आग कहाँ नहीं होती !

June 25, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

( संदर्भ आपातकाल )
‘वे’
चंद लोग थे
जो, आए और
ज़ब्त करने लगे
आग के संभावित ठिकाने ।

—– रौशनी गुल कर दी
—– चूल्हे ठंडे
और, माचिस गीली ।
: सख़्त पाबंदी थी
सूरज पर भी
न ऊगने की ।

‘वे’
आश्वस्त थे
अब, आग नहीं है !
….. कहीं नहीं है !!
आदमी : गूंगा और
आक्रोश : जड़ हो गया है ।

मगर;
खुली थीं : निगाहें
हैरत से —- भय से
आग समा रही थी, उनमें
प्रतिहिंसा की लय से …..
क्या;
‘वे’, जान सके
आग का नया ठिकाना ?

25 जून 1975 की भयावह स्मृतियों को समर्पित

*****#anupamtripathi*****

आज का गीत : दो पहलू

January 6, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

[01] आज का गीत
आज का गीत, कुछ इस तरह बना !
मानो किसी बदन पर
बेशुमार हुस्न संवरा
शब्द : लुभावने तिल की तरह
बिखर गए कागज के गुदाज़ बदन पर
सौन्दर्य प्रतिमान बन कर
भाव —————-
आंखों का मूक आमंत्रण बने
हुआ सपनों का इन्द्रधनुषी संसार घना
आज का गीत, कुछ इस तरह बना………..
………………….000……………….
[02] आज का गीत कुछ इस तरह बना !
किसी अकुलाए मन का चेहरा
………………….आंसूओं से सना

शब्द: थरथराते लबों पर ठहरे
मौन–व्यथा की तरह ठिठके
और, मन–वीणा पर
दर्द की लकीर बनकर
बहने लगे भाव
जीवन का नाम ही, शायद है : अभाव
मन; अश्रुधार से हलका हो भी न सका
कि; धड़कनों का सैलाब लिए, टीस का समन्दर जमा
आज का गीत, कुछ इस तरह बना…………………..
……000……#anupamtripathiG ……000……

गीत — तुम नहीं तो ….. !

July 4, 2018 in गीत

तुम नहीं, तो…… !
: अनुपम त्रिपाठी

तुम नहीं; तो ग़म नहीं ।
ये भी क्या कुछ कम नहीं ।।
तुम जो थे, तो ये भी था और वो भी था
हर तरफ पसरी पड़ी रहती ……… व्यथा
दर्द–—की-—-नदियां कई–बहतीं–यहां
फिर भी कोरे मन में कोई संगम नहीं
तुम नहीं; तो ………

कई उदास दिन ओढ़कर, काट ली हैं तनहा रातें
साथ थे, तो चुप भली थी, गूंजती अब बिसरी यादें
सूनी पलकों पे तने हैं—-स्वप्न के वितान सारे
बुन रहीं–आंखें समन्दर, फिर भी कोरें नम नहीं
तुम नहीं; तो ……..

भूल कर भी भूलना, अब तलक सीखा नहीं
याद : मीठा–सा ज़हर है, कड़वा या तीखा नहीं
इस तरह से दिन जुदाई के, ये सारे कट रहे
लग रहा है–सफ़र खत्म पर, तुम नहीं या हम नहीं
तुम नहीं; तो ……..

कई कहानी कै़द हैं , इन बिस्तरों की सलवटों में
आह–सिसकी और समर्पण, चींखते अब करवटों में
थ….र….थ….रा….ते लब खामोशी के नहीं कुछ बोलते
आंख : पत्थर– स्वप्न : बंज़र, रूठे सुर : सरगम नहीं
तुम नहीं; तो …………..

हम मिलन की आस लेकर, दिन–पहाड़ों पर चढ़े
रातें : तारे गिन के काटीं, विरह–ज्वाला में जले
मन की वल्गा थाम कैसे, कामना के अश्व को
किया वश में, हमने ‘अनुपम’,किए क्या-क्या जतन नहीं
तुम नहीं; तो ……………
*****#anupamtripathiG*****

ग़ज़ल

July 4, 2018 in ग़ज़ल

इक समंदर यूं शीशे में ढलता गया ।
ज़िस्म ज़िंदा दफ़न रोज़ करता गया ॥

ख़्वाब पलकों पे ठहरा है सहमा हुआ ।
‘हुस्न’ दिन-ब-दिन ख़ुद ही सँवरता गया ॥

‘इश्क़’ है आरज़ू या कि; सौदा कोई ।
दिल तड़पता रहा -— दिल मचलता गया ॥

क्या हो शिक़वा कि; ‘अनुपम’ यही ज़िन्दगी ।
‘ज़िंदा’ रहने की ख़ातिर ‘मैं’ मरता गया ॥
#anupamtripathi #anupamtripathiG
———- गोयाकि; ग़ज़ल है ! ———-

उम्र की पतंगें !

May 29, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

कविता
 
उम्र की पतंगें
: अनुपम त्रिपाठी
 
वे, बच्चे !
बड़े उल्हास से
चहकते—मचलते; पतंग उड़ाते
…………. अचानक थम गए !!
 
उदास मन लिए
लौट चले घर को
———— पतंग छूट जाने से
———— डोर टू…ट जाने से
 
क्या, वे जान सकेंगे ?
कभी कि; ————
हम भी बिखेरा करते थे, मुसकानें यूं ही
: चढ़ती उम्र के; बे—पनाह जोश में .
 
मगर;——-
गुमसुम हैं, आज !
समय की रंगीन—अमूल्य पतंग; छूट जाने पर
अभिलाषा के अंत—हीन आकाश में ———–
—————–उम्मीद की डोर; टू…ट जाने पर .
 
‘वे’, तो खरीद लायेंगे
कल फिर,
कई उमंगें—–नई पतंगें
पर, क्या करें “हम” ????
******______******
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कविता — व्यक्ति–विशेष

May 21, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

बंधु !

आज स्व. राजीव गांधी की पुण्य—तिथि है।

एक सपना और उसमें समाहित लालसा का स्मरण दिवस।

हार्दिक श्रुद्धांजलि के साथ

एक व्यक्ति — दो भाव

 

कविता – 01   

व्यक्ति—विशेष

|| स्वप्नभंग ||

: अनुपम त्रिपाठी

तब;

जबकि,

एक समूची पीढ़ी

निस्तेज़ कर दी गई

 

कोई नहीं; देख सका ………..

उन सपनों को, जो समाए थे

: इक्कीसवीं सदी के लिए !

 

काश !

कोई तो होता !!

वहीं–कहीं; आस—पास

(जहां लहूलुहान थी धरा और क्षत—विक्षत लाश)

जो; समेट सकता

हिंसा का विलाप

 

फ़िर;

उकेरता

‘कबूतर के पंख पर’

ताज़ा रक्त से

अहिंसा के स्वर

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कविता – 02   

व्यक्ति—विशेष

|| एक अबूझ प्यास ||

: अनुपम त्रिपाठी

 

एक व्यक्ति; जो फेंटता रहा  : सेना

“ताश के पत्तों सरीखा”

जिसने; ‘अहिंसा’ को ‘शतरंज’ की तरह खेला

और; जुटाता रहा ‘मेला’

 

शक्ति थी उसके पास —– अनुभव के नाम पर

गौरवशाली वंश—परंपरा —– सत्ता की दुकान पर

 

जलता पंजाब ………. पिघला न सका जिसे

कराहता नागालेंड ……… रुला न सका जिसे

 

बुल्लेट—प्रूफ़ ‘जैकेट’ पहने

जो; मिलता रहा : निहत्थी जनता से

 

वही व्यक्ति !

पिघलने लगा : “पराई आग में”

: अंतर्राष्ट्रीय छबि की लालसा !

या कि; ‘नोबल’ की चाह में  !!

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21—05—2017

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‘ क्या यह सच नहीं !’

May 10, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता

 

॥ “ यादों के जुगनू “ ॥

वह लड़की !
: न भूली होगी मुझे
: न भुलाई गई मुझसे

वह लड़की जानती है —-
ज़िस्म की ज़द — सम्बन्धों की हद
इसीलिए तो ;
इक ख़ुशबू की तरह फैली है : मेरे ज़ेहन मैं
और धूप की तरह ठिठकी रही : मन की मुंडेर पर
कुत्सित आकांक्षाएं —– कई बार जनमीं
मसल दी गईं — मन… ही… मन… में
“जु…..ग…..नू “ की त…..र…..ह

उसे पता है ——–
उसका ज़िस्म, दरिया की तरह उन्मुक्त है
और निरपेक्ष है : रूप ; जैसे बारिश की : धूप

वह लड़की !
यक़ीन नहीं करती
इस धारणा में
कि; चढ़े सफलता की सीढ़ी
बिस्तर की सिलवटें गिनते—सहेजते

उसे हैरत है !
कि; इतनी संज़ीदगी अब भी है, उसके पास
“चा …….ह ……त” न बन सकी : प्यास
फ़िर; क्यूँ बुन ली गई, अफ़वाहों की धुन्ध
अफ़सानों की गहरी सुरंग…..उसके ‘आस-पास’

मेरे और उसके दरमियाँ
महज़ एक विश्वास और सहजता के
कुछ नहीं………..’.कुछ..भी..नहीं ‘

मेरे लिए उसे छूना
अपने खिलाफ खड़ी परछाई को
आत्मसात करने जैसा ही दुरूह है

अभी—अभी : वही लड़की !
” यादों…….. में…….. उलझी ”
और बिखर गई : ‘ पारे—सी ‘

वह लड़की !
‘ य
की

न ‘
: न भूली होगी —– मुझे
: न भुलाई गई —–मुझसे
: अनुपम त्रिपाठी
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ग़ज़ल

January 21, 2017 in ग़ज़ल

 

तेरा — मेरा इश्क पुराना लगता है ।
दुश्मन हमको फिर भी जमाना लगता है ॥

गुलशन – गुलशन खुशबू तेरी साँसों की ।
मौसम भी तेरा ही दीवाना लगता है ॥

पर्वत – पर्वत तेरा यौवन बिखरा है ।
हद से गुजरना कितना सुहाना लगता है ॥

इन्द्र – धनुष का बनना – बिगड़ना तेवर तेरे ।
मस्त निगाहों का छलका पैमाना लगता है ॥

गुजरी हयात का मैं भी इक अफ़साना हूँ ।
सब कहते हैं ……. मर्ज़ पुराना लगता है ॥

सांझ — सिंदूरी सूरज का घर तज़ आई ।
चाँद निकलना एक बहाना लगता है ॥

‘अनुपम’ आसां दर्द का दरिया पीते जाना ।
उनको भुलाने में एक जमाना लगता है ॥
: अनुपम त्रिपाठी
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अ–परिभाषित सच !

December 15, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

॥ बेटी के लिए एक कविता ॥ 
“अ—परिभाषित सच !”
डरते—सहमते—सकुचाते
मायके से ससुराल तक की
अबाध—अनिवार्य यात्रा करते हुए
मैंने; गांठ बांधी पल्लू से
साथ में; ढेरों आशंकाएं ………….
कई; सीख—सलाइयतें ……………
 
हिचकियों के बीच; हिचकोले लेता
मेरा अबोध मन—-आँसूओं से भीगा
अपरिचित दायरों में कसमसाता रहा
“ कोई अपना तलाशता रहा “
‘अपने—पराए की भेद—रेखा में’
बिंधा—बिंधा छटपटाता रहा .
 
बिदाई की बैचेनी से बचकर
गृह—प्रवेश की बेला में
‘नमी की नदी’ से उबरकर
‘उमंग के आकाश’ में
पुरवाई—सी आ बसी : मैं .
 
“ ओ; माँ !”………..’मम्मी जी’ हो गईं
“ अरे; पापा !”……….साकार हुए ‘पिताजी’
और; अनचीन्हा पति, “अजी ! ऐ; जी !! ओ; जी” !!!
 
‘पीछे छोड़े’ घर की ‘अपार वेदना’
‘आगे’ जुड़ रहे घर की ‘असीम उत्कंठा’
इन दोनों के मध्य—–प्रतिबध्द
किसी सेतु—बंध सी स्तब्ध
काँपती—डोलती—थरथराती
मैं !
नितांत अकेली—अजनबी—अनिर्दिष्ट
 
कभी साड़ी की सलवटें संवारती
कभी पल्लू को करीने से सहेजती
क़दम—दर—क़दम नाप कर रखती
हर भंगिमा—हर निगाह परखती
और; अपने—आप को तौलती
सारा दिन; जाने क्या—क्या सोचती
रात—भर सपनों में शूल रोपती .
 
काश ! कि; किसी ने समझाया होता
माँ की आशंकाएं, ‘मोह का चरम’ थीं
‘मम्मीजी’ भी, “माँ सी ही“ नरम थीं
एक ही दहलीज़ में, ‘अधिकार’ और ‘कर्तव्य’ की
दो धाराएँ; समानान्तर—सदिष्ट बहने लगीं
‘नमी और नियति’ की कथाएँ कहने लगीं .
 
नारी : नदी की तरह; ‘नियामक’ होती है !
मायके के ‘सरोवर’ से; उन्मुक्त झरने सी निकलती है
ससुराल की दहलीज़ तक आते—आते
सम्बन्धों के समतल मैदान में
‘मंथर मगर; निश्चित गति से’
किनारों की परिधि से सामंजस्य रखते हुए
अनुभव के महासागर में विलय—पूर्व
कर्तव्य—पथ की अनगिन विरल धाराओं में
स्व——विकेंद्रीकृत हो कर
सबकी ‘प्यास’ बुझाती ………………….
सबको ‘आप्यायित’ करती …………….
अंतत:; अपनी ‘समग्र मिठास’ लेकर
‘जीवन—सागर’ के बाहुपाश में तिरोहित हो जाती है .
 
देखिए; न !
आखिरकार; भटक ही गई : मैं !
अल्हड्पन से अनुभव की महायात्रा के मध्य
ऐसे ही कई पहलू बदले : मैंने !!
‘पहाड़ों’ को तोड़ा —– ‘चट्टानों’ को मरोड़ा
‘वनों’ को ‘संश्लेषित’ किया —- ‘खेतों’ को ‘सींचा’
“ बहुत कुछ संचित किया —— जाने कितना ऊलींचा ”
फ़िर भी; कभी खाली नहीं रही
अनुत्तरित रही —– सवाली नहीं रही .
 
शनै: शनै: जाना मैंने !
परिवेश की पदचाप को पहचाना मैंने !!
समय और सफ़र, स्वयं के ‘विस्तार’ के सापेक्ष हैं
सम्बन्धों की गरिमा ही सच है, ‘अनुभव और रफ़्तार’ निरपेक्ष हैं .
 
माँ का मन — मन की ममता और ममता की महत्ता
‘पहली संभावित किलकारी’ के साथ ही, सराबोर कर गई : मुझे
स्वयं को ‘हार कर’, सबको ‘जीत’ लिया : मैंने
आशंकाओं और दुरभिसंधियों से परे
प्रेमजनित विश्वास से, जीना सीख लिया : मैंने .
 
आज !
मेरे चेहरे पर
अपनी सफ़ल शौर्य—गाथा की कान्ति है !!
मेरे दोनों किनारे ढहे नहीं, सम्हाले हुए हैं : मुझे
मेरे जीवन में संतोष है —– मन में शांति है .
 
पता है, मुझे !
‘चंद आधुनिक’ कहेंगे; जुरूर
सिर चढ़कर बोलेगा, उनका सुरूर
कि; मैंने, अपने आप को ‘मारकर’ —- ‘जीवन’ पाया है !
या; कि, खुद को ‘हार कर’ —– ‘सारा कुछ’ निभाया है !!
सोचने दीजिये !
…………… ये; उनकी, अपनी भ्रांति है ……………..
क्योंकि; नारी का जीवन, ‘अनशन’ नहीं —- ‘समग्र क्रांति’ है .
 
अब; आप ही कहिए, जरा !
सफ़ल जीवन की परिभाषा, और कैसे तय होती है; भला ?
#anupamtripathi #anupamtripathiK
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नाक का नक्कारख़ाना — हास्य

December 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

॥ नाक का नक़्क़ारखाना ॥

सोचिए जरा ! क्या होता, अगरचे इन्सान की नाक न होती ?
सर्वप्रथम तो आधी दुनिया अंधी होती
नाक न होती तो भला, चश्मा कहां पिरोती !

नाक न होती तो, ज़नाब ! सभ्रांत् महिलायें कैसे रोती ?
‘वे’ रूमाल से आंख नही……..नाक पौंछती हैं
आंसुओं को गालों पर सुखाकर
लिपिस्टिक को पल्लू से बचाकर
अदा से नाक सुड़कती हैं-—मासूम-सी हिचकी को, बेवज़ह रोकती हैं.

माननीय ब्रम्हाजी भी दो अतिरिक्त छेद डिज़ाईन करने से बच जाते
सीधे–सीधे ‘बरमा’ उठाते, ‘एक और’ गहरा ‘ड्रिल’ बनाते

मुई ! नाक के कारण ही तो नकेल बनी है
मर्दो की बिरादरी — ‘सांड’ से ‘बैल’ बनी है

न नाक होती–न बाल होता, न नाक कटने का बवाल होता
सारी खुशबूयें, इसी नाक को भरमाती हैं
नासपीटीं नाकें : कांटो में उलझाती हैं.

हां, यह सच है कि;
नाक न होती, तो ‘धाक न होती’ , आदमी की ‘साख न होती’
चुप के…..चुप…..चुपके ‘तांक झांक’ न होती
सोचो तो ! कैसा लगता, जब बिना सुड़के ही ‘आंख रोती’…..?

नाक का नक्क्षा भी अज़ीब दिखता है,
‘अंडमान से चेहरे पर, दमन–दीव लिखता है’.

नाक कटने का डर आदमी को सर्वाधिक डराता है,
इसीलिए तो यारों ! वह हर बार नया मुखौटा लगाता है.
नकटे : नाक की तरफ से सदैव निश्चिन्त् रहते हैं,
नाक–वाले आम तौर पर उन्हें ‘जिन्न्’ कहते हैं

देखिए ! मेरी…….आपकी भी, नाक तो सलामत है
ध्यान रखिए, ज़नाब ! नाक इन्सान् की क़ीमती अमानत है.
……………….000…………………..

ग़ज़ल

October 20, 2016 in ग़ज़ल

वो ख़्वाब; वो ख़याल, वो अफ़साने क्या हुए ।
सब पूछते हैं लोग; वो दीवाने क्या हुए ॥

अपनों से जो अज़ीज़ थे आधे—अधूरे लोग ।
‘पहचान’ दी जिन्होंने; वो ‘बेगाने’ क्या हुए ॥

किसने चुरा ली ‘धूप’ तुम्हारी ‘मुंडेर’ की ।
मिलने की वो कसक; वो पैमाने क्या हुए ॥

क्यूँ; आग निगाहों की, लग रही बुझी—बुझी ।
जलवा—ए—हुस्न क्या हुआ; परवाने क्या हुए ॥

दरवाज़े सारे बंद हैं; चुप के मकान के ।
लबरेज़ शोखियों के; वो ठिकाने क्या हुए ॥

हम तो सफ़र में थे; चलो, बे-घर नसीब था ।
तुम्हारे हसीन चाँद से; आशियाने क्या हुए ॥

तुमसे वो दिलकशी—वो हँसी; रूठ गई क्यों ।
ऐसे ‘गुनाह’ सोचो तो; अनजाने क्या हुए ॥

खाई थी ये कसम जहां; न होंगे हम ज़ुदा ।
चश्मदीद वफ़ा के; वो बुत—ख़ाने क्या हुए ॥

यादों का तेरी; सीने में, ‘जंगल दहाड़ता है’ ।
अहसास की नाज़ुक कली—याराने क्या हुए ॥

काटी थीं हमने ‘हिज़्र’ की; रातें जहां कई ।
‘अनुपम’ जरा कहो तो; वो ‘मैख़ाने’ क्या हुए ॥
#anupamtripathi #anupamtripathiG
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ग़ज़ल

October 12, 2016 in ग़ज़ल

बंधु !
शक्ति–स्वरूपा माँ दुर्गा की आराधना के अकल्पनीय दिवस और अंतत: वैभव एवं विजय के पर्व ‘दशहरा’ पर मन–मानस में व्याप्त ‘लोभ–मोह–आघात’ के प्रतीक “रावण” का दहन । आप सभी का हार्दिक अभिनंदन एवं मंगल–कामनाएँ ।

गोयाकि ; ग़ज़ल है ! [A03.E004] ग़ज़ल ———–: अनुपम त्रिपाठी

वो ख़्वाब में जो अक्सर दिखाई देता है ।
कौन है जो मुझको हरजाई कहता है ॥

अपने गमों पे खुलकर दीवानगी है हँसना ।
गैरों के लिए रोना रूसवाई कहता है ॥

वो फ़र्द आख़िरी था ‘कल रात’ जो गया ।
फ़िर भी ज़माना हमको तमाशाई कहता है ॥

सब आईनों के अंदर ढूंढें अज़ीब दुनिया ।
है ‘रू…ह’ ‘रू-ब-रू’ तो परछाई कहता है ॥
#anupamtripathi #anupamtripathiG
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फ़र्द/आदमी

ग़ज़ल

September 12, 2016 in ग़ज़ल

2.01(63)
मैं ! तुझे छू कर; ‘गु…ला…ब’ कर दूँगा !
ज़िस्म के जाम में, ख़ालिस शराब भर दूँगा !!
तू; मेरे आगोश में, इक बार सही; आ तो ज़रा !
ख़ुशबू—सा बिखर जाएगी, सारा हिसाब कर दूँगा !!
: अनुपम त्रिपाठी
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011
गोयाकि ; ग़ज़ल है ! [A03.E010] ग़ज़ल———– : अनुपम त्रिपाठी

और कुछ देर अभी हुस्न सजाये रखिए ।
नाज़ो—अंदाज़ अगर हैं तो उठाए रखिए ॥

भेद ये; दिल का खोल दें न कहीं ।
अश्क; पलकों में कहीं गहरे दबाए रखिए ॥

देखिए; वक़्त ! दबे पाँव गुज़र जाएगा ।
दिल के किस्सों से उसे पास बिठाये रखिए ॥

रंगते—ज़िस्म हो कि; हो ये महक गेसू की ।
नीमकश तीरों को पलकों पे चढ़ाये रखिए ॥

दिल के इस दर्द को न और जुबां देना तुम ।
गम का सहरां यूं ही सीने से लगाए रखिए ॥

किसको मालूम है कि; कब वो इधर आ जाएँ ।
राह में उनकी नज़र अपनी बिछाए रखिए ॥

देखिए; उनके ! इधर आने की, आई है खबर ।
आस की शम्अ को पुरज़ोर जलाए रखिए ॥

इस तरह बात न कीजै कभी तनहाई से ।
दिल के ज़ख़्मों को जमाने से छुपाए रखिए ॥

कौन जाने कि; कभी ख्वाव में आओ ‘अनुपम’ ।
ज़िस्मे—नाज़ुक को निगाहों से बचाए रखिए ॥
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ग़ज़ल

September 2, 2016 in ग़ज़ल

ज़िंदगी को इस—–तरह से जी लिया ।

एक प्याला-–फिर; ज़हर का पी लिया ॥

वक़्त के सारे  ‘थ…पे…ड़े’  सह लिए ।

गम जो बरपा, इन लबों को सी लिया ॥

अब अगर कुन्दन—सा दीखता….मैं दमकता ।

‘सूरज—मुखी’ या ‘रात—रानी’……बन गमकता ॥

छुपी हुई “अनुपम” दास्ताँ, ‘भीषण’ रण की ।

उम्र है : सहमी चिड़िया और वक़्त : क्रूर बहेलिया॥1.19॥

गोयाकि ; ग़ज़ल है ! [A03.01-018]

ग़ज़ल —– : अनुपम त्रिपाठी

गम का यारों रोज़ इक मैं, ‘सिलसिला’ हो जाऊंगा ।

‘देखना : तुम’ ; ‘सूखकर : मैं’, फिर हरा हो जाऊंगा ॥

 

आग में ‘विरहा’ की मुझको, ‘सु—र्ख—रू’ हो लेने दो ।

‘चौं-धि-या’ जायेगी दुनिया, जब ‘खरा’ हो जाऊंगा ॥

 

याद के जंगल में कहीं, गूँजेगी यूं ही ‘आहट’ मेरी ।

ढूँढने निकलेंगे सारे,  [मैं] ‘गुम—शुदा’ हो जाऊंगा ॥

 

काटते हैं ‘पर’ : परिंदों के, यहाँ ज़ालिम हैं : लोग ।

‘छट…पटा…कर’ मैं ; उड़ूँगा, आसमां : हो जाऊंगा ॥

 

ख़ून से तर ‘ऊँ-ग-लि-याँ’ , अब वो छुपाएगा कहाँ ।

गीत गायेगा मिरे तो , “ मर्सिया “ हो जाऊंगा ॥

 

भूलना चाहो भी तो, कैसे ‘भु……ला’ पाओगे तुम ।

‘अक्स’ कैसे मिट सकेगा, ‘आ…ई…ना’ हो जाऊंगा ॥

 

जब ‘मिलन’ की रात कोई, ‘गुन—गुना’ के आएगी ।

प्रणय के अंतिम पहर की, इक ‘दुआ’ हो जाऊंगा ॥

 

हर ग़ज़ल में ‘आ…ग’ की, तासीर “अनुपम” की बसी ।

जब ‘ज़मीं’ ‘आवाज़’ देगी, ‘सरहद’ पे खड़ा हो जाऊंगा ॥

:  अनुपम त्रिपाठी

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मर्सिया —-शोकगीत /   तासीर —प्रकृति

अक्स —प्रतिबिंब /     सुर्खरू––चमकदार

#anupamtripathi       #anupamtripathiK

” क्या; यह सच नहीं ! “

August 24, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

“ यादों की यलगार “

नहीं आती याद तुम्हारी !
गोयाकि ; भूला भी नहीं मैं : तुम्हें !!

मंडराती रहीं कटी पतंग-सी : तुम !
मेरे मन के आँगन मेँ : गुमसुम !!
तुम्हें पाने के लिए भागता रहा : मैं
मर्यादा की मुंडेर तक
गिरने से बे—–ख़बर

एक
एक
कर

चुरातीं रहीं तुम —- मेरे सपने
अपने सपनों मेँ घोलकर
सोतीं रहीं; मीठी नींद : रात—भर

“मैं ; उम्र—भर जागता रहा ………..
तृष्णा लिए भागता रहा …………..”

कहाँ से लाऊं —– तुम्हारे सपने ?
लाया भी; तो —- कैसे बनाऊँ अपने ??

मेरे माथे की; ‘भाग्य—रेखा’ से, मिटाकर नाम
ऊकेर दी गईं; तुम !
किसी अजनबी हथेली पर
: ‘जीवन—रेखा’ की तरह
************—————************

हमारा हिंदुस्तान ….. बक़ौल; मेरा देश महान !

August 9, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

यह हिन्दुस्तान है ………………………………………..
कहना आसान — समझना मुश्किल — सहेजना असंभव
फिर भी हमें ये गुमान है
गांधी का अरमान है — सपनों का जहान है
————-मेरा देश महान है————–
……………….. क्या, यही ‘वो’ हिन्दुस्तान है ?

ज्वालामुखी हर सीने में, हर आंख से रिसता लावा ,
हर मंदिर—मस्ज़िद–गिरिजा पर, धर्मान्धता का धावा ,
चारों ओर ….पोर–पोर….आक्रोश का सैलाब बह रहा है
देखिए ! ग़ौर कीजिए,…….‘आस्था का महल’ ढह रहा है.

सिमटी आस्थायें —- बिखरा विश्वास,
कुटिल वार्तायें —- गुमशुदा अहसास,
लहू और फ़रेब से लिखा गया : इतिहास,
आंसूओं से तर — ब — तर : वर्तमान
आशंका से जूझता : भविष्य
बस , यही तो ‘शेष’ पहचान है
: ये कैसा भारत महान है ?
क्या : यही ‘वो’ हिन्दुस्तान है ??

लोकतंत्र की गाय ‘भूख’ से मर रही है,
बे–लगाम व्यवस्था, शान से ‘चारा’ ‘चर’ रही है.

बेकाम हाथ—खाली पेट—-सूनी आंखें,
सारी जनता सहमी है, सच कहने से डर रही है,
: विकास की सदी, अविश्वास के दौर से गुज़र रही है.

‘सत्ता का धृतराष्ट्र’, फेंकता है : नोट ,
‘दलालों का शकुनी’, बटोरता है : वोट ,
बिकता है लाचार मतदाता———-
ग्राम्यदेवता — भारत भाग्य विधाता.

‘ वे ’ गिध्द की तरह मंडराते हैं,
हमें नोंचते ………….. डराते हैं,
क्योंकि , हमारे पास ‘थाली’ है, उनकी ‘भूख’ निराली है,
हमें “रोटी की तलाश” है, ———————–
उनके लिए “लोकतंत्र; एक ज़िंदा—लाश” है,
आईए ! आप भी आईए, जितना छीन सकें : खाईए,
: सामूहिक भोज का आयोजन् है,
: जनतंत्र का यही तो प्रयोजन् है .

मुझे खेद है ……………………….,
आपको भी होगा, शायद !
विगत् अर्द्ध–शती में, हमें ये कैसा भारत मिला ?
यहां की प्यासी–दूषित् नदियां —– रेतीली मांग सजाए ,
: सपने बहाती हैं
बीमार नहरें —- सूखे खेतों में —- आंसू भर जाती हैं.
किसान, लालटेन लटकाए, बिजली को खोजते हैं,
खेतों में धान की जगह, ‘कुकुरमुत्ते’ रोपते हैं.

साज़िश और शिक़स्त, अंतर्कलह से ग्रस्त ,
सदमा या सहानुभूति, भयजनित् प्रीति
: इसे ही कहते हैं, ज़नाब !
बिना शर्त समर्थन् की राजनीति.

हर कटते दरख्त के साए में एक मज़हब पनपता है ,
हर मज़हब का बन जाता है, एक नया दल,
हर दल में भीषण ‘दल—दल’ सने ‘सफे़दपोश’ नेता,
हर नेता की अबूझ——महत्वाकांक्षा का ‘महल’
‘ हरम के हरामियों’ की तरह, ये कुटिल खेल में व्यस्त हैं
‘ गठबंधन की मुस्कुराती हुई राजनीति’ में
पारंगत् हैं ————————–अभ्यस्त हैं .

किसे चिंता है , ……. : संविधान मात्र एक पुलिन्दा है ,
: ‘वर्ण – भेद’ “आज भी ज़िन्दा है”.

मज़बूरी के तवे पर, सिंक रही; स्वार्थ्य की रोटियां ,
जूठी बोटियों पर झपटते है : लोग ,
मुंह बाए खड़ी है : चुनौतियां .

‘जन—प्रतिनिधि—सभा’ : एक अखाड़ा है ,
बहुमत : कमजोर–सा नाड़ा है
वे जब भी जूझते हैं —– इसे ही तो खींचते हैं
तब व्यवस्था : पूरी तरह ‘नंगी’ नज़र आती है
‘ वे’ तो इसके आदी हो चले हैं, ज़नाब !
मगर, ………………… हमें तो शर्म आती है.

हमारा ‘मतान्तर’ ही छलता आया है, आज तक हमें
अगर मेरी ‘अपील’ आपको जमे, तो मत रहिए : अनमने
कभी तो ‘सार्थक पहल’ कर,
‘सही निर्णय’ हम ले सकें अगर
गर्वोन्नत् होगा मस्तक हमारा,
देगा वैभव—दस्तक दोबारा
मन—मन में फिर खिल उठेगा अभिमान,
जन—जन में होगा गुंजायमान
मेरा भारत महान
मेरा भारत महान.

मीनाकुमारी —- एक भावांजलि

July 21, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

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“ कहते हैं ज़माने में सिला; नहीं मिलता मुहब्बत का ।
हमको तो मुहब्बत ने; इक हसीं दर्द दिया है ॥ “
: अनुपम त्रिपाठी
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मीनकुमारी ! ……….. ये नाम ज़ेहन में आते ही आँखों के सामने हिन्दी चल—चित्रपट–फ़लक की ‘वह’ मशहूर अदाकारा साकार हो उठती है, जिसने नारी—चरित्र के वे अनूठे आयाम प्रस्तुत किए कि; नारी—मन की थाह एक पहेली सी बन गई । “ अबला जीवन हाय ! तेरी यही कहानी ……” को अमूमन जीने लगी थी ——- अपनी निजी और फिल्मी ज़िंदगी में ……. मीनकुमारी । उनका व्यक्तिगत जीवन जितना ‘उथल—पुथल’ भरा रहा —— उतना ही परिष्कृत था : बे—मिसाल अभिनय । सु—कवि गुलज़ार ने; मीनकुमारी की वसीयत के अनुसार, उनकी शायरी का अपने कुशल सम्पादन में प्रकाशन किया ।

“ दर्द के दस्तावेज़ सा “ यह रचना—सफ़र दिलो—दिमाग में उतरता-–सा जाता है । ऐसा लगता है, मानो; हम जीवन की जिजीविषा और चाहतों की रवानी से जूझते, एक अंधी—लंबी सुरंग से होकर गुज़र रहे हों ज़िंदगी भर ‘वह’ जिस प्यार की तलाश में बद—हवास भटकती रही …….. उसी के प्रति अगाध समर्पण भाव उसकी अदाकारी में झलकता रहा । एक ख़ालिस भारतीय नारी का बेजोड़ अभिनय । प्रेम की प्यासी …… अपने हक़ के लिए लड़ती ……. इंतज़ार और समर्पण की जीवंत—गाथा । अंतत: सहारा मिला भी तो ……… शराब का । मीनकुमारी और शराब ने ‘एक—दूसरे’ को जी—भर कर पीया । सारी कड़वाहट “ दर्द का दरिया “ बन कर छलक—छलक उठती है, उनके अभिनय और शायरी में । शराब को जीतना ही था …… जीत गई ।
लेकिन; मीनकुमारी भी कहाँ हारी ?

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“ किस—किसको मयस्सर है, यहाँ इंतज़ार यारां !
कौन मुंतज़िर है ‘अनुपम’, बहारों की राह में ?”
****************

एक भावांजलि मीनकुमारी को
[ ‘नाज़’ मीनकुमारी का निक—नेम ]

ऐ; “नाज़” !
क्यूँ आई थीं, तुम
आबलापा इस दस्त में
जबकि; मालूम था तुम्हें
यहाँ; शूलों के सिवा कुछ नहीं
———–कुछ भी नहीं

उफ़क के रहरौ ने सरशार किया है इसको
हर निदा पे हमनसफ़ हिसार में आया
मुसलसल मौहूम मुसर्रत के लिए
रेज़ा—रेज़ा अजीयत उठाया तुमने

क्या तुम्हें;
ये ख़बर भी नहीं थी
इसकी माज़ी को तो देखा होता
कि; “ ये इश्क़ नहीं आसां इतना “

बोसीदा तनवीरें, तआकुब का एतिकाद किए
ले चुकीं हैं; गिरफ़्त में शिकवे—वादे
प्यार का अहसास, अलम—ओ—यास से रेगज़ार हुआ
नफ़स—नफ़स में एक शादाब तसव्वुर छाया हुआ

ऐ; “नाज़” !
अज़ल का तवील सफ़र है, ये !!
सकूत की मुकहम तकसीन का मज़र है, ये
संदली—शफ़क; लाफ़ानी वहमा है, ताबानियों का
“ ये, इश्क़ नहीं आसां इतना “
: अनुपम त्रिपाठी
#anupamtripathi
*********_______*********
शब्दार्थ
आबलापा – छाले पड़े पाँवों वाला / दश्त – मरूस्थल / उफ़क – क्षितिज /
रहरौ—पथिक / सरशार—उन्मत्त / निदा—आवाज़ / हमनसफ़ – साथी /
हिसार – परिधि / मुसलसल—लगातार / मौहूम—भ्रामक / मसर्रत—खुशी /
रेज़ा—रेज़ा – कण—कण / अजीयत—कष्ट / माज़ी – अतीत /
बोसीदा — जीर्ण—शीर्ण / तनवीरें – रौशनी / तआकुब – अनुसरण /
एतिकाद—विश्वास / गिरफ़्त—क़ैद, जकड़ / शिकवे — शिकायत /
‘अलम—ओ—यास’ – निराशा / रेगज़ार—मरुस्थल /
‘नफ़स—नफ़स’ में — सांस–दर—सांस / शादाब—मादक / तसव्वुर – कल्पना /
अज़ल—अनंत / संदली—चन्दन सा / शफ़क – सूरज की लालिमा /
लाफ़ानी – भ्रामक / वहमा – दृष्टि—भ्रम / ताबानियां—प्रकाश /
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निर्झर झरता गीत

July 7, 2016 in गीत

 

यह गीत धरा का धैर्य

गर्व है, नील–गगन का

यह गीत झरा निर्झर-सा

मेरे; प्यासे मन का ….

 

यह गीत सु—वासित् : चंदन–वन

यह गीत सु-भाषित् : जन-गण-मन

यह गीत प्रकाशित् : सूर्य–बदन

यह गीत गरल का आचमन

यह गीत समर्पण् जीवन का

यह गीत झरा…………..

 

यह गीत वसन् नंगे तन का

यह गीत रंग अल्हड़पन का

यह गीत अलाव जीवन-रण का

यह गीत भीष्म के भीषण-प्रण का

यह गीत व्यथित् भारत–मन का

यह गीत झरा……………

 

यह  गीत ‘तपस्या’ का इक ‘फल’

यह गीत ‘कलशभर’ अमृत–जल

यह गीत पपीहा–सा : ‘बे—कल’

यह गीत ‘लगन’ ‘अनुपम’ प्रतिपल

यह गीत है मन का, इक ‘मनका’

यह गीत झरा…………….

 

यह गीत साँस का उच्छवास्

यह दिव्य–आर्य का पुनर्वास्

यह गीत राम का अरण्यवास्

यह गीत ‘त्रि-काल’ का अट्टहास्

यह गीत है;  देश का, जन-जन का

यह गीत झरा…………….

 

यह गीत ‘लहू’ से मैंने ‘रचा’

यह गीत ‘भाव का नीर’ भरा

यह गीत सनातन आवाहन

यह गीत “शहीदों की है चिता”

यह गीत देश के जागरण का

यह गीत झरा……….

 

यह गीत ‘समर’ का शंख–नाद

यह गीत विधा का ‘नवल वाद’

यह गीत ‘विरह’ का विकल–प्रमाद

यह गीत ‘विजय’ का परम्–प्रसाद

यह गीत है; ‘पाँखी का तिनका’

यह गीत झरा……………

 

यह गीत है, गुंजित् आसपास

यह गीत है ‘मन का कारावास’

यह गीत ‘कालिन्दी-तट’ का ‘रास’

यह गीत ‘अहिल्या का विश्वास’

यह गीत “प्रणाम“ है; ‘अनुपम’ का

यह गीत झरा………..

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बंजारा गीत

June 8, 2016 in गीत

।। बंजारा – गीत ।।
: अनुपम त्रिपाठी

कोई ख्वाब नहीं, जो ढल जाऊॅं ।
मौसम की तरह से बदल जाऊॅं ॥
तबियत से हूँ ; मैं ! इक बंज़ारा ।
कल जाने कहां को निकल जाऊॅं ॥01॥

आया था घड़ी भर महफिल में ।
यादों को बसाकर इस दिल में ॥
कुछ देर ठहर कर जाना है ।
तुम कह लो कि; ये, दीवाना है ॥
कुछ याद तुम्हारी साथ लिये ।
फिर, जाने कहाँ पे मिल जाऊॅं ॥02॥

पत्थर भी कभी क्या रोया है !
ये, द्वंद कहाँ अभी सोया है ॥
मुझे ‘टू…ट..ना’ होगा उस हद तक ।
इस ‘द……र्द’ को जितना ढोया है ॥
कोई पूछ ले मुझसे पता मेरा ।
बेहतर कि; मैं ! पहिले सम्हल जाऊँ ॥03॥

इक मोड़ कभी न भूलेगा ।
जब ओझल पहली बार हुआ ॥
उन भींगे हुए नयनों ने मुझे ।
अन्दर तक कई–कई बार छुआ ॥
कहीं थम न जाऊॅं…..लहर हूं मैं ।
इक जुम्बिश ही से हिल जाऊॅं ॥04॥

मेरा भी कभी प्यारा घर था…. ।
‘अवनि’ थी मेरी—इक ‘अंबर’ था ॥
‘किलकारियां’ लेती थीं ‘खुशियां’ ।
फिर छोड़ सभी क्यूँ आया यहाँ ॥
हम “बंज़ारों” से न पूछो सब ।
तुमको मैं ये कैसे बतलाऊं ॥05॥

कुछ भी तो मेरे अब पास नहीं ।
थोड़ी भी खुशी की आस नहीं ॥
इक दिल है, मेरे संग आवारा ।
दर्द…सहा…किया…..बेचारा ॥
उस टीस के इक-इक क़तरे में ।
आंसू की तरह न पिघल जाऊॅं ॥06॥

मैं ; आज यहाँ हूँ—कल था वहाँ ।
फिर; होना है मुझको, नहीं हूँ जहां ॥
तुम है—र–त में सब पूछोगे ।
बस ; मेरे ही बारे में सोचोगे ॥
अच्छा हो ; यहाँ , न ठहरूं अब ।
फ़ितरत से न अपनी बदल जाऊॅं ॥07॥

तबियत से हूँ , मैं ! इक बंज़ारा ।
कल जाने कहाँ को निकल जाऊॅं ॥
कोई ख्वाब नहीं जो ढल जाऊं ।
मौसम की तरह से बदल जाऊॅं ॥
———-…000…———
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ग़ज़ल

May 30, 2016 in ग़ज़ल

मैं ! जटिल था ; आपने , कितना सरल-सा कर दिया ।

सोचता हूँ ; शुष्क हिमनद , को तरल-सा कर दिया ॥

खाली सीपों का भला , बाज़ार में क्या मोल होता ?
आप ने बन बूंद–स्वाति , बेशकीमती कर दिया ॥

ये खुला–सा आसमां , मुझको डराता ही रहा ।
आपने आधार बन के , शामियाना कर दिया ॥

मैं ! लहर के साथ रहकर , टूटता…टकराता रहता ।
आपने पतवार–सा बन , धार पे अब धर दिया ॥

हौंसला था और उड़ने को , खुली परवाज़ थी ।
नेह का इक नीड़ देकर , ‘यायावर’ को ‘घर’ दिया ॥

उम्र–भर यादों के जुगनू , मन के पिंजरे में लिए ।
तम के सायों से घिरा : मैं , रौशनी से भर दिया ॥

मुक्तकों—छंदों—कता’ओं , सा पड़ा बिखरा था : मैं ।
आपने दिलकश बहर दे , इक ग़ज़ल-सा कर दिया ॥
: अनुपम त्रिपाठी

**********__________***********

मैं; जड़ नहीं हूँ !

May 27, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ओ; तट पर बैठे, तटस्थ लोगों !

सुनो, मेरे सन्मुख ; लक्ष्य है

—- राह नहीं है

मैं; धारा पर धारा—प्रवाह

मुझे विराम की चाह नहीं है ॰

 

तुम; क्या समझे !

डूब जाऊँगा ?

संघर्षों के कुरुक्षेत्र में !!

धर्म—राज सा ऊब जाऊँगा ??

 

लेकिन; मैं गहरे पानी की

पहले थाह लिया करता हूँ

दारूण–दु:खों में तपा हूँ : जी भर

अब; प्राप्य—सुखों को जीया करता हूँ ॰

तुम; तमाशबीन , तर्पण की ख़ातिर

तट पर बैठे ऊँघ रहे हो …………..

तुम; कुकुरवंश , पहचान की ख़ातिर

दुम दूजे की सूँघ रहे हो …………..

 

सुनो !

तुम्हारा उपहास ही मेरी आस्था है

और; तुम्हारा संताप — मेरी पतवार

तुम किनारे पर : जड़ हो

मैं; धारा के विरुद्ध सवार

मेरी नौका…..लड़खड़ाती है—आगे बढ़ जाती है

नपुंसक—कायर पीढ़ी; किनारों पर ही सड़ जाती है ॰

 

पानी………. एक भय है

और……….. जीवन : अभय

भय ; भूत बनकर हमें डराता है

जीवन—संघर्ष; इतिहास बनाता है

तट की तटस्थता , तुम्हें ओढ़ लेगी

धारा की गतिशीलता , जीवन को मोड़ देगी

राज—मार्ग सा जीवन —— बंधन का पर्याय है

——————————- पगडंडी : व्यवहार है ॰

 

ओ; तटस्थ लोगों !

तुम, एक हो !!

क्योंकि; तट पर हो ……..

मैं हूँ…अकेला —– लहरों का….रेला

मुझे; विचलित कर दे , भले ही

: पथ—च्युत नहीं कर सकता ॰

लक्ष्य है ——— मेरी दृढ़ता

मैं; लहरों से नहीं डरता

: क्योंकि; मैं ! जड़ नहीं हूँ………..

: अनुपम त्रिपाठी

[ क्षमा—याचना :  यह कविता किसी पर आक्षेप नहीं ——

आपके स्नेह से; स्वयं पर उपजे विश्वास का प्रतिफल है।]

**********______[A-04—039]______*********

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ये, अंदर की बात है !

May 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

 

हनीमून-टूर पर नवयुगल ने , हिल-स्टेशन के आलीशान होटल में
: आनन्दपूर्वक सुहागरात मनाई
बिदाई में ‘रिटर्न-गिफ़्ट’ के बतौर, होटल-प्रबंधन से एक ‘सी.डी.’ पाई .

‘वे’ बहुत खुश थे————–
कि ; ‘सी.डी.’ के माध्यम से अब घर बैठे हिल-स्टेशन की सैर करेंगें
‘‘कमरे से बाहर तक नहीं निकला घोंचू ’’-इस शाश्वत् लांछन से भी बचेंगें .

घर लौटकर यात्रा के सच्चे–झूठे, खट्टे–मीठे अनुभव सबको सुनाये
हिल–स्टेशन पर खरीदे, रेडीमेड फोटोग्राफ़ ‘अपने’ कहकर दिखाये

और फिर , जोश में आकर, ‘सी.डी.’ आन कर दी ………………

अब ‘उनके’ चेहरे फ़क़्क़ थे
सभी को थी उनसे हमदर्दी.

अरे , यह क्या ? तौबा ……. तौबा !!
सी.डी. में वही ‘ सब कुछ ’ तो था , ‘ उस रात ’ जो उनके बीच हुआ
…..000….. …….000……       …….000….. ……000……

सामूहिक विवाह

May 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

सामूहिक विवाह का आयोजन था
कम खर्च में–ज़्यादा निपटें
यही असली प्रयोजन था

चारों ओर हा….हा……..कार मचा था
“ मे……………..ला ” — सा लगा था
वर—वधू मंडप में सहमे से खड़े थे
कुछ कानूनन ना-बालिग थे , कुछ बहुत बड़े थे
सारी बस्ती प्रतीक्षा में सुलग रही थी
हवनकुण्ड में पवित्र अग्नि धधक रही थी
पंडितजी का मंत्रोच्चार ज़ारी था………..
: शुभ घड़ी पर एक–एक पल भारी था

लगन का समय निकला जा रहा था ………..
नेताजी का काफ़िला चल दिया था….बस, आ रहा था

प्रतीक्षारत् दूल्हे–उचकाकर कूल्हे , भावी दुल्हन को देख शर्मा रहे थे
: दूसरों की देखकर गश खा रहे थे
दुल्हने बेचारी ! इस भीड़ से रोमांचित् थीं ……………………………
गैरों के धक्के तो ‘खू……ब’ खा रही थीं, लेकिन,’पिया–स्पर्श’ से वंचित थीं

नेताजी शान से मंच पे विराजे , नेपथ्य में जोर से बजने लगे बाजे
किसी ने बैंडमास्टर को नींद से जगाया था,
———‘‘मैं हूं ; ‘डा….न’ ’’ उसने तबियत से बजाया था
पंडित भी तुरन्त हरकत में आ गया, सातों वचन एक सांस में सुना गया
बैंड पर मन-भावना धुन बज रही थी , ‘‘ गली-गली मेरी अम्माँ ’’सज रही थी

एक ओर सोयाबीन की कढ़ाही में पूरियां मचल रही थीं
दूसरी ओर दाल में सनी बरफियां कुछ कह रही थीं
गुलाबजामुन पत्तल पर लुढ़क रहे थे ,
भाई लोग ! जम के रायता सुड़क रहे थे

एक तरफ  ‘लाड़ा—लाड़ी’ सावधान की मुद्रा में तैयार खड़े थे
दूसरी तरफ दक्षिणा-बिना पंडितजी भी, ’स्वाहा’ पर ही अड़े थे

अब तक नेताजी जा चुके थे , ‘बाज—-लोग’ खा-खाकर ‘अघा’ चुके थे
पंडितजी भी लगन लगा चुके थे, वर–वधू कुछ और ‘करीब’ आ चुके थे
दुल्हन की विदाई का व़क्त पास आ रहा था, बैंडवाला ‘‘बाबुल की दुआऐं ’’बजा रहा था
सभी मेहमान अपना सामान जमा रहे थे ,” दूल्हे : तप चुके थे”, शरारत से मुस्कुरा रहे थे
सबको घर जाने की जल्दी थी , मुरझा रही दुल्हन की हल्दी थी
एक तरफ हर आंख में आंसू थे , दूजी ओर आईडिये हनीमून के धांसू थे

धीरे धीरे सारा मज़मा उखड़ने लगा, कविता अनोखी थी ! लो,कवि तो जमने लगा !!
कौन कहता है ? …………… ये कविता कोरा व्यंग्य है
अरे भाई ! सामाजिक रंग में, थोड़ी मस्ती भरी भंग है

वास्तव में ; सामूहिक – विवाह – आयोजन
समय की मांग है …………..आज की सच्चाई है
मैं स्वीकारता हॅूं – यह एक सामाजिक अच्छाई है
धन्य हैं ‘ वे लोग ’ जो इसका बीड़ा उठाते हैं
लाड़ली- लक्ष्मियों को दहेज़-रूपी अभिशाप से बचाते हैं
….000….. ………000….. ………000…….

सड़क का सरोकार

April 30, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

।। सड़क का सरोकार ।।
: अनुपम त्रिपाठी

सड़कें : मीलों—की—परिधि—में बिछी होती हैं ।
पगडंडियां : उसी परिधि के आसपास छुपी होती हैं ॥

सड़कें : रफ्तार का प्रतीक हैं ।
पगडंडियां : जीवन का गीत है ॥
लोग ! सड़कों पर समानान्तर गुज़र जाते हैं ।
‘‘न हैलो… न हाय !’’ पलभर में नज़र भी न आते हैं ॥

पगडंडियां : बातें करती हैं , चलती——-मचलती हैं ।
‘‘ पाँव–लागी, राम–राम भैया’’ की देव-ध्वनि सुनती हैं ॥

सड़कों पर, कोई किसी का समकालीन नहीं होता ।
पगडंडियों का पाँवों से है, सनातन—-समझौता ॥
सड़क का सरोकार…………. शाश्वत् है ।
पगडंडी : अस्तित्व के प्रति आश्वस्त है ॥

सड़कों पर चलने वाला, पगडंडी से कतराता है ।
पगडंडी पर चलकर ही कोई, सड़क पर आता है ॥

सड़क ; सुधार के प्रति उदासीन होती है ।
पगडंडी : प्रतिदिन नूतन है–नवीन होती है ॥
सड़कों को रौंदकर सभ्यता गुजरती है ।
संस्कृति : पगडंडी के आधार पर संवरती है ॥

सड़क : सुगम-संगीत सा छू भर पाती है ।
पगडंडी : शास्त्रीय-राग-सा भिगो जाती है ॥

खास सड़कें , आम आदमी के लिए बंद होती हैं ।
आम पगडंडियां—खास लोगों की बाट जोहती हैं ॥
चंद सड़कों पर “मौ…त का खौ…फ़” नाचता है ।
अमूमन, हर पगडंडी पर, जीवन-राग आल्हा बाँचता है ॥

सड़क : सुरक्षा के प्रति सशंकित् रहती है ।
पगडंडी से प्रकृति की जीवनधारा बहती है ॥

सड़क के तमाशे , न बाजे—-न ताशे ।
पगडंडी की पगध्वनि ही, गीत सजा दे ॥
सड़कों में विकास की संवैधानिक सत्ता छुपी होती है ।
सड़कों का सौंदर्यीकरण, पगडंडी बहुत भुगत चुकी है ॥

अब ; सड़कों को सर पर तो न बिठाओ …….. !
पगडंडी : पिछड़ न जाए, दोस्त ! जरा हाथ बढ़ाओ !!
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ठिठोली

March 24, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

[बुरा न मानो होली है ….. शुभकामनाओं सहित ]

आया जोबना पे कैसा उभार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा…र दैया ।।
पूनम के चांद–सा रूप खिला रे !
क़दरदान कोई न यार मिला रे !!
छलक—छलक जाए हंसी
होठों—–पे-—प्यास—बसी
नैनों का निराला व्यापार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा..र दैया ।।

गोरी सम्हाले रूप ; बिखर-बिखर जाए रे !
हूक उठे जियरा में -– होंठों पे हाय , रे !!
भंवरे बेचैन हैं ; मधु—पान को
भटक रहे गली–गली कुर्बान हो
इश्क़ बिना हुस्न तो बेकार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा..र दैया ।।

बची–बची फिरती है ; तीरे–नज़र से
कोठे से झांके—-कभी नीचे उतर के
कई दिल कदमों में ; उसके पड़े हैं,
आया नहीं–नैन उसके; जिससे लड़े हैं
उम्र से भी लम्बा इन्तज़ार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा..र दैया ।।

इठलाती–बलखाती चलती है—रूकती है
जोबना के भार लदी बार–बार झुकती है
अंगड़ाई ले ले तो ; बिजली चमक जाए
फागुन में पलास–सी ; गोरी ग़मक जाए
देखे करके जतन भी हज़ार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा..र दैया ।।

कसी–कसी चोली है , ढीला—ढाला लंहगा है
हुस्न बे–मिसाल उसका ; इश्क बड़ा मंहगा है
हाय—हाय चारों तरफ कैसी तबाही है
गली–गली मजनूं हैं;शामत सी आई है
करे वो किस–किसका ऐतबार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा….र दैया ।।

सागर की मौजों सी इठलाती हाय राम !
रस बरसे गोरिया के रंग-ढंग से अविराम
फूटे बसंत जैसे अंग—–अंग से
टूटते कग़ार; कपड़े तंग–तंग से
इसको है समझाना बेकार दैया ।
गोरी कैसे सम्हालेगी भा..र दैया ।।

 

 

 

 

 

ग़ज़ल

March 16, 2016 in ग़ज़ल

“ हद से बढ़ जाए कभी गम तो ग़ज़ल होती है ।
चढ़ा लें खूब अगर हम तो ग़ज़ल होती है ॥“

इश्क़ है—रंग , हिना—हुस्न ; याद है : खूशबू ।
फिर भी भूले न तेरा गम तो ग़ज़ल होती है ॥

कौन परवाह किया करता है आगोश में यहाँ ।
याद में आँख हो पुर—नम तो ग़ज़ल होती है ॥

लब—औ’–रुखसार ……….. ‘मरमरी वो बदन ।
संग मिल जाएँ पेंच-औ’-खम तो ग़ज़ल होती है ॥

चुप हो धड़कन ———- जुबां खामोश मेरी ।
चले वो ख्वाब में छम-छम तो ग़ज़ल होती है ॥

ख्वाब पलकों पे सिसकते हैं अरमाँ बहते हैं ।
हो एहसास में ‘गर दम तो ग़ज़ल होती है ॥

याद कर – याद भी कर तेरा सिमटना मुझमें ।
आह ! होठों पे जाए जम तो ग़ज़ल होती है ॥

उदास रात के गमगीन साये में अक्सर ।
पिरोये नींद कोई गम तो ग़ज़ल होती है ॥

न खुशी — न कोई रंज, न शिकवा ‘अनुपम’।
निकले न फिर भी दम तो ग़ज़ल होती है ॥
: अनुपम त्रिपाठी
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ढहती दीवारें

March 9, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तब, जबकि कल ;
बहुत छोटी थी ‘मैं’
कहा करती थी ‘माँ’
——- ऐसा मत करो !
——- वैसा मत करो !!
: वरना लोग क्या कहेंगे ?

शनै:–शनै: —– ‘मैं’ ; ‘ये लोग’ और ‘इनके’ ‘कहने का डर’
यौवन की दहलीज़ तक, साथ—साथ चले आए ……………..
“घर से निकलने” और “सुरक्षित लौट आने तक”
पता नहीं ‘कौन लोग’ , क्या – क्या कह जाते ?

माँ ! एक आशंका से भरी रहती …………….
सीली लकड़ी—सी सुलगती ………. धुंधयाती ॰

‘लोग क्या कहेंगे !”
किसी निर्लज़्ज सवाल की तरह
टांक दिया गया : मेरे समूचे वजूद पर
खिलने को आतुर , एक बेताब पीढ़ी पर
—– माँ , सुनती रही ……
—– लोग , कहते रहे ……
—– मैं , तरसती रही …….

वक्त बदला और दृश्य भी
लेकिन, वही रहीं परिस्थितियाँ
पति की जिद और
ससुराल की मर्यादाओं में बिंधी
मैं, सजी—संवरी ……. सहमी—सहमी
: ‘लोग’ और ‘उनके कहने का डर’ आत्मसात करती चली गई ॰

मगर, सुन मेरी बच्ची !
पहली बार कुछ कहा है ; तूने
: लोगों के कहने से पहले
पहली बार उछाला है : शाश्वत सवाल
—– “कि कौन हैं ‘वे’ लोग” ?
—– “क्या कहते रहते हैं, आखिर” ??

—- ‘आखिर क्यूँ !
किसी के कहने—सुनने पर
मैं , अपने जीवन का आधार बुनूँ’ ?

— “कब तक ? आखिर कब तक, माँ !”
— “मैं, गूँगी बनी रहूँ ??”
“मैंने नहीं कहा कभी कुछ !
क्या इसीलिए सबकी सुनूँ !!”

सच कहा तूने, मेरी बच्ची !
—- “लोगों का कहना केवल मन का भय है” —-
न, ‘वे’ लोग हैं कहीं और न कहते हैं ‘कुछ’ कभी॰

सुन,———–
तू !…………….
अपने तरीके से जी …….
मेरी भी दुआ है, यही ……

जिस आग में “मैं”
ता —- उम्र पिघली ………
तू, उस ताप से महफ़ूज रह कर
: अपने जीने की राह खुद तय कर

“ हम देखेंगे कि ; ………….
लोग, आखिर क्या कहेंगे ? “॰
*******______________*******

” बच्चे और सपने “

March 5, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

सपनों में बच्चे देखना
सुखद हो सकता है ;
लेकिन ; बच्चों में
सपने देखना आपकी भूल है

जैसे; सपने…… सिर्फ़ सपने
बच्चे : साकार नहीं करते
वैसे ही; बच्चों में सपने
साकार करना फिजूल है.

हाँ ! आप ऐसा करिए;
बच्चों में सपने रोपिए
शिक्षा और संस्कार
कदापि न थोपिए .

आपके सपने —————
चाहे जितने रंगीन हों
आपकी विफलता की कहानी हैं

बच्चों की उडान
उनकी सफलता की निशानी हैं.

आप बच्चों को उड़ने दीजिए
खुले आकाश में——–
तेज हवा और तीखी धूप के बीच
बिन्दास–बेखौफ़– बेतहाशा

बस; डोर उतनी ही खींचिऐ
कि; पतंग……..पथ से भटके नहीं
पेडों की फुनगियों— बिजली की तारों
और भवन— छज्जों पर अटके नहीं.

*******——–*********———*****

बोल ; मेरी मछली !

March 4, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

जब अंधे;आपस में मिल बैठकर ,
: संध्या बांचते हैं
कुत्ते : पत्तल चाटते हैं………..

यही तो है ; हमारी व्यवस्था !
कि; अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति
डरा–सहमा जड रह जाता है
उसे धकिया कर ; हर बार
एक नया पात्र सामने आता है .

गुलाम मानसिकता ———-
नपुंसक व्यवस्था के सम्मुख
दोहरी हो के दण्डवत होती है
कतार स्तब्ध है ; याचकों की
———————–सहमी है
: खाई और चौडी होती है.

व्यवस्था : हमेंशा जूते में दाल बांटती है
नेतृत्व की ‘ चरणदास ‘ पीढ़ी छांटती है.

आजादी के रथ को ———-
मौकापरस्त कुत्ते हांक रहे हैं
थके घोडे : अस्तबलों में
——————– हांफ रहे हैं.

और ; हम है कि ! सपनों के भारत की
लोकतंत्र से संवैधानिक दूरी नाप रहे हैं. ……………………

” वे “, दांत और दुम के
सामूहिक प्रयोग में पारंगत हैं
: कुत्ते हैं ;
“हम”;अधिकारों से अनभिज्ञ
अपने–आप से हत् हैं
: अंधे हैं.

तभी तो कहा गया है ; कि, —
जब अंधे मिल—बैठ कर
संध्या बांचते हैं
: कुत्ते पत्तल चाटते हैं ……

……कुत्ते ही पत्तल चाटते हैं .

***********——–*********

सत्ता और सुन्दरी

March 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

सत्ता और सुन्दरी
एक ही सिक्के के दो पहलू
दोनों का चरित्र : दलबदलू

इक- दूजे के बिना अधूरे
दोनों प्रतिबध्द परस्पर पूरे
आदमी के लिए ; ———–
दोनों ही निहायत जरुरी
दोनों का वशीकरण
————— जी — हुजूरी.

दोनों के मजे हैं ; अपनी तई
जुड़ी हैं दोनों से ही———–
………………बदनामियाँ कई.

सत्ता का पावर और
सुन्दरी का आफर
ललचाई निगाहों से तौलता है
उसका ईमान हर बार डोलता है
उसे पाने की लालच में
आदमी! हमेशा ————
“कुत्ते की भाषा” बोलता है.

सत्ता और सुन्दरी दोनों का
नशा है
:आदमी ; किससे बचा है ?

सत्ता का नशा ———-
सिर चढकर बोलता है
अदना नेता ————-
कीर्तिमान तोडता है;

सुन्दरी ——–शर्माती है
पहलू ग….र्मा….ती है
आदमी को; “आम ” से
: “खास” ; बनाती है.

सत्ता और सुन्दरी
दोनों में अनूठा आकर्षण है
दोनों ही ” चिकने घडे हैं ”
शून्य प्रतिशत घर्षण है.

ये दोनों ही जब ; सड़कों पर आते हैं
देखनेवाले “भय ” अथवा “भाव” से
————— जड़ होकर रह जाते हैं .

सत्ता है तो;
कई सुन्दरियाँ
होंगी आसपास
और ; सुन्दरी ही तो
सत्ता के गलियारों तक
आपको ले जाने का
करती है ; सफल प्रयास .

सत्ता और सुन्दरी की
मात्र नामराशियाँ ही
एक नहीं हैं ———– (कुम्भ राशि)
सदियों से दोनों ही धाराएं
समानान्तर बही हैं .

इनका नशा————-
जब परवान चढता है
हर कोई सलाम करता है
और; जब उतरता है, दोस्त !
: आदमी ; बुरीतरह बिखरताहै

सत्ता और सुन्दरी
दबाब की परिस्थितियों में
बेहतर काम करते हैं ;
निरंकुश हो जायें अगर
तो; जीना हराम करते हैं .

सत्ता को चाहिए …………..
जोड ———– तोड में माहिर
: बाहुबलि ————-शातिर,
और; सुन्दरी को पैसा प्यारा है
यदि शक्तिभी है ; आपके पास
तो; उसका सर्वस्य हमारा है.

सत्ता के समन्दर में नहाकर : सुन्दरी
और “नमकीन” हो जाती है;
जब तक ” जवान है——–जापान है ”
परिपक्व होते ही—“चीन” हो जाती है.

सत्ता और सुन्दरी
दोनों ही प्रतिबिम्ब हैं
” नंगी व्यवस्था के—–
अश्लील प्रश्नचिन्ह हैं
लोकतंत्र है ; आ….ई….ना
—– बात समझ में आई ना !

शास्त्रोंने;सत्ताऔ सुन्दरीको
“प्रथम सेवक” — कहा है
मगर; सदियों का इतिहास
उठाकर देख लो ; आप !
इनके लिए हर युग में निरन्तर
: बेहिसाब लहू बहा है…….
*********————********

संघर्ष ; शेष है !

March 2, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

किसी नदी का
सिर्फ़ नदी होना ही पर्याप्त नहीं होता ॰
किसी भी नदी का जीवन बहुत लंबा नहीं होता
बेशक; लंबा हो सकता है : रास्ता ,
न, ही ………………..
शेष रह जाता है
नदी का जीवटता भरा अस्तित्व
कहीं किसी महासागर में
आत्म—सात हो जाने के पश्चात ॰

इसीलिए; ज़रूरी है——–
हर नदी के लिए
—- बनाए रखे अपनी पहचान
—- जिजीविषा के प्रतिमान
—- जीवन के मधुर गान ॰
कुछ कर गुजरे ………..
महाकाया में विलय से पहिले ॰

यही यथार्थ पिरोये
उसकी लहर—लहर ढोये
उद्धेग…… अल्हड्पन…… तीव्रता
दिशा—हीनता का बोध
चुभते—नुकीले पत्थरों के मध्य
जीवन—संगीत का शोध
किसी आवश्यकता के मद्दे—नज़र
बंजर सींचने की क्षमता ढहते किनारों का प्रतिरोध
उसकी पहचान बने
नदी ………… मात्र एक नदी न रहे !
: सृष्टि का जीवन—गान बने ॰

तभी; किसी नदी की
उद्गम से विश्राम तक
तय—शुदा शौर्य—गाथा की सार्थकता होगी ॰
संघर्ष ——— हर पल जारी है
नदी ………………
: कोई युद्धरत अनमनी सदी
:अनुपम त्रिपाठी
*********_______********
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कविता — बिका हुआ खरीददार

March 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

बेशक; तुम खरीद लोगे!
……………… बिछाओगे
निचोड़ कर फेंक दोगे; मुझे
: एक हिकारत के साथ…..

लेकिन; फिर भी हार जाओगे !
हाँफती साँसों से यकीनन
: कैसे पार पाओगे ?

पीड़ा और समर्पण से गुज़रकर
मुस्कुराऊंगी : मैं—-विजयी बनकर

क्योंकि ;
अपने दाम———–
मैंने खुद तय किए हैं.

कविता — संदर्भ हीन

February 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम !
किसी दुर्दम्य वासना में क़ैद
छटपटातीं रहीं
जल — हीन मछली सी …….

और मैं ;
तमाम वर्जनाओं में घिरा
मोम–सा पिघलता रहा
अनमना सुलगता रहा
यक़ीनन , यह समझौता था—सम्बंध नहीं
कहीं कोई प्रतिकार नहीं
तनिक भी प्रतिबंध नहीं

तब भी ———
जब ओढ़ती रहीं : तुम
उस मर्द की देह
: जिसे पति कहा गया ………..
एक अनमनी प्रक्रिया की तरह
निर्लिप्त परोपकार लिए
: वंश—परम्परा हेतु

तुम !
बनी रहीं बंजर ; अ—सिंचित जमीन सी
स्लथ ……. स्तंभित ………… स्खलित

“ वह “————–
जब भी मनोयोग से झुका तुम पर
“तुम” , ……… और ऊपर उठ गईं
: ऊपर—बहुत ऊपर…उसकी पहुँच से परे
दोनों चेतनाएं —— भटकती रहीं
भौतिक—क्रियाएँ असामान्य पूर्वाग्रह लिए
प्रतिक्रिया—विहीन हादसे सी गुजरीं

लेकिन ; कहाँ था दोषी ?
‘ वह मर्द ‘…….. जो पति था !
मगर ; पा न सका अपना स्वामित्व
अनुभवों ने तुम्हें बखूबी सिखाया
मोहजाल फैलाना

वही हुआ ——-
‘ जिस्म के जंगल ‘ का ‘ वर्जित फल ‘
खाने की लालसा , ले आई तुम्हें
अनगिनत बाहों में पिसने के लिए
मिथ्या–सुख की प्रपंची—ज्वालायें
पोर ——- पोर में समाकर
आप्यायित करती रहीं : तुम्हें

तुम !
उन्मुक्त मादा सी
यौवन—भार से इठलातीं
विचरतीं रहीं निरंकुश
अ—विश्वास की तेज़ धूप में
परछाई—सी …. बद—हवास
किसी अंत————हीन यात्रा में
संदर्भ—हीन……एकाकी…….निरर्थक
*********————*************

ग़ज़ल

February 19, 2016 in ग़ज़ल

ग़ज़ल
: अनुपम त्रिपाठी

इक शख्स कभी शहर से ;
पहुँचा था गाँव में ।
अब रास्ते सब गाँव के ;
जाते हैं शहर को ।।

खेत–फ़सल–मौसम ;
खलिहान हैं उदास ।
ग़मगीन चुभे पनघट ;
हर सूनी नज़र को ।।

कुम्हलाने लगे ” चाँद” ये;
घूंघट की ओट में ।
पायल से पूछें चूडियाँ ;
कब आयेंगे घर ” वो ” ।।

बेटा निढाल हो के ;
हर रोज पूंछे माँ से ।
क्यूं छोड़ गया बापू ?
इस गाँव को– घर को ।।

गाँवों में कम है : सुविधा;
पर अपनापन महकता ।
बेहतर है रुखी–सूखी;
ये अपनी गुज़र को ।।

सुनते हैं रहती गाँवों में;
भारत की आत्मा ।
शहरों में क्या है : जादू ?
लगे आग शहर को ।।

डंसती है रात बैरन ;
झुलसाए मदन तन–मन ।
कैसे बताऊं साजन ;
मैं ! पीती ज़हर जो ।।

हुक्के में डूबा ” बापू ” ;
अलाव बन गया ।
किसको दिखाऊं ” अनुपम”
इस चाक़— जिग़र को ।।
: अनुपम त्रिपाठी
**********——-*********
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व्यंग्य —- पूंछ पुराण

February 19, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

व्यंग्य ……………………………………
****** पूंछ— पुराण (समग्र)******
कभी देखा है ;आपने , ऐसा कुत्ता !
जो ; देखने में हो छोटा–सा
मगर;पूंछ उसकी लंबी हो
यानि कि ; —— भली–चंगी हो.
जी हाँ !
कई ऐसे कुत्ते हैं : यहाँ
और बहुतायत में हैं : वे पूंछें
जो;जरुरत पड़ने पर,किसी भी कुत्ते के पीछे लग जाती हैं
……………………. अपने — आप को खू—-ब हिलाती हैं .
पूंछ की महिमा निराली है…………
तमंचा है : कुत्ता — तो ; पूंछ : दुनाली है.
पूंछ : आजकल शान का प्रतीक है……
सोचिये जरा! पूंछविहीन कुत्ता भी कितना खाली-खाली है ?
कुत्ता नामक ” संज्ञा ” पर ;
पूंछ : “विशेषण ” की तरह नज़र आती है
……..हिलते रहने की प्रक्रिया दोहराती है.
यहाँ ” कुत्ता ” ; पशु नहीं ——— प्रतीक है
लोकतांत्रिक व्यवस्था है ———— ठीक है
………. और ; पूंछें तो विशुद्ध व्यक्तिवादी हैं
“वे” ; अभिशप्त हैं ————- हिलने को
स्वाभाविक तौर पर ; इसकी आदी हैं .
फिर भी ; पूंछ की परख कम नहीं होती
……….. कुत्ते के पास है ही “वह इकलौती”
कुत्ता : उसे शान से लटकाये घूमता है
सदैव ……”दूसरों की उठाकर सूंघता है” .
हिलती हुई पूंछ ; कुत्ते को आल्हादित् करती है….
——कुत्ता मिमियाये तो पूंछ दुबक जाती है——-
गुर्राते हुए कुत्ते की ; पूंछ भी क्या खूब फ़बती है !
पूंछ का टेढापन ; कुत्ते के अहम् को संतुष्ट करता है
पूंछ उठाकर ही तो;कुत्ता : विजेता की तरह लगता है.
पूंछ का भूगोल ही ; कुत्ते की नागरिकता तय करता है
: इसी पूंछ से ही तो उसका इतिहास उभरता है.
टेढापन : पूंछ का स्थायी ——— भाव है
दबाव में दुबक जाना जन्मजात् स्वभाव है
कुत्ते : स्वभाव से शान्त् होते हैं
आक्रामक होती हैं ——- : पूंछें
जो अनचाहे हिलती हैं — आपस में मिलती हैं
और घेर लेती हैं ——————- कुत्ते को.
कुत्ता : मुस्कुराता है … खिलखिलाती हैं : पूंछें
कुत्ता : गुर्राता है ……. सहम जाती हैं : पूंछें
कुत्ता : बैचेन है………. बिलखने लगती हैं
पीछे मुड़कर–टांगों में घुसकर ; सहलाने लगती हैं
: कुत्ते को ही हिलाने लगती हैं .
कुत्ता : पूंछों के बीच घिरा खुद को
सुरक्षित् महसूस करता है
पूंछें : कुत्ते के आगे रास्ता और
पीछे “माल” साफ़ करती हैं
—— दोनों का मिलाप दर्शनीय होता है —–
—— औरों के लिये अ-सहनीय होता है —–
यह स्थापित् सत्य है कि ; ————–
सीधे कुत्ते की पूंछ टेढी ही होती है……
कुत्ते का टेढापन ; पूंछ पहिले ही भांप लेती है
खतरा महसूसते ही–सुरक्षित दूरी नाप लेती है
कुत्ते और पूंछ का संबंध सनातन है……….
पूंछ का “आधुनिक नाम ” —– चमचा है
कुत्ता तो सदाबहार बर्तन है………..
कुत्ते को चार लातें मारिये …… पुचकारिए
मान जायेगा ……………..
पूंछ मरोड़ कर देखिए — तुरन्त काट खायेगा .
कुत्ते के बिना पूंछ का अस्तित्व कल्पनातीत है
पूंछविहीन कुत्ता— आजाद भारत का अतीत है
कुत्ता और पूंछ ——— इस दौर की पहचान हैं
पूंछ में ही तो ज़नाब ! कुत्ते की असली जान है.
तो ; हे,मानव !
तू भी कुत्ते की कद्र करना सीख
कुछ भी दबा — कुछ भी ऊलीच
पर;शान्त् खडे कुत्ते की पूंछ कभी मत खींच
——————–पूंछ कभी भी मत खींच.
********——————*************
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————–***********————–

ग़ज़ल

January 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

ये माना कि ; मैं तेरा ख्बाब नहीं हूँ ।
मगर फिर भी ; इतना ख़राब नहीं हूँ ।।

नशे–सा मैं; चढ़ता–उतरता नहीं ।
सुराही सब्र की हूँ ; शराब नहीं हूँ ।।

मुझे पता है कि ; तू ! भुला न पायेगी ।
सुलगता सवाल हूँ—- जवाब नहीं हूँ ।।

रुबरू रुह होगी मेरी; तुझसे तो ये पढ़ना।
नंगा सच हूँ ——सस्ती किताब नहीं हूँ ।।

मैं खुशबू हूँ–हिना हूँ; याद–ए-सफीना हूँ ।
नहीं हूँ तो रिश्तों का अजाब नहीं हूँ ।।

उम्र “अनुपम” तमाम ख़र्च यूँ ही होनी थी ।
रंज़ औ—ग़म का मगर हिसाब नहीं हूँ ।।

ग़ज़ल

January 14, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

फिर वही अफ़रा– तफ़री;
उच्च—स्तरीय मीटिंग ।
गूंगे–बहरे–लाचारों की;
देश के साथ :  चीटिंग ।।

फिर कोरी धमकी की भाषा;
रोज़ नया खु….. ला…..सा।
फिर से मुर्दा चेहरे चमके;
देते खूब दि….ला…..सा।।

फिर बूढों के अस्तबल में;
हुई थोड़ी सी : हलचल।
फिर सदमे में : सरहद;
माँ का लहूलुहान है : आँचल।।

आज बिलखते वे ही जिनने;
इस नासूर को पाला है।
आज चींखते वे ही जिनके;
दामन में इक छाला है।।

ये ही नेता कल कंधार तक;
आत्मसमर्पण करने गए थे।
संसद — हमले में ये नेता !
जाने छुपे—- कहाँ मर गए थे।।

आज चींखते जोर–शोर से;
घडियाली आंसू बरपाते।
अनचाहे अपने आँगन में;
नापाक़ बारूदें रच जाते ।।

अब शर्म करो ! कुछ शर्म करो !!
फर्ज़ पुकारता है माँ का।
ज़र्रा–ज़र्रा लहू में डूबा ;
देखो अपनी सीमा का ।।

चींख–चींख के भारतमाता;
कहती अब तो माफ़ करो।
आजादी को परिभाषा दो;
थोड़ा तो इंसाफ़ करो ।।
: अनुपम त्रिपाठी
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*******———–*********

” किस्सा–कुर्सी — का “

December 30, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

व्यंग्य गीत ———– अनुपम त्रिपाठी
” किस्सा–कुर्सी — का ”
बचपन में किस्सों में कुर्सियों की बातें सुनते थे।आजकल कुर्सियों के किस्से आम हैं । लेकिन ये कुर्सियाँ मिलती कैसे हैं ?
इस लोकतंत्र की महती विडम्बना भी यही है कि ; कुर्सी सेवा पर हावी है।
बेशक ; लोकतंत्र जीवित है ——– जीवन्त नहीं बना पाए हम इसे ।
क्या अपने वर्तमान — अपने इतिहास से सीखा है;हमने कुछ!!!
—————–*********—————–
ये कुरसी का खेल रे भैया ; ये कुरसी का खेल है |
राजनीति में आज शराफत ; बुरीतरह से फेल है ||
अर्थव्यवस्था गिरवी हो गई ; विश्व-बैंक के हाथों में ।
बजट तोडता दम ये हमारा ; कर्ज के भारी खातों में ।।
भूख–गरीबी–बेकारी या ; रोटी–कपड़ा और मकान।
सिमट के सारी तकलीफें भी ; रह गई कोरी बातों में ।।
मज़हब : वोट बैंक बन गया ; धर्म बना : सत्ता की सीढी।
पिछला कितना भोगा हमने ; भोगेगी अब अगली पीढ़ी ।।
सबसे सस्ता खून हो गया ; बिकता मंहगा तेल रे भैया।
————————– ये कुर्सी का खेल है भैया ।।1।।
————————-
“दल–दल”में दल मिलते जाते ; नया मोर्चा रोज बनाते।
जनता का दिल धडका करता ; सेन्सेक्स के आते – जाते।।
संविधान का चीर –हरण अब ; संसद में भी आम हो गया।
नैतिकता और जनसेवा का ; नारा ही बदनाम हो गया।।
घडियालों से पटा पडा है ; लोकतंत्र का महासमन्दर।
अपना ही सिर मूंड रहे हैं ; “गाँधी—- टोपी वाले बंदर” ।।
जेब में दम हो– तुम भी खरीदो ;चुने हुओं की सेल रे भैया।
—————————- ये कुर्सी का खेल रे भैया ।।2।।
————————
जब हों इलेक्शन—-भूल के फ्रेक्शन ; सारे एक हो जाते हैं।
अल्पसंख्यक और दलित नाम पर ; सारे नेक बन जाते हैं।।
हिन्दू–मुस्लिम—सिख–ईसाई ; कहता कौन हैं : भाई-भाई।
अलग–अलग कानून सभी के ; जुदा—जुदा है : रहनुमाई।।
वोट का सारा गणित इन्हीं से ; ताश के बाबन — पत्ते हैं ।
वक्त — जरुरत ट्रम्प — कार्ड ये ; बाद में सारे छक्के हैं ।।
पाँच साल तक सोते रहते ; फिर मचती रेलम-पेल है भैया।
—————————– ये कुर्सी का खेल रे भैया ।l3ll
——————-
ज्यों–ज्यों मंहगी हुई है खादी ; नेताओं के मूल्य गिरे हैं ।
नैतिकता के ताने—–बाने ; नेतृत्व के कारण बिखरे हैं ।।
मूल्यवृध्दि में पिसकर अब ; जनता ये सिर धुनती है ।
धूँ….धूँ करके देश जल रहा ; ” दिल्ली ॐचा सुनती है “।।
अरे ! जागो—-जागो भारतवालों ; देश तुम्हारी थाती है।
” सिंहासन खाली करो …… कि ; जनता आती है ” ।।
मेरा देश महान है , क्योंकि ; लोकतांत्रिक जेल है भैया।
————————- ये कुर्सी का खेल है भैया ।।4।।
————————-
संविधान की सब धारायें ; सुविधा के आधार पर चलतीं।
नेताओं की निष्ठायें भी ; मौका देख के रंग बदलतीं ।
दो दूनी वे पांच हो गए ; पत्थर थे : अब काँच हो गए ।
इतना झूठ पका हांडी में ; नेता सारे : आँच हो गए ।।
देशप्रेम अब हवा हो गया ; सुन बापू ! ये क्या हो गया ?
फिर से तिरंगा बीच सडक पर;जाने न्याय कहां खो गया।।
मरजी पे मतदान कराते ; इनकी कहां नकेल रे भैया ..।।
————————— ये कुरसी का खेल रे भैया ।।5।।
***************
(अपने जन्मस्थान की वीरांगना रानी झांसी को और उनके माध्यम से समस्त स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को श्रृध्दासुमन सहित ] **************
आजादी की अमर—- कहानी ; जाने कितनी बार पढी ।
फिर भी याद नहीं ये हमको ; कहां की ” रानी खूब लडी” ।।
कौव्वे सारे शिखर पे बैठे ; भटक रही कोयल वन–वन में ।
सुलग रही है — आग मगर ये ; हौले — हौले जनगण में ।।
अब विश्वास करें हम किसपर? और किसे हम अपना मानें ??
हर चुनाव में दुविधा भारी ; अंधे चुनें …… या चुन लें काने।।
जहाँ हो मरजी — चेन खींच लो ; देश ये जनता–रेल है भैया।
अब बदलाब जरुरी “अनुपम” ; बासी हो गई भेल रे भैया ।।
——————————ये कुरसी का खेल रे भैया ।।6।।
……………….. ये कुरसी का खेल है……… ………………………..
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*******************——-**************

हास्य कविता — सन्नाटे की गूँज

December 30, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

(हर पति की ओर से अपनी पत्नी के प्रति शाश्वत भावना एवं हर पत्नी की अपने पति के प्रति सारस्वत भावना को समर्पित् हास्य — रचना )

आखिरकार ईश्वर ने हमारी सुन ही ली
आज सुबह-सबेरे ही पत्नी बोली ——-
“ऐ; जी! सुनो , मैं तो मायके चली
यहां तो तंग आगई हूं
कुछ दिन चैन से रहूँगी
: हद होती है; यार ! ………. कब तक सहूँगी “.

खुली जेल में ; यह पहली आजादी की
बयार थी
दोपहर तक श्रीमती जी! सामान सहित
तैयार थी
: हमारा मन-मयूर नाच रहा था
पत्नी की हर भंगिमा जाँच रहा था.

तभी उसने धमाका सा किया ;
एक कागज़ गोपनीय — पत्र सा
हमें थमा दिया
क्या करें ? ———– क्या ; न करें ??

कागज़ क्या था! दिशानिर्देश भरा फरमान था
पत्नी का जाना जितना सच था —————-
आजादी का अहसास उतना ही बे- ईमान था.

-“घडी का अलार्म सुबह छह पर है : उठ जाना
सात बजे नल चले जायेंगे — : जल्दी नहाना
फिर दूधवाला भईया आयेगा ;
दूध लेकर गरम कर लेना
: दूध और गैस को भूल मत जाना ————-
याद रखना ! सिर्फ अखबार ही न पढ़ते रहना !

—” ठीक आठ बजे कामवाली बाई आयेगी
कामचोर है : तुम्हें अकेला जानकर रिझाऐगी
: मेरी कसम है ! ——— उससे बचकर रहना
बेहतर होगा ; उस दौरान
कुछ पूजा पाठ कर लेना .”

— “खाना तो बाहर ही खाओगे ? ? ? ? ?
मुझे पता है —— फिर उसी जगह जाओगे ?
: इससे बेहतर मौका कब मिलेगा ? ? ?
बुढापा आ गया है !
ये सब आखिर कब तक चलेगा ? ”

—“अच्छा होगा ; अगर रोज शाम – बिना काम
एक – एक करके पुराने दोस्तों के घर हो आना
: देखो जी! अपने ही घर में रोज ;
महफिल मत जुटाना .”

यह उसकी सलाह थी — या; मुझपर ऊलाहना
समझ सको यार ! —- तो ; मुझे भी समझाना .

मैं ; शांति से सब पढ ———- सुन रहा था
तमाम झंझावतों के बीच ,
हसीन सपने बुन रहा था

पता नहीं क्यों ?
आज घडी भी कुछ धीमी चल रही थी
भाग्यवान ! …….तैयार तो थी;
पर बाहर नहीं निकल रही थी.

उसका भाषण जारी था ———-
उफ़ ! समय भी कितना भारी था.

आखिरकार वह घङी भी आई;
पत्नी को हमने दी भावभीनी बिदाई

उसकी आँखों में अविश्वास-सा झलक रहा था
शायद ! मेरा चेहरा ; खुशी के मारे
———————— कुछ ज्यादा चमक रहा था.

गार्ड की पहली व्हिसिल के साथ;
उसने अंतिम बार चेताया
–” याद रखना ! —– कुछ गडबड न हो !!
——– जल्दी ही आ जाऊँगी ———

अपना ध्यान रखना —- रोज मुझे फोन करना .

मैं ; आज्ञाकारी—- सा सिर हिलाता रहा
गाडी अभी हिली भी न थी ………………..
बे — वजह दोनों हाथ लहराता रहा .

आखिरकार ; राम-राम करके गाडी खुली
मैंने राहत की साँस ली ——————–
उड़ते – उडाते घर पहुंचा ;
मन को देता रहा धोखा.

सामने खाली पडा मकान मुंह चिढा रहा था
हर बीता लमहा शिद्दत से याद आ रहा था

पत्नी की उपस्थिति से बढ़कर …………..
…………… उसकी रिक्तता पसरी पडी थी

मैं वही था…………….. दीवारो — दर वही थे
लेकिन ; ………. “घर ” कहीं खो गया था.

धीमी चलती घडी ———- रुकी खडी थी
सन्नाटा : चींख रहा था —————–
——————- तनहाई : बिखरी पडी थी.

हर औरत !
” अपने घर ” की ज़रुरत होती है………

हाँ ; ये सच है कि —————–
अपनी उपस्थिति में ही ” वह ”
अपना वुजूद खोती है ……..
हाँ ! यही सच है——————

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गुस्ताखी माफ़ !

December 30, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

गुस्ताखी माफ़ !

बच्चों के प्रश्न भी अज़ीब होते हैं !
मगर ; सच्चाई के कितने क़रीब होते हैं !!
कल ही आधुनिक–भारत का सच पढ़ते हुए ,
प्रत्यक्ष – से , परोक्ष – रूप में लड़ते हुए ,
मेरे बेटे ने मुझे पूछा ——————-
‘‘ पापा ! कानून की आंखों पर पट्टी क्यों बंधी होती है ?
क्या, न्याय—-प्रक्रिया वास्तव में अंधी होती है ?? ’’

‘‘ हे, ईश्वर ! यह प्रश्न था या पहाड़ ?
सभी तो समान हैं —————
बिहार का बेऊर जेल हो…या दिल्ली का तिहाड़. ’’

मैं , ………………… निरूत्तर था,
बेटे का प्रश्न — स्वयं में उत्तर था.

उसकी जिज्ञासा जारी थी —- मेरे अनुभव पर भारी थी.

वह बोला -‘‘ शायद ! कानून ; धृतराष्ट्र की तरह जन्मजात् अंधा होगा
या फिर , भीष्म—पितामह-सा , संवैधानिक—- सत्ता से बंधा होगा
यदि लोग जान लेंगे कि , कानून : वास्तव में अंधा है ,
: अंधाधुन्ध फैसले इसीलिए करता है
तो, उनका विष्वास उठ जायेगा………………
अदालत तक , न्याय पाने , कौन जायेगा ? ’’

‘‘ लोगों में यह भ्रम बना रहे कि , कानून अपना काम कर रहा है ……………
न्याय : केवल नज़ीर की बात नहीं , वातावरण—-सा चारों ओर बिखर रहा है
न्यायमूर्ति ! आंखों पर पट्टी बांधकर , सबूतों के आधार पर सच पहचानकर ,
उसी की तरफ फै़सला सुनाता है—‘तराजू का जो पलड़ा’ भारी कर दिया जाता है ’’
‘‘ तराजू : इसीलिए तो खाली झूलती है, पापा !
कि, जो चाहे ——— अपनी ओर झुका ले. ’’

मैं, इस नये दृष्टिकोण से हैरान था,
बाल-सुलभ अंदाज़ से परेशान था
उसे कैसे समझाता —- ‘‘ हे, आज़ाद भारत के निष्कलंक आईने !
तू कब बूझेगा , प्रतीकों के माईने ? ’’

– ‘‘ कानून की आंखों पर बंधी पट्टी , भेदभाव–रागरंजिश से परे होती है
प्रेमचंद का ‘पंच—परमेश्वर ’, ‘ अलगू ’ हो या ‘ जुम्मन ’ ,
खाला—-सी—-जनता , न्याय पर भरोसा धरे होती है

—— ‘‘ बेटे ! यह तुम्हारा नहीं, पीढ़ी का दोष है
मुझे पता है, तू ! पूर्णतः निर्दोष है. ’’

—‘‘मीडिया के मार्फत अपराध का महिमामंडन् ,
व्यवस्था का हृास———–मूल्यों का विखंडन् ,
इसी तरह का सामाजिक ढांचा तैयार करता है
कि , आदमी ! अपनी परछाई से भी डरता है . ’’

———‘‘ न्यायाधीश भी इन्सान् होता है , ‘ उसका भी ईमान होता है’ !
समाज़ : समय का आईना होता है , समय : सत्य को सूत्र में पिरोता है. ’’
——‘‘ तू ! आस्था का चिराग जलाये रखना , ताउम्र सच की राह पे चलना
प्राकृतिक-न्याय सदैव निष्पक्ष होता है, सत्य : सुगंध की तरह प्रत्यक्ष होता है”

क्योंकि, झूठ के पाँव नहीं होते !
परछाईयों के गाँव नहीं होते !!

: अनुपम त्रिपाठी

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मित्र कौन !

December 30, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

 

सच्चा मित्र —— होता है : संघरित्र !

आपसे जुड़कर—आपका विषाद बाँटता है
आपकी ऊष्मा आत्मसात् करता है
……….. आपको ऊर्जा से भरता है.

सच्चे मित्र के मुँह पर ; ऊगते हैं : बबूल !
वह गुलाब–सा ललचा कर
लहू——-लुहान नहीं करता
: अनचाहे–अनजाने काँटे नहीं चुभाता
आपकी परछाई होता है………………..
……………..आप पर हावी नहीं हो जाता .

सच्चा मित्र …… आपकी ज़रुरत होता है !
वह आपके ” मन के खलिहान ” में
सजग प्रहरी सा सोता है
जब आप बेख़बर होते हैं
वह…… जाग रहा होता है
: आपके दुश्मनों के पीछे
———– भाग रहा होता है.

आप !
मित्र के कांधे पर सिर टिकाकर
————— रो सकते हैं
मित्र के विश्वास से महकते मन में
————— सो सकते हैं.

सच्चा मित्र ; आप से कभी प्रतिदान नहीं चाहता !
वह ” कर्ण– विदुर या भामाशाह ” सा होता है
वही तो अनुभव के महासागर की थाह होता है.

सच्चा मित्र ; जीवन की परम् उपलब्धि होता है
” सब कुछ ” खो जाता है
: जब सच्चा मित्र खोता है.

तो; क्या ‘ हम ‘ भी !
किसी का सच्चा मित्र बन पाए हैं ?
: अनुपम त्रिपाठी
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संघरित्र— एक उपकरण जो ऊर्जा का संचय करता है/Condenser./capacitor
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“ धूप की नदी “

December 30, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

लड़की ; पड़ी है : पसरी
निगाहों के मरुस्थल में
………….धूप की नदी सी ।

लड़की का निर्वस्त्र शरीर
सोने—सा चमकता है
लोलुप निगाहों में
शूल—सा चुभता है ।

मगर , वह बे—खबर है
पसरी
पड़ी
है
धूप की नदी सी ………
निगाहों के मरुस्थल में ।
देह की रण—भूमि पर
विचारों के कुत्सित—शस्त्र
मर्यादा का ख़ून कर
गूँथ गए भूलकर
लड़की का बे—बस पिता
हाथ जोड़े तक रहा
: एक और जलती चिता ।

लड़की ; तनिक भी नहीं हिली ……शायद ! वह जानती है : अपनी नियति ।

उसे ; पता है ———–
निगाहों का मरुस्थल , उसका जीवन होगा !
और धूप की नदी : उसकी अभिन्न सखी !!

उसे ; पता है ———–
फैला
है
जिस्म
धूप बनकर धरती पर ।
कल ;
जब होंगे ….. उसकी देह पर खेत
हटाई जाएगी …… आसपास की रेत
वक्त : एक सवाल बनकर सम्मुख खड़ा होगा
“ शीशे की दीवार पर “ ; पारे—सा जड़ा होगा

निगाह : नदी बनकर बहेगी
नदी : समर्पण—कथा कहेगी
उसका हौंसला — उसकी उड़ान होगा
मुट्ठी में बिंधा ——– आसमान होगा
इतिहास के पृष्ठों से उभरकर ……….
भविष्य की जमीन पर बिखरकर……….
……………….. नई इबारत लिखी जाएगी
यही नदी : समंदर की पहचान कहलाएगी

जिस्म
का
जंगल
सुलगेगा
: बनेगा कुन्दन
धूप के मरुस्थल में ……………
………………. हवस दम तोड़ देगी

इसीलिए तो ; ——-
पसरी पड़ी है : लड़की
: निगाहों के मरुस्थल में
: धूप की नदी सरीखी ।
: अनुपम त्रिपाठी

“ सच का साक्षात्कार “

December 28, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता

कल अनायास मिला राह में
दीन – हीन ; कातर
याचक—सा खड़ा : सच
उसने आवाज़ लगाई —
“ मुझे रास्ता बताओ ….. भाई ! “
सच एक सुगंध की तरह फैलता है : ज़ेहन में
और ; मसल देते हैं …….. लोग
भावनाओं को ————– जुगनुओं की तरह
— “ जाने कब से भटक रहा ; बेचारा !”
मैंने सोचा , ……… साथ ले आया
लोग कतराने लगे ………………
मुझसे परे जाने लगे ……………
क्योंकि ; अब लटका रहता हरदम
: सच मेरे काँधों पर
शब्द : आँखों की शालीनता और
भावों का माधुर्य बाँटने के बावजूद
: अश्लील क़रार दिए गये……….
मैं ; परिचितों से होता गया दू…र और दू……र
ज्यों—ज्यों बनता गया : सच …… मेरा अंतरंग
यक़ीन कीजिए ; कई बार सोचा ————————–
“ कहीं दू….र छोड़ आऊँ —— मुसीबत से छुटकारा पाऊँ “
लेकिन ; नैतिकता का तक़ाज़ा ………………….
..“ जाने कितना भटका होगा ; ……… बेचारा ! “
: सच ; मेरे साथ ही रहा ………….
“ वह “ आत्म-ग्लानि में डूबा …… एकाकी—उदासीन
“ मैं “ ; डरा—सहमा ………..उपेक्षित—–आत्म—लीन
धीरे—धीरे बौखलाने लगा : सच !
सच ! बात…बे-बात झल्लाने लगा
अपनी उपस्थिति जानकर ; छद्म—परिवेश पहचानकर
कड़वाहट घुल गई , सच की जुबान में
उभरने लगी हताशा ————- आँखों के तरल पर
“उसने” ; बाहर निकलना बंद कर दिया
घोंघे—सा दुबका रहता,“चुप के मकान में“
लोग आते ——– झाँकते मेरे कमरे में
सच की उपस्थिति महसूस कर
: नि:शब्द लौट जाते
—– कहीं कोई अवसाद नहीं………………
सच ……………. बैचेन रहने लगा
अपने—आप से अनमना ; एक दिन बोला —-
“ मुझे उन्हीं बीहड़ों में छोड़ आओ : भाई ! “
“ ये ; फ़रेब की दुनियाँ , कतई रास नहीं आई !!”
—– “ मर चुकीं हैं ……….. मानवीय संवेदनायेँ
परस्पर ; मात्र औपचारिकता का नाता है ………..
यहाँ तो ; साया भी मुँह चुराता है……………………. “
आज भी ; असंख्य सच मँडराते हैं : हमारे आस—पास
मगर ; हम गुजर जाते हैं ; उनसे नजरें चुराकर : सप्रयास
सच !
बेहद हताश होकर जुटाते हैं
: थोड़ी—सी नींद
और “दे…….र—– सुबह” तक सोते हैं——-
यक़ीन कीजिए ; ——————–
सच ! ………… सारी रात रोते हैं———–
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