तुमने बरसाया उजाला

February 19, 2023 in गीत

हम अंधेरों से झगड़ते फिर रहे थे दर-ब-दर ।
तुमने बरसाया उजाला हो गए हम तर-ब-तर।

मुस्कुराए तो अमावस की उदासी खो गई ।
साथ आए तुम तो मेरी पूर्णमासी हो गई ।
तुम न थे तो था जमाने से बहुत शिकवा गिला ।
तुम मिले तो हाथ थामे है खुशी का काफिला ।

मन मिले तो मान लीं हमने तुम्हारी मर्जियाँ ।
मार दीं एक दूसरे के वास्ते खुदगर्ज़ियाँ।
प्यार में मर कर मिला है प्यार करने का मजा।
यूँ मरे तो जी रहे हैं तुम पे मरने का मजा ।

यों निभाते रहे हम दस्तूर ए उल्फत उम्र भर।
प्यार के आगोश में सिमटे कभी तो गए बिखर।

संजय नारायण

नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन

December 31, 2021 in गीत

नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन
आमोद !प्रमोद! विनोद !नवल !नव हर्ष! तुम्हारा अभिनंदन !
नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन !!
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नवसंतति के नवचेतन में फूटें अंकुर मुद -मंगलमय ।
नवचिंतन के नूतन किसलय महकें बनकर सत्कीर्ति- मलय ।
विस्मृत करके काले अतीत शोणित में हों नवभाव विलय।
कलुषित का हो देहावसान नूतनता की जय जय जय जय !!
विकृतियों संग स्वीकृतियों के संघर्ष तुम्हारा अभिनंदन!
नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन!!
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उल्लास के भाव भरी गठरी भरकर हिय डाँवाडोल उठें।
अभिसिंचित नवल ज्योत्स्ना से अन्तरतम के पट खोल उठें।
सौहार्द के बिगुल बजें ऐसे तन डोल उठें मन डोल उठें।
ढाई अक्षर से मोहित हो गूँगी आँखें भी बोल उठें।
खिल उठें अधर पर मुस्कानें गा उठें ह्रदय के स्पंदन।
नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन!
नववर्ष तुम्हारा अभिनन्दन!!
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संजय नारायण

दोस्त

November 16, 2021 in गीत

शर्मा शुक्ला मिश्रा यादव वर्मा वैश्य बनर्जी दोस्त।
खतरनाक है सबमें लेकिन असल शक्ल में फर्जी दोस्त।।

जिस थाली में करता भोजन उसी थाल को देता छेद।
अपने घड़ियाली स्वभाव का नहीं तनिक भी उसको खेद।
अक्सर मुँह की ही खाता है जब करता मनमर्जी दोस्त।।

रुके कमाई जब ऊपर की लगे बेचने खुद्दारी।
पाँव पकड़कर दरबारों से बस माँगे पहरेदारी।
हथियाने की जुगत भिड़ाये और लगाये अर्जी दोस्त।।

दिखे जरूरतमंद कहीं तो कन्नी वहीं काटता है।
माल मलाई के लालच में तलबे कहीं चाटता है।
तनकर होता खड़ा सभा में दिखता है खुदगर्जी दोस्त।।

पैनी नज़र गिद्ध से ज्यादा लेता ढूंढ मीन में मेख।
औरों की अचकन के भीतर छिपे दाग भी लेता देख।
खुद का गिरेबान सी लेता बहुत कुशल है दर्जी दोस्त।।

संजय नारायण

दुनियाँ

November 13, 2021 in गीत

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निष्ठा सच ईमानदारी से लड़ लड़ जूझ रही दुनियाँ।
जो पारंगत षड़यंत्रों में उनको पूज रही दुनियाँ।।

कम से कम प्रयास करके भी जमना चाहें चोटी पर।
शोध कर रहे मिलकर प्यादे शह मातों की गोटी पर।
चाटुकारिता सरल पहेली सबको बूझ रही दुनियाँ।।

भिन्न भिन्न है कथनी करनी हरिश्चन्द्र का बाना है।
जिनकी छद्मवेश प्रतिभा का सीमित नहीं खजाना है।
कर्ण कर्ण में उनकी तूती बनकर गूँज रही दुनियाँ।।

धर्मराज को दुर्योधन में श्रीनारायण दिखते हैं।
दुर्योधन को नारायण भी पाप परायण दिखते हैं।
दुष्कर्मी को अपने जैसी पापिन सूझ रही दुनियाँ।।

नये दौर में जाने क्या क्या भाव घुसे हैं भेजे में।
जल चुकती बस्ती, पड़ती है ठंडक तभी कलेजे में।
बैर भाव की आग लगाकर भाजी भूंज रही दुनियाँ।।

संजय नारायण

पाँव फिर से जी उठे हैं

March 1, 2021 in गीत

जब मिलीं दो युगल आँखें
अधर पर मुस्कान धर के।
गा उठे टूटे हृदय के
भ्रमर मधुरिम तान भर के।

सर झुकाकर दासता
स्वीकार की अधिपत्य ने।
गर्मजोशी जब परोसी
अतिथि को आतिथ्य ने।

यूँ लगा रूखे शहर में
गाँव फिर से जी उठे हैं।
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किंशुकों की कल्पना में
कंटकों से घिर चुके थे।
पत्थरों की ठोकरों से
लड़खड़ाकर गिर चुके थे।

सोंचकर छिलने की पीड़ा घाव
डरने से लगे थे।
फिर सफर के प्रबल आशा भाव
मरने से लगे थे।

तुम बने आलम्ब जब से
पाँव फिर से जी उठे हैं।
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लब्धि का प्रारब्ध के संग
द्वन्द्व जब पर्याप्त देखा।
एक मरुथल मित्रता के
चक्षुओं में व्याप्त देखा।

मरुथलों के ढेर दिखते
रहे हर सम्बन्ध में।
तब कहीं तुम आ मिले
सम्बन्ध के अनुबंध में।

मरुथलों में आश्रयों के
ठांव फिर से जी उठे हैं।।
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प्रीत पर सर्वस्व बरबस
वार बैठे हैं।
प्रीत की नव रीत पर हिय
हार बैठे हैं।

हारकर हिय प्रिय स्वजन की
जीत यों साकार की है।
जीत कर भी प्रीत हित में
हार भी स्वीकार की है।

हार में भी जीत वाले
दाँव फिर से जी उठे हैं

-संजय नारायण

कोई नहीं महान बना है

February 20, 2021 in गीत

फूलों के बिस्तर पर जन्मा पला बढ़ा उल्लासों में ।
जिसको प्रचुर मिली सुविधाएं डूबा भोग विलासों में ।
है भूमिका भाग्य की लेकिन अथक परिश्रम किए बिना,
कोई नहीं महान बना है अब तक के इतिहासों में ।

बड़े बड़ों के साथ खड़े होने में क्या महानता है ?
हृदय तुच्छ तो हाथ बड़े होने में क्या महानता है ?
है आकलन तुम्हारा इससे , किस पथ पड़ते पांव युगल ;
जिस सीमा तक संकट सहते, मानो उसे वास्तविक बल ;

गुणहीनों के गुणगानों में संगीत गुने तो क्या पाया?
पदचिन्हों पर चलने वाले पथिक बने तो क्या पाया?
नाविक हो तुम धारा के संग कभी बहाओ अपनी नौका!
और कभी विपरीत दिशा में खेने का भी ढूंढो मौका!

कभी हवा विपरीत देखकर भय के मारे मत रह जाना।
कभी प्रतीक्षा में मुहूर्त की खड़े किनारे मत रह जाना।
चाहे चलो दिशा धारा की, चाहो तो विपरीत चलो ,
चलना तो प्रत्येक दशा में , किंतु सहारे मत बह जाना।।

संजय नारायण

दुनियाँ तो जहरीली है

November 1, 2020 in गीत

सोंच समझकर कदम बढ़ाओ राह बहुत पथरीली है।
साथी मीठे सुर गुंजाओ, दुनियाँ तो जहरीली है।।

ख़ुशी परायी देख ख़ुशी से किसका हृदय मचलता है।
कौन हृदय है जिसके भीतर प्रेम- पपीहा पलता है।
बिना कपट के किस कोकिल के स्वर का जादू चलता है।
स्वार्थ न हो तो तुम्हीं बताओ, किसकी कूक सुरीली है।

साथी मीठे सुर गुंजाओ दुनियाँ तो जहरीली है।।

मोहक कलियाँ मिल जाती हैं राहों में आते जाते।
कुछ के अधर इशारा करते कुछ के नैना मुस्काते।
मृग मरीचिका ये आकर्षण सम्मोहन ही बिखराते।
इस मद की जद में मत आओ, वनिता नयन नशीली है।

साथी मीठे सुर गुंजाओ दुनियाँ तो जहरीली है।।

जीवन एक दौड़ स्पर्धा ठहर गए तो हार गए।
बाधाओं के गहरे सागर जो उतरे वो पार गए।
चलते चलते थके वही जो नहीं समय की धार गए।
समझो सँभलो बढ़ते जाओ पगडण्डी रपटीली है।

साथी मीठे सुर गुंजाओ दुनियाँ तो जहरीली है।।

संजय नारायण

किया है प्यार

October 30, 2020 in मुक्तक

किया है प्यार तो इकरार से इन्कार क्या करना।
है मरना शौक़ बचने का जतन बेकार क्या करना।
तेरा आगोश ही मझधार बनकर गर डुबाता हो,
तो आशिक़ दिल ये कहता है कि दरिया पार क्या करना।

संजय नारायण

जीवन भर यह पाप करूँगा

October 29, 2020 in गीत

स्वयं टूटकर स्वयं जुडूँगा सब कुछ अपने आप करूँगा।
विगत दिनों जो भूलें की हैं उनका पश्चाताप करूँगा।।

मेरी त्रुटि थी किया भरोसा मैंने अपने यारों पर।
समझ न पाया पग रख बैठा मैं जलते अंगारों पर।
यदि स्नान पड़े करनी अब असहनीय पीड़ा के सर में
करे विधाता दंड नियत यह किंचित नहीं विलाप करूँगा।
विगत दिनों जो भूले की हैं उनका पश्चाताप करूँगा।।

भेदभाव की फसल उगाकर धरा कहीं से धन्य नहीं है।
ऊँच-नीच है धर्मकर्म तो धर्मकर्म भी पुण्य नहीं है।
मैं शोषित वर्गों को उनका हक दिलवाकर ही दम लूँगा
पुण्य ! क्षमा कर देना मुझको जीवन भर यह पाप करूँगा।
विगत दिवस जो भूलें की हैं उनका पश्चाताप करूँगा।।

दागी छबि का पहनावे से धवल दिखावा अर्थहीन है।
मानवता से मुड़े मुखों का काशी काबा अर्थहीन है।
यदि दुखियों को हँसा सका तो मैं अपने दुख विसरा दूँगा
व्यथित नहीं हो हृदय किसी का ऐसे क्रियाकलाप करूँगा।
विगत दिनों जो भूलें की हैं उनका पश्चाताप करूँगा।।

करुनाहीन चक्षु के सम्मुख करुणामय विनती क्या करना।
निर्दयता ने जो हिय को दी पीड़ा की गिनती क्या करना।
क्या गिनती करना नेकी की परहित अथवा हरि सुमिरन की
बिखरा दूँगा कर की मनका फिर अनगिनती जाप करूँगा।
विगत दिनों जो भूलें की हैं उनका पश्चाताप करूँगा।।

संजय नारायण

पूजनीय शिक्षक

August 17, 2020 in Other

शिक्षक सम संसार में हितकारी ना कोइ।
सकल सृष्टि के भाग्य का एक विधाता सोइ।।

कहिए द्विज, शिक्षक, गुरु या कहिए उस्ताद।
परमेश्वर को पूजिए गुरु पूजन के बाद।।

लेकर गुरु की चरण- रज मस्तक तिलक रचाय।
संजय ऐसे शिष्य पर शारद होयँ सहाय।।

शिक्षक के सम्मान को पहुंचाए जो चोट।
उस नेता के पक्ष में कभी न करना वोट।।

बनता अगर कलेक्टर रहता धक्के खाय।
बलिहारी माँ बाप की शिक्षक दियो बनाय।।
खुद अध्ययन करता रहे, रहे बाँटता ज्ञान।
खुद सीखे यदि अनवरत दूर करे अज्ञान।।

औरन को भल बनन की बांटो तभी सलाह।
जब तेरे खुद के चरण सही पकड़ लें राह।।

करे मनन चिंतन सदा दूर करे निज खोंट।
निर्विकार बन तब करे परदोषों पर चोट।।

अपने अवगुण ज्ञात कर व्यापक करो प्रचार।
रिपु में यदि सदगुण दिखे तुरत हृदय में धार।।

अपनी कमियाँ प्रकट कर दोष अन्य के गोय।
यद्यपि सो जन गुण रहित पर सर्वोत्तम होय।।

संजय नारायण

Every single stone remains in calm

July 16, 2020 in English Poetry

Someone, every moment, with a dagger in hand,
Must have fear planted in mind’s land.

Even after being struck by gusts of storms,
Abode of my sentiments alters not in norms.
There rests only one season of dejection there,
Seeking guests like peace and solace everywhere.
It’s because my ours made me split,
The louder I scream the harder they hit.

Truly every single stone remains in calm,
And for mirror’s pain and suffering there is no balm.

I am fully fed-up with that deceptive bride,
Who this is, dwelling in entire me inside.
Careful perusals on every question provide,
That every problem hides it’s solutions inside.

Sanjay Narayan Nectar

दुआ इतनी है

July 15, 2020 in ग़ज़ल

दुआ इतनी है कि रोज इस तरह भी बेशुमार आएं।
दिन ढले तो बहार आए रात गुजरे तो बहार आए।

घटाएँ चिलमन हैं खुशियाँ हैं रोशनी की किरण,
घटाएँ ढलती रहें रोशनी के गुबार आएं।

हमारी बात और है कि रहते हैं हम अंधेरों में,
तुम उजाले हो क्यों न हमें तुम पर प्यार आए।

कुछ समझ नहीं आता क्या बात है चेहरे में,
देखें तो खुमार आए बिन देखे न करार आए।

आज का दिन हो उल्फत का तरन्नुम हो साज हो,
आज ही आज हो कल कभी कभार आए।

जिंदगी की जिंदादिली मैं तुमसे आज कहता हूँ,
अपनाते चले जाओ जिंदगी में निखार आए।

संजय नारायण

हमें भी पिलाइए

July 15, 2020 in ग़ज़ल

मेरे लबों की आप सदा बनके आइए।
खुद जाम पीजिए, हमें भी पिलाइए।

नज़रों में आपकी मयखाना नज़र आये।
मखमूर क्यों न हो इनमें जो उतर जाए।
मयकश की लाज रखिए तशरीफ़ लाइए।
खुद जाम पीजिए हमें भी पिलाइए।

जादू की कशिश हैं ये जलबों भरी अदायें।
जुल्फों में भी हजारों महफूज हैं घटायें।
छिटकाइए ये जुल्फ प्यास को बुझाइए।
खुद जाम पीजिए हमें भी पिलाइए।

खुशरंग गुलबहार है ये हुस्न आपका।
बेदाग चाँद जैसा है चेहरा जनाब का।
हो जाए जहां रोशन घूँघट उठाइए।
खुद जाम पीजिए हमें भी पिलाइए।

संजय नारायण

पत्थरों की तरह आदतें हो गयीं

July 15, 2020 in ग़ज़ल

हम भी रोये नहीं मुद्दतें हो गयीं।
पत्थरों की तरह आदतें हो गयीं।

जबसे बेताज वह बादशाह बन गया,
पगड़ियों पर बुरी नीयतें हो गयीं।

जख्म भी दर्द देते नहीं आजकल,
कम सितमगर तेरी रहमतें हो गयीं।

खुशनुमां एक चेहरा दिखा ख्वाब में,
तबसे जागे न हम मुद्दतें हो गयीं।

थी खबर आदमी हैं उधर राह में,
जो भी गुजरा उसे आफ़तें हो गयीं।

एक मुफ़लिस था वो रोटियाँ माँगकर,
झोलियाँ भर गया नेमतें हो गयीं।

शौक जबसे अमीरी का चढ़ने लगा,
जो जरूरी न थीं, जरूरतें हो गयीं।

उसको जो भी मिला चाहने लग गया,
दिल की पूरी सभी मन्नतें हो गयीं।

ले गयीं दाद सब वो सजी सूरतें,
और खामोश सी सीरतें हो गयीं।

दिल भी टूटा जहां ने भी रुसवा किया,
इस कदर मेहरबां किस्मतें हो गयीं।

डूबकर खुद हवस में बिके आदमीं,
मुफ्त बदनाम ये दौलतें हो गयीं।

वो मुहब्बत में बदनाम तो हैं मगर,
खुश हैं यूँ मानिए शोहरतें हो गयीं।

उसको तनहाइयों ने बिगाड़ा बहुत,
उसकी खुद से बड़ी सोहबतें हो गयीं।

गालियों गालियों जब लड़े आदमी,
तब निशाना फ़क़त औरतें हो गयीं।

मुस्कराकर जो तुम सामने आ गए,
एक पल में जबां हसरतें हो गयीं।

हाँथ में हाँथ ले साथ हम चल पड़े,
दुनियाभर को बहुत दिक्कतें हो गयीं।

संजय नारायण

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