवन बशर अपना जरा कर लो ||
जो बोओगे वही काटोगे तुम इतना समझ लेना
जरा ठहरों और तय भी हशर अपना जरा कर लो |
बडी सीद्दत सें नाजों प्यार से पाला तुम्हे जिसने
कि लमहा जिन्दगी के अपने कुछ इनके नजर कर दो ||
उपाध्याय…
कविता – इलाहाबाद की बात निराली
July 3, 2016 in Other
इलाहाबाद की बात निराली
नगरी वही निराला वाली |
एक तरफ प्रयाग राज है
दूजी तरफ गंगा मतवाली ||
इलाहाबाद की बात…
गूढ भेद सारगर्भित बातें
बडी निराली इसकी रातें |
देख उजाला ऐसा लगता
जैसे हर एक रात दिवाली ||
इलाहाबाद की बात…
पावन करने कर्म नहाने
महाकुंभ में दुनियां आती |
धन्य धरा इलाहाबाद की
सबके पाप छुडाने वाली ||
इलाहाबाद की बात निराली…
उपाध्याय…
कविता
July 3, 2016 in गीत
कविता…
हम जाते है स्कूल
हाँ हम जाते है स्कूल |
अपना भविष्य गढने अनुकूल ||
हम जाते है स्कूल……
पढ लिख कर होनहार बनेंगे
मातु पिता का प्यार बनेंगे |
घर आंगन फूलवारी अपनी
हम सब इसके फूल …||
हम जाते है स्कूल…
गुरू हुए भगवान हमारे
हम सब बच्चे उनको प्यारे |
हमे ज्ञान की बात बताते
बडे प्यार से हमे पढाते
कुछ न हमें होता प्रतिकूल ||
हाँ हम जाते है स्कूल…
हम सब आशा ज्योति जलाएं
आओ मिल कर पढे पढाएँ |
अंधकार को दूर भगाएँ
मिटा दे सब के शूल ||
हाँ हम जाते है स्कूल…३
उपाध्याय…
कविता
July 3, 2016 in Other
सो रहा कई रातों का जगा
तुम आज मुझे जगाना मत |
शब्दों के घाव बड़े मतिहीन
उर को मेरे पहुँचाना मत ||
होती रिश्तों की डोर नरम
कदापि इसे आजमाना मत |
होते है कान दिवारों के
खुद को भी राज बताना मत ||
छल क्षद्म भरा सारा जग है
मुझसे तुम नेह लगाना मत |
यदि मन मुझसे लग जाये तो
नीज नेह भी मुझे जताना मत ||
उपाध्याय…
गजल
July 1, 2016 in ग़ज़ल
” गजल ”
जहर मौत और जिन्दगी भी जहर है
सिसकती है रातें दहकता शहर है |
सदमों का आलम बना हर कही पर
सहम अपने घर में हम करते बसर है ||
ना हम एक होंगे क्यों सय्याद माने
हमी खुद ही खुद के कतरते जो पर है |
हमारी ही करतूत के है खामियाजे
न दहशत हुकूमत पे होता असर है ||
न हिन्दू ना मुश्लिम नही कोई काफिर
ना मजहब है कोई नही उनका घर है |
जमी पर उगाते फसल जो बला की
ना मंदिर ना मस्जीद नही कोई दर है ||
उपाध्याय…
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