by pravin

हर हर विश्वनाथ

July 18, 2022 in मुक्तक

नाम है अनेक तेरे कण कण मे आप हो
देखना बस एक झलक, सांसो में आलाप हो
मैं कलंकित शंकित हूँ जरा, गंगाधर आप हो
मन से मेरे भवभय हरो, हर हर विश्वनाथ ओ।
सभी मित्रगण को सावन का प्रथम सोमवार शुभ हो।

by pravin

अबकी होरी में

March 13, 2022 in Poetry on Picture Contest, गीत

सैंया तेरे साथ खेल को लाई चुनरिया कोरी मैं
कौन रंग के साथ रंगोगे, मोहे अबकी होरी में

जीवन मिला तोहे पाने को,कितने मौसम बीत गए
इंतजार में तेरे प्रीतम नैना मेरे भीग गए
अबकी होरी ऐसो रंग दे कोई कह न पाए मोरी मैं
तोरे रंग के साथ रंगोगे, कह दो अबकी होरी में

देख न तो एक बार मुझे ये चूड़ी कितनी प्यारी रे
चूड़ी क्या ये हंसी ये आंसू सब कुछ तुझ पर वारी रे
फिकर न करना सबरी टूटे अपनी इस बरजोरी में
कहो पिया तुम कैसे रंगोगे, मोहे अबकी होरी में

तेरे विजोग में छोड़े सब रंग, बाकी एक सिंदूर सिवा
याद यही था लौटूंगा मैं, जाते समय जो तूने कहा
कैसे मैं समझाऊं पिया तोहे बस तोरी हूँ तोरी मैं
सच कहती हूँ मर जाऊंगी अलग किया जो होरी में

और नही कुछ मुझको देना इतना वादा काफी है
दीपक बाती जैसे हम तुम बस दोनों ही साथी है
प्रेम लुटाती हूँ मैं तुझ पर ये प्रेम ही मेरी झोरी में
कस के मुझको गले लगा ले तू साजन और गोरी मैं

by pravin

अलविदा इक्कीस

December 30, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता

साल गुजरता अलविदा कर ही गया।
यादों को उम्मीदों से जुदा कर ही गया।
उम्मीदें उतर आई शाम के परिंदों सी,
पर पुराना होकर भी कुछ नया सिखाकर ही गया।

जीने के कुछ और पैंतरे हासिल हुए इस साल
कोरोना में जितना रोना था रुलाकर ही गया।

कितनी है इक्कीस को ‘किस’ करने की वजहें
उतनी ही भुलाने की भी ये बता कर ही गया।

कहीं अपनो ने अपनो को मार दिया तो कहीं,
कोई सरहद का जवान सबको बचा कर ही गया।

कहीं तालिबान की सरकार बनी तो,
कही सरकारें तालिबानी बना कर ही गया।

किसान और जवान छाए रहे हर क्षण,
बाकी सभी है दर्शक ये जता कर ही गया।

उधार पर जी रहे थे हम, और कर लिया हमने,
फिर भी कुछ अरबपति बढ़ाकर ही गया।

रोजी के लिए बच्चे उलझे, रोटी के लिए बुजुर्ग,
टीके के लिए तो घमासान कराकर ही गया।

अभी जिंदा हूं फिर क्या, खिलौने सा सही,
ये मेरी जीत है एहसास दिला कर ही गया।

स्वरचित रचना
प्रवीण शर्मा

by pravin

शर्माजी के अनुभव : बहू का असुराल

August 6, 2021 in मुक्तक

बात छोटी सी है, मगर मुश्किल बड़ी है,
बहू बेटी दोनों बराबर, किस अंतर से छोटी बड़ी है।
दोनों इज्जत ही तो है अपने घराने की,
जिद सी क्यों है अहम दिखाने की।
ये बात ज्यादा पुरानी नही है
पर ऐसी है मुझसे भूली जानी नही है
सफर कर रहा था बस का
बस छोटा बैग और मैं तन्हा
साथ बैठी महिला मुझसे बड़ी थी
उनकी आंखें अपने हाथ की तस्वीर पर गड़ी थी
शायद उनके छोटे परिवार की तस्वीर थी
आंखों में थे आंसू और दिल मे भारी पीर थी
अचरज तब हुआ, तस्वीर के छोटे टुकड़े कर गिरा दिए
आंसू पोंछ कर आंखों के, उनके होंठ मुस्कुरा दिए
उलझन में कितनी बाते सोच गया पल में
लगा पत्थर पड़ ही गए हो मेरी अकल में
तभी टिकट टिकट की आवाज आई
मैंने पैसे दिए तब उसे सांस आई
फिर महिला से पैसे मांगे तो उत्तर मिला, नही है
टिकट बाबू बोला भाभी बस से उतरे ये मेला नही है
मैंने झिझकते हुए कहा क्या मैं दे दूँ
महिला ने मुझे एक नजर देखा, बोली क्या कहूँ
मैंने पूछा कहाँ का लेना है टिकट
महिला ने कुछ न कहा समस्या बड़ी विकट
मैंने अपने गंतव्य का टिकट ही एक और लिया
महिला ने देखा तो उनकी ओर बढ़ा दिया
महिला ने देखकर मुझे कहा भैया शुक्रिया
शुक्रिया मत कहें बस बता दे ये क्या किया
मेरे सवाल पर महिला की नजर ठहर गई
बोली परिवार नही मेरा जिस पर आपकी नजर गई
मैं बोला फिर दर्द क्यों था आपकी आँखों मे
बोली ये फंदा था जिसे काट पाई हूँ सालों में
हो चुकी बर्बादी नही, आजादी के आंसू छलके
मेरा दर्द मेरा अपना है बस, आपसे अच्छा लगा मिलके
मैंने कहा ठीक है और ना बताये न सही
अब कोई ठिकाना है जहाँ जाना हो कहीं
बोली बाहर की दुनिया मैंने देखी कभी नही
मैं बोला आप सी हिम्मत और नही कहीं
बोली ससुराल नही असुराल में रही हूँ ना
थप्पड़ घूंसे लात ताने और कितना कुछ सही हूँ ना
हर हाल में जीने की हिम्मत में जिंदा रही
दरिंदो के बीच में परकटा परिंदा रही
मैं बरबस पूंछ बैठा क्या कोई अपना नही आपका
बोली किस्मत में कंकर लिखे तो क्या दोष बाप का
मैंने कहा चाहे तो आप मायके चली जाए
बोली दिल के मरीज की क्यो बिन कसूर जान ली जाए
बून्द को गिरना अकेले है पवन भी क्या कर सकती है
कहने के दो घर बेटी के, बस इसमें सबर कर सकती है
मैं बोला भाई कहा है, कोई मदद कर सकूं तो बताये
मैं बर्तन चूल्हा ही कर सकती हूं भैया काम दिलवाये
मुस्कुरा उठा मैं उनके साहस का कायल था
पर उनके दर्द से आज अंदर तक घायल था
पिता बिदा कर अरमानो संग भेज देता है ससुराल
कैसे दूसरा घर ही बन जाता है बेटी के लिए असुराल
सोच रहा था गलती हुई पुरुषत्व को बड़ा कहने में
डर लग रहा था उनकी जगह भी खुद को रखने में

by pravin

स्वछंद पंछी

June 28, 2021 in English Poetry

मुक्त आकाश में उड़ते स्वछंद पंछी
आह स्वाद आ गया कहकर, वाह क्या जिंदगी
कोई मुंडेर, कोई दीवार, या कोई सरहद देश की
सब अपने परों की हद में, वाह कैसी खुशी
बसेरा रख लिया,जब चाहा छोड़ दिया
न कोई मोह, न बंदिश, वाह बेशर्त आजादी
बचपने से बुढ़ापे तक फुदकता जीवन
बिना किश्त बीमा खुशियो का, वाह क्या बेफिक्री
एक डाल पर पंछी, क्या उम्र,क्या रंग, क्या जात
कोई तोड़ने की बिसात नही, वाह सच्ची बराबरी
उड़ना सिखा कर आजाद कर दिए बच्चे
कोई वहीखाता हिसाब नही, वाह निल विरासती
हे प्रभु तू बांध लें खुद से, पर यहाँ से आजाद कर दे
इंसान बनकर क्या किया, बेहतर है पंछी की जिंदगी

प्रवीनशर्मा
मौलिक स्वरचित रचना

by pravin

शर्माजी के अनुभव : मातृत्व

June 26, 2021 in मुक्तक

ढलता अंधेरा और काली सी महिला
बाजार किनारे खड़ी, हाथों में थैला
अजनवी थी मगर कुछ अलग था चेहरे में
जैसे खुशी खड़ी हो उदासी के पहरे में
बढ़ने लगा तो आवाज आई
कहाँ तक जा रहे हो भाई
मुड़कर कहा आपको कहाँ जाना है
मेरा तो गोविंद नगर में ठिकाना है
बोली मेरी मदद कर दीजिये
बड़ी कृपा होगी साथ ले लीजिये
मैंने कहा बैठिये, कृपा की कोई बात नही
वैसे भी आज खाली है बाइक, कोई साथ नही
लेकर उसको चल दिया, हम चुप ही रहे
वैसे भी कुछ नया नही था, कोई क्या कहे
कुछ देर बाद शुक्रिया कर उतर गई वो
आगे जाकर जेब टटोली कुछ ख़रीदने को
चौंक गया मैं, कटी जेब मे पैसे नही थे
पूछता था दुकानदार लाये भी थे, या नही थे
आज पहली बार मुझे मदद पर पछतावा हुआ
बड़ा नुकसान नही था चलो जो हुआ सो हुआ
गुजरता गया वक़्त मैं अब हर किसी को बताता
नेकी मत करो देखो, मुझको बुरी दुनिया का पता था
एक दिन फिर वही हुआ, जो हो चुका था पहले
मेरी पहचान ना कर पाई वो, था “हेलमेट” पहने
फिर वैसे ही ले जाकर उतार दिया उसको
मेरा गुस्सा ले गया लग लिया उसके पीछे को
कुछ दूर जाकर झोपड़ी में घुस गई चलते चलते
सच ही है चोरों के महल नही चुना करते
मैं भी झोपड़ी में चल दिया कुछ कर गुजरने को
मैं रह गया अवाक, देख मुझे चौंक गई वो
बच्चे को चम्मच से दूध पिला रही थी
मैं देख रहा बच्चा, वो मुझे देख रही थी
पूछा बाबू साहब, आपको क्या चाहिए
मैंने भी कह दिया, चोरी का हिसाब लाइये
सकपकाकर पैर पकड़, वो रो दी ऐसे
एक माँ नही हो, कोई बच्ची हो जैसे
मैंने कहा काम करो, हाथ पैर साबित है
बच्चे को भी चोर बनाओगी या तेरी आदत है
महिला ने कहा मैं चोर नही बाबू साहब
बताती हूँ मेरे साथ जो हुआ है सब
ये बच्चा मेरा नही, ये सहेली का है
मुझको समझ नही आया ये पहेली क्या है
आगे बोली सहेली तो मर गई बैसे
आखिर बलात्कार झेलकर जीती कैसे
बस तब से इसे पाल रही हूँ जैसे तैसे
काम पर जाने से डरती हूँ, कही मर न जाऊँ सहेली जैसे
इसीलिए ही मैं चोरी भी करती हूँ
बिन ब्याही माँ हूँ न, दुनिया से डरती हूँ
आंसू नही रोक पाया मैं ये हाल देखकर
माँ आखिर माँ होती है, कैसी भी हो रो दिया कहकर

by pravin

क्या इतना बुरा हो गया हूं मैं

June 23, 2021 in मुक्तक

देखकर मुस्कुराते भी नही
क्या इतना बुरा हो गया हूं मैं
हर बार आप-आप कहती हो
सच्ची, इतना बड़ा हो गया हूं मैं
बचपन मे तो छोटी रजाई इतनी लंबी बातें थी तेरी
अपने पैरों पर खड़े होने से तन्हा सा हो गया हूं मैं

रश्क खाते थे दोस्त मेरे
जब हम साथ चलते थे
कितने अच्छे थे दिन
तेरे गम मेरी खुशी से गले मिलते थे
अब तेरी चुप्पी मेरे दिल में चीखती चिल्लाती है
कभी क्या था तेरे लिए, अब क्या हो गया हूँ मैं

कभी दो पल बैठ जा, इल्तजा है
इतनी दूरी, ऐसी क्या वजह है
तेरे चेहरे पर जिसने पहले की रंगत देखी हो
उसको बेनूर देख कर, कितनी बार मर गया हूं मैं

माना मैं तेरा सगा नही कोई
पर सच मान दिल मे दगा नही कोई
ले मेरा सर झुका है तेरे आगे, थाम ले या काट दे
मैं तेरा दोस्त नही फिर, जो उफ भी कर गया हूँ मैं

ए खुदा, किसी को ऐसा बचपन न दे
बचपन दे तो ऐसी दोस्त ना दे
दोस्त दे तो फिर छूटने की वजह न दे
वजह दे तो फिर जिंदगी ना दे
मैंने जिस की खुशी के लिए, जिंदगी उधार की तुझसे
क्यों उसकी एक हंसी के लिए तरस गया हूं मैं

प्रवीनशर्मा
मौलिक स्वरचित

by pravin

अभी जवान हूँ भोले

June 21, 2021 in मुक्तक

जीन्स पहनी शर्ट घौंसी
जिस्म नहला लिया इत्र से
आईने में देखा मुस्कुराहट ने कहा
अभी जवान हूँ भोले, किसी से कम हैं के

बाहर आये तो लगा अब कुछ होगा
जमाना बहुत पीछे रह गया होगा
निगाह सब पर फिराई नापा तोला
अपनी तोंद देखी काश कहीं से कम हो सके

कुछ आज गए कुछ कल कुछ पहले ही कम थे
हाय मेरे रेशमी बाल, मेरे हाथों के सनम थे
सोचा कई बार झूठे बालों का सहारा ले लें पर फिर
बिल्कुल नही करेंगे, जाने दो बेबफा सनम थे

बड़े शर्मीले थे शर्माजी हम अपने लड़कपन में
झुरझुरी छूट जाती थी, कोई गुजरी, तो बदन में
उम्र बढ़ती गई मेरी खामियों के साथ साथ ऐसे
गया सब जैसे खुशफहमी नही हो, मेरे वहम थे

खैर चलो जो हुआ अच्छा हुआ, रहमत तेरी
लाख कमियां है पर खुशियां भी कितनी दी, नेमत तेरी
किसी को पसंद नही तो भी मैं पहली पसंद हूँ अपनी
क्या चौदह सितम होंगे मेरी चार खुशियों से बढ़ के

प्रवीनशर्मा
मौलिक स्वरचित रचना

by pravin

मेरे बाबू जी

June 20, 2021 in मुक्तक

जिनके बिना मेरा नाम अधूरा
जिनके साथ मेरा परिवार पूरा

वो छत है बाकी सब दीवारें है
एक उन्होंने पूरे घर के सपने सँवारे है

वो माँ से कम दिखते है घर मे
कितना कुछ कह देते है छोटी छोटी बातों में

उनके हाथों से बहुत मार खाई है
सख्ती में भी उनके प्यार की मिठाई है

बहन को इतना ज्यादा प्यार जताते है
इसी तरह नारी की इज्जत करना सिखाते है

कुछ पैसो को देने के लिये कितना टहलाते है
दुनिया मे पैसो की अहमियत इसी तरह बताते है

उन्हें कुछ पता नही होता, पूछते है शाम को माँ से
फिर भी बचा लेते है, इस काटो भरे जहाँ से

और कुछ नही बस कहना इतना है
मुझे बड़े होकर बस उनके जैसा बनना है

प्रवीन शर्मा
मौलिक स्वरचित

by pravin

प्रेम किया नही हुआ

June 19, 2021 in मुक्तक

सती और शिव संबाद प्रथम मिलन पर

माना तुमने मुझसे प्रेम किया
प्रेम ने मेरा भी मन छू लिया

एक फ़क़ीर हूँ मैं, जानती हो ना

तुम्हारा क्या भविष्य हुआ
मेरे साथ बस धुआं ही धुआं

मैं वन का घुमक्कड़ साधू
मेरे पास कुछ नही ,तुम्हे क्या दूँ

तुम दक्षसुता हो, मानती हो ना

फिर भी कैसा भूत सवार किया
क्या कोई सोच विचार किया

मुझे सुख और दुख माटी के समान
मेरे पग में कंकर को पुष्पो का मान

क्या श्रृंगार हृदय से बैराग्य चाहती हो ना

जाओ सब भूलकर, अब तक जो किया सो किया
भूल जाना कभी तुमने किसी से प्रेम किया

हे नाथ, आप का आदेश सर माथे
मैं लौट जाउंगी, अपना मत बता के

विरक्ति का विधान चाहते है ना

मैं भूल जाउंगी, अब तक जो हुआ सो हुआ
सिवा इसके की मुझे आपसे प्रेम हुआ

मैंने दिन नही क्षण जिये है आपके लिए
मैं प्यासी भटक रही हूँ, एक बूंद प्रेम का पिये

समस्या का समाधान चाहते है ना

मैं समस्या नही हूँ, संगिनी रहूंगी
राग आपका अन्यथा बैरागनी रहूंगी

माना आप अंतहीन हो बिश्वेस्वर
प्रेम मेरी स्वांस है नही कोई ज्वर

कितने त्याग किये अब एक और चाहते है ना

ऐश्वर्य, महल, परिवार सब तज दिए
प्रेम परीक्षा के लिए सब व्रत लिए

बस यही तक आप मेरे थे, दुख नही
पर मैं आपकी रहूंगी सदा सत्य यही

मैं सती हूँ सती, अगर मेरे प्रेम में सत है ना

तो अब मैं नही आप कहोगे प्रेम से प्रेम हुआ
क्योंकि मैंने प्रेम किया नही आपसे प्रेम हुआ

प्रवीन शर्मा
मौलिक स्वरचित रचना

by pravin

जब तक मैं कंवारा था

June 17, 2021 in मुक्तक

जब तक मैं कंवारा था
मजाक और झूठ का अंतर नही समझ पाया
अब जानता हूँ सच तो लोग खुद से भी नही बोल पाते

जब तक मैं कंवारा था
किसी को दर्द में देख उदास हो जाता था
अब देखता हूं तेहरवीं का जश्न तो छटी से बड़ा होता है

जब तक मैं कंवारा था
मानता था मुझे कोई दर्द नही, मेरी माँ है तो
अब जानता हूँ कुछ दर्द किसी को बताए तक नही जाते

जब तक मैं कंवारा था
लगता था पापा कुछ भी ला सकते है,मेरी खुशी के लिये
अब लगता है बच्चों की खुशी की कीमत जिंदगी के बीस साल होती है

जब तक मैं कंवारा था
आंखों में हूरों के सपने तैरते थे
अब पहचान हुई उनके चेहरों के पीछे कितनी कालिख पुती होती है

जब तक मैं कंवारा था
मुझे बताया गया एक नौकरी और एक पत्नी काफी है
अब बताने से भी कतराता हूँ शर्माजी, वो सब एक गलतफहमी होती है

जब तक मैं कुंवारा था
मुझे कुंवारेपन से चिढ़ सी होती थी
अब चाहता हूँ ताउम्र उसी में गुजरती तो अच्छा होता

by pravin

कहते मेरे है

June 15, 2021 in मुक्तक

एक छत है मगर
अलग अलग कमरे है
कही गम कही खुशी कही बेखबरी
सभी अलग अलग चेहरे है
कोई नही जानता रात किसकी कैसी थी
कही हल्के कही गहरे काले घेरे है
उसकी इजाजत से उस तक जाना मुश्किल है जरा
अलग दुनिया है अलग अलग पहरे है
घरौंदे होते थे कभी, अब बस मकान होते है
पसंद का रंग भी नही जानते, कहते मेरे हैं

by pravin

बहना की पाती

June 14, 2021 in गीत

प्रिय भैया

लिवा ले जाओ न आकर
तुम्हारी याद आती है
यहाँ खुश हूं बहुत लेकिन
मुझे खुशियां रुलाती है
जबसे आई हूं रोती हु कमरा बंद कर करके
कोई आता है तो होंठो में सिसकी सिल जाती है
पूरा दिन झोंक देती हूं चूल्हे की आग में लेकिन
क्या करूँ अम्मा मेरे सपने में आती है
याद नही आता यहाँ कब किस्से रूठी थी
मेरी चूड़ियां मनाती है पायल समझाती है
कन्यादान हो आई यहाँ अपने बनाने को
तेरी तस्वीर ही भैया मुझे अपना बताती है
यहाँ सब अच्छे है लेकिन कोई बात है ऐसी
अपना होने में और बनने में अंतर जताती है
अम्मा ने कहा था आते समय भैया को भेजूंगी
क्या बिगाड़ा था उनका हाय मुझको भुलाती है
चाहिये कुछ नही मुझको मैं जल्दी लौट जाऊंगी
एक बार लिवाने आओ न मुझे यादे बहुत रुलाती है

तुम्हारी अपनी बहन

प्रवीन शर्मा
मौलिक स्वरचित रचना

by pravin

स्लो जनरेशन का अज्ञानी

June 13, 2021 in गीत

इन घड़ी वालों के पास वक़्त कहाँ है
इनकी बातों में वो बात अब कहाँ है
जिंदगी आसान करने के फंडे ढूंढते ढूंढते
छप्पर तो अभी भी है, उठवाने वाले हाथ कहाँ है।

इस अंधी दौड़ में, पर्दे में है सबकी आंखे
किसी छप्पर फटने के इंतजार में सबकी बाहें
दूरी कम करने में कमर कस के लगे है मगर
पास रहने वालों के भी पास आते कहाँ है।

जन्मदिन याद रखने को ‘कलैंडर’ ढूंढते है
लोरी अब बच्चे ‘मोबाइल’ पर सुनते है
जमाना बदल गया साहब फिक्र मत करिए
दोस्ती के लिए ‘राइट स्वाइप’ है ‘राइट चॉइस’ कहाँ है।

पिछली ‘जनरेशन’ ‘स्लो’ थी,अब ‘लवली ग्लो’ है
बताया था याद नही रहा, प्यार कितने रुपये किलो है
‘फिगर कॉन्शियस’ माएँ अब दूध डब्बे का लाती है
बच्चों की गर्लफ्रेंड रूठी है ‘कॉकटेल’ में, बचपन कहाँ है।

खैर अच्छा हुआ मैं बूढ़ा हो लिया जल्दी
अनसुना करो, इन बातों में अब कोई ज्ञान कहाँ है।

by pravin

ज़ौक में

June 13, 2021 in शेर-ओ-शायरी

अब आ ही गए हो तुम तो
दुश्मन की जरूरत ना रहेगी
बैठे बैठे बहुत वक़्त गुजर गया
लगता है अब फुरसत ना रहेगी
नाम तुम्हारा भी सुना था बड़ा
देखने की हसरत अधूरी ना रहेगी
हमसे मिलना तभी जब बड़े गुस्से में हो
जौक में मिल गए तो दुश्मनी की आदत न रहेगी

जौक:मजे

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