बंद आंखों की

September 21, 2022 in हिन्दी-उर्दू कविता

बंद आंखों की कोरों पर
ठहरी बूंदें
गोया
पलकों के पीछे
गहराते अंधेरे में क़ैद किरणें
अपनी ही आंच में
पिघलती जा रही हैं धीरे- धीरे

०४.०९.२०२२

अब के झमाझम

September 21, 2022 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब के
झमाझम सावन ने
ताना अंतरपट
झीना, झिलमिल – झिलमिल
अंबर से धरती तक

ढोल – नगाड़े बजते अविरत
बिजली का मंडोला सजता नभ में
बूंदों का सेहरा बांधे
उतरा बादल
धानी धरती का हाथ थामने

१५.०८.२०२२

सावन

August 28, 2022 in हिन्दी-उर्दू कविता

अब के
झमाझम सावन ने
ताना अंतरपट
झीना, झिलमिल – झिलमिल
अंबर से धरती तक

ढोल – नगाड़े बजते अविरत
बिजली का मंडोला सजता नभ में
बूंदों का सेहरा बांधे
उतरा है बादल
धानी धरती का हाथ थामने

१५.०८.२०२२

पूछा करते जब

February 18, 2022 in हिन्दी-उर्दू कविता

बचपन में
पूछा करते जब भी दादी से
दादी साड़ी श्र्वेत क्यों
सर पर काले केश नहीं क्यों
दादी कहतीं
‘ रंग गए सब दादा के संग
वेणी, जूड़ा, काजल, बिंदी, केश गए दादा के संग
ये ही उत्तर पाया मैंने भी
जब भी पूछा
अपनी मां से, नानी से, दादी से
ये ही उत्तर पाया उनने भी
अपनी मां से,नानी से, दादी से ‘

संग नहीं लिया मेरे बाबा नेअपने कुछ
मां से पूछा
मां बोलीं बेटा
वेणी, जूड़ा, काजल, बिंदी और रेशमी रंग
छोड़ गए सब आंगन में
बाबा तेरे संग ले गए मन के सारे रंग।

१५.०२.२०२२

बारिश की बूंदें

February 18, 2022 in मुक्तक

बारिश की बूंदें
सहला गईं प्रकृति का अंग अंग
हरियाईं उपेक्षित शिलाएं
अहिल्या जन्मी
राम जी के पदन्यास से

०८.०२.२०२२

फूला पलाश

March 27, 2021 in हाइकु

झूमते पात
फागुनी बयार में
झूमते गात

वासंती तानी
खेतों पर चादर
फूली सरसों

दहके वन
केसरिया वितान
फूला पलाश

महके वन
महुआ से, अंबुआ
से उपवन

प्रीत के रंग
भीगी गूजरिया रे
पिया के संग

१८.०३.२०२१

गीली रेत पर…..

December 31, 2020 in Poetry on Picture Contest

थमी हुई जिंदगी
थमे हुए पल
रुकती, चुकती सांसें
उंगलियों की पोरों से छूटते
रिश्तों के रेशमी धागे
ठंडी, बेजान दीवारों से टकराते
जीने, मरने, हंसने और रोने के पल
कितना कुछ
लिख गया गुज़रता साल
गीली रेत पर

कोई तो मौज हो
मिटा जाए इस अनचाही तहरीर के निशान
छू जाए
आते साल का पहला क़दम
कि ज़िंदगी बेख़ौफ फिसल आए
बेजान दीवारों से
फिर लिख जाए अपना नाम
गीली रेत पर

डॉ. अनू
३१.१२.२०२०

मुक्तक

September 27, 2020 in मुक्तक

मैं अभिमन्यु
मां के पेट में ही मज़दूरी के गुर
सीख चुका था;
किंतु निकल नहीं पाया इस
चक्रव्यूह से-
इसी से पीढ़ी दर पीढ़ी
मज़दूरी की विरासत बांट रहा हूं !

मुक्तक

September 27, 2020 in मुक्तक

लकड़ी जली, कोयला हुई
कोयला जला, राख रही
अग्नि परीक्षा सीता की
राम जी की साख रही

२७.०९.२०२०

मुक्तक

May 17, 2020 in Other

लकड़ी जली, कोयला हुई
कोयला जले, राख रही
अग्नि परीक्षा सीता की हुई
राम जी की साख रही

१७.०५.२०२०

इंतज़ार

March 23, 2020 in मुक्तक

इंतज़ार झिलमिलाता रहा
रातभर आंखों में!
तुम नहीं
तुम्हारा पैग़ाम आया
‘आज न सही, कल की बात रही’।

चलो मान लेते हैं;
एक और झूठ
तुम्हारे नाम पर जी लेते हैं

घर

March 12, 2020 in Other

‘यह कैसा घर है!
कि- जिस में
एक भी झरोखा नहीं’
दहलीज़ पर खड़ी हवा बोली।

सुनो
कुछ देर को मुझे अंदर आने दो-
यहां बाहर
बड़ी घुटन है।

राह भूल सी गई है हमको

March 7, 2020 in ग़ज़ल

राह भूल सी गई है हमको
जो छोड़ आओ, तो बात बने

मंज़िल की सरहद पर दीया
जो छोड़ आओ, तो बात बने

मेरी तेरी या उसकी बातें
जो छोड़ आओ, तो बात बने

ढाई आखर हर देहरी पर
जो छोड़ आओ,तो बात बने

क्षणिकाएं

March 5, 2020 in मुक्तक

1.

कदम छोटा हे या बड़ा
हर मोड़ पर
इंतज़ार है ज़िंदगी को –
चुन लिए जाने का

2.

राम
लिखा सुनहरा
इतिहास ने तुम्हारा नाम ;
तुमने –
गढ़ ली सीता सोने की !

( तज दी सीता सोने सी !!! )

क्षणिकाएं

March 4, 2020 in मुक्तक

1.

पहली ही सीढ़ी पर
एहसास हुआ,
सर पर खुला आसमां हो भले ही
अब –
पैर तले ज़मीन नहीं

2.

चाहे-अनचाहे उग आए हैं
संबंधों में
अपरिचय के विंध्याचल ;
हम भी जो
पा लेते थोड़ा सा
अगस्त्य का बौनापन !!!

सुनते आए हैं…..

March 2, 2020 in काव्य प्रतियोगिता, हिन्दी-उर्दू कविता

सुनते आए हैं –
अपनों का पर्व है होली

मेरे आंगन जली होलिका
मैं ही पंडित, मैं ही पूजा
मैं ही कुंकुम, अक्षत औ” रॊली;
सूनी गलियां, सूने गलियारे,
सूने हैं आंगन सारे
कौन संग मैं खेलूं होली!

सुनते आए हैं –
रंगों का पर्व है होली

सुबह गुलाबी नहीं रही, अब
सांझ नहीं सिंदूरी,
धरती से रूठी हरियाली
बेरंगा है अंबर भी;
रंगों की थाल सजी, पर
कौन रंग से खेलूं होली!

सुनते आए हैं –
खुशियों का पर्व है होली

हर चेहरे पर भय-आशंका
हर माथे पर काला टीका,
थके हुए तन, हारे से मन
सोच समझ पर पड़ा है ताला ;
संदेहों के जालों में
घिरा हुआ है हर आदम,
कौन ढंग की खेलूं होली!

सुनते आए हैं –
अपनों का पर्व है होली !
रंगों का पर्व है होली !!
खुशियों का पर्व है होली !!!
0य103य2020

डॉ. अनु सोमयाजुला

साझा दुःख

February 26, 2020 in हिन्दी-उर्दू कविता

माई री
हम दोनों का दुःख साझा है.।

तू कुम्हलाई
तू मुरझाई
््अंग-अंग तेरे पड़ी बिवाई

्अंबर हारा
दस दिश हारे
सूख गया आंखों का पानी

तू ही बतला
तुझ पर रोऊं या
बाबा की निर्जीव देह पर
माई री
हम दोनों का दुःख साझा है

हर नव कोंपल में
उस की सूरत
हर डाली उसका ही कांधा है
माई री
बाबा का यह सच
हम दोनों का ही साझा है
हम दोनों का दुःख साझा है

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