SACHIN
‘सच’ बस तु हौले से चल…
February 6, 2021 in हिन्दी-उर्दू कविता
वो पलकों की सजावट से,
वो गलतियों की बिछावट से,
दिखावटी फिसलन की दौड़ में….
मैं नदी से हौसला भर लाऊंगा,
‘सच’ बस तु हौले से चल…
मैं पगडंडी से दूर निकल जाऊंगा||
ऐ जिंदगी तु बतला तो सही,
प्रीत का कितना है फासला???
हो रही जो झूठ की बौछारें,
कितना है नम अब रास्ता,
आत्मविश्वास का छाता लिए…
मैं अपनापन सहज लाऊंगा,
‘सच’ बस तु हौले से चल…
एक दिन मैं मंजिल पर पहुँच जाऊंगा||
अंधेरा घना जो अब छा रहा…
कदम भी थोड़ा डगमगा रहा,
ऐ गति, कुछ पल तु ठहर जरा,
गम की इन मावस रातों में…
मैं एकादशी का चांद बन जाऊंगा,
जिंदगी भी पलकें उठा देखेगी…
जब मैं आसमां से मुस्कराऊंगा,
‘सच’ बस तु हौले से चल…
मैं रोज प्रभात भी जगमगाऊंगा ||
गर्वित नाम की खोज मे…
काम के थकाऊं बोझ मे,
स्मरण है वो माँ का चेहरा…
है वादा इस भागदौड़ मे,
मैं लोटकर भी जरुर आऊंगा…
‘सच’ बस तु हौले से चल…
मैं खुशी का घर भी बनाऊंगा||
– सचिन सनसनवाल ©
ब्लकबोर्ड
April 30, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता
‘ब्लैकबोर्ड’ जैसा तुम्हारा दिल,
काले पत्थर सा सख्त ,
पर अन्दर से साफ है ।।
‘चॉक’ से तुम्हारे सुन्दर विचार,
इजहार करो,
अन्दर रखना पाप है ।।
कुछ गलत मानो हो भी जाए,
तो डरने की क्या बात है ।।
एक तो तेरे अपने है तेरे साथ,
दुजा ‘डस्टर’ तेरे हाथ है ।।
जहमत ही तो है उठानी,
है वही सख्ती, है वही कालापन,
पर ‘ब्लैकबोर्ड’ एक पल मे साफ है ।।
~ सचिन सनसनवाल
सिकंदर
May 26, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता
सिकंदर सा चला था मै,
सारी दुनिया जीतने…
पर माँ के दिल से हार गया ।।
~ सचिन सनसनवाल
फितरत
May 23, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता
इंसान की भी गजब फितरत है,
रिश्ते जुडे़ तो है दिल से…
और विश्वास धागों पर करता है ।
~ सचिन सनसनवाल
ख्वाबों की बेवफाई
November 23, 2017 in Other
हम तो ख्वाबों की चौखट पर बैठे थे ,
लेकर हसीन ख्वाब …
प्यारी आँखों के परदे पर ||
ख्वाबों को ख्वाब बनाने ,
आया एक मुसाफिर ,
रख दिया ख्वाबों को ,
उसने जलती आग पर ||
कोशिश बहुत की ,
ख्वाबों की नमी जोड़ने की ,
पर मेरे ख्वाब भी मनचले निकले ,
चल दिए …….
सवार हो धुएं पर ||
अफ़सोस, धुआँ भी तो आग का है ,
ना उम्मीद है बादल की ,
ना ही उम्मीद है बारिश की ,
अब इस बंजर जमीं पर ||
उठ … चल दिए है चौखट से ,
ना ही गुस्सा है ,
ना ही उम्मीद है ,
अब उन उजड़े ख्वाबों से…
नमी सी है यादों की ,
कुछ धुंधली तस्वीरें है आँखों पर ||
बस धड़कने बढ़ रही है ,
भरोसा जो टुटा है ख्वाबों पर ||
चल दिए है ख्वाब ….
मनचले कदमो से ,
बस बेवफाई की उम्मीद बैठी है ,
इन बची साँसों पर ||
~ सचिन सनसनवाल
कच्ची पेंसिल
October 5, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता
आज कल के महंगे बॉलपेन से ,
मेरी कच्ची पेंसिल अच्छी थी ||
बॉलपेन की रफ़्तार से ,
मेरी पेंसिल की धीमी लिखावट अच्छी थी ||
गलती पर रब्बर पेंसिल का साथ ,
होता गुरु शिष्ये का आभास ||
गुरु की डाट पर वो रब्बर से मिटाना ,
लिखे पर फिर से पेंसिल घुमाना ,
सिखने तक ये सब दोहराना ,
वो बचपन की सीख सच्ची थी ||
बॉलपेन के स्थाईत्व से ,
मेरे बचपन की हर गलती अच्छी थी ||
आज कल के महंगे बॉलपेन से ,
मेरी कच्ची पेंसिल अच्छी थी ||
राह में पेंसिल को शार्पनर का साथ ,
दोनों का संग मंज़िल पाने का राग ,
बॉलपेन की खूबसूरती से ,
शार्पनर-पेंसिल की दोस्ती सच्ची थी ||
बॉलपेन के अकेलेपन से ,
मेरी कच्ची पेंसिल अच्छी थी ||
आज कल के बॉलपेन से ,
मेरी कच्ची पेंसिल अच्छी थी ||
~ सचिन सनसनवाल
आश
May 6, 2017 in हिन्दी-उर्दू कविता
बैठे है अकेले राह में, दिल में कोई आश है ,
घडी की बदलती सुइयो के _सही होने का इन्तजार है ,
कुछ कदम बढाने है ,और ये सुनसान राह पार है ,
फिर करवट हम भी बद्लेगे ,क्योकि ….
राह के पार खुशहाल संसार है ,
किसी के हाथो में हाथ है ,
तो कही भरा पूरा परिवार है !
– सचिन सनसनवाल
किस्मत की नाव
November 16, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
चढ़ती लहरो को पार ना पाये
किस्मत की मेरी नाव है कैसी ||
पुकारे तो नाम में सच पाये
झूठी ले रहे ये सांस है कैसी ||
सपनो की तरंग पनप ना पाये
मंजिलो की ये उलझन कैसी ||
मौत से जुड़ चल रही है जिन्दंगी
मेरे अपनों की ये दुवाएं है कैसी ||
उमंग संग उड़ भी ना पाये
आजादी की ये अंदरुनी सलाखें है कैसी ||
चढ़ती लहरो को पार ना पाये
किस्मत की मेरी नाव है कैसी ||
– सचिन सनसनवाल
खोया शख्स
April 3, 2016 in शेर-ओ-शायरी
ढूंढने निकला हूँ एक शख्स को ,
जो खो गया है …
मेरे भीड़ में खो जाने के बाद !
स्कूल वाले जूते
April 3, 2016 in Other
जब से लाहगी है चोगठ अपने शहर की ,
स्कूल वाले जूते याद आने लगे है।।
-सचिन सनसनवाल
मन दोस्त माने ना !
April 3, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
कुछ समय बाद बिछड़े दोस्तों से हम यु मिले ,
देख कर उनका नाम भी याद आया ,
रंग , रूप और उनकी दोस्ती का दाम भी याद आया ,
कभी गहरी दोस्ती थी उनसे हमारी,
पर अब ये मन उनको दोस्त माने ना !
कुछ बाते कुछ मुलाकाते याद आई ,
मन ही मन आँखे भर आई ,
देख कर उनको आँखों को सुकून आया ,
आँखे ये हमारी उनको परिचित कहे ,
पर ये टुटा दिल उनको पहचाने ना !
आकर फिर से वही मीठा चुना लगाया ,
समझ गये झूठी वफा का तूफान आया ,
हमने भी कुछ बातो का पतवार घुमाया ,
कुछ एक कानखी में उनका चेहरा मुरझाया ,
हमारी गुस्ताखी से अब संभव है …
हम उनको जाने ना वो भी हमें पहचाने ना !
– सचिन सनसनवाल
मूर्खो का मुर्ख दिवस है आज
April 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
मुर्ख बना मूर्खो को हो रहा नाज
देखो मूर्खो का मुर्ख दिवस है आज ||
मूर्खो पर तुम भी थोड़ा हंस दो भाई
मुर्ख हो दूसरों को मुर्ख बनने में लगे है
भारतीय है पर पश्चिमी त्यौहार बनाने में लगे है
ख़ुशी से अपना ही मखौल उड़ाने में लगे है
ऐसे नादान है कुछ मुर्ख भारतीय भाई ||
आओ आज भुत में चलते है…
इतिहास के पन्ने पलटते है…
पॉप ग्रेगरी नामक व्यक्ति था नकलची
जिसने भारतीय पंचांग से पश्चिमी पंचांग बनाया था ||
प्रथम अप्रैल को ठुकरा
प्रथम जनवरी को नया साल बनाया था ||
विश्व में नए पंचांग का चलन बढ़ने लगा
जिसे प्रथम फ्रांस देश ने अपनाया था ||
भारतीय थे वास्तविक पंचांग के रचनाकार
हमने “विक्रम सवंत” को ना ठुकराया था ||
अप्रैल में नए साल का त्यौहार बनाया
विदेशियों ने इसका मखौल बनाया था ||
हमको मुर्ख बतलाने के लिए ,
मुर्ख दिवस बनाया था ||
वक्त बदला, पंचांग बदला,
बदला सारा दौर ||
गूंगी पङवा को मुर्ख दिवस बना रहे ,
अपना ही मजाक उड़ा रहे,
ऐसे भोले व मुर्ख भारतीय लोग ||
पश्चिमी सभ्यता में समझते जो नाज
उन मूर्खो का मूर्ख दिवस है आज ||
~सचिन सनसनवाल
जिद्द है !
April 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ना गजल ना ही तो गीत है जाल है बस शब्दों का ,
शब्दों से शुरू हो भीतर ही भीतर खुद से लड़ने की जिद्द है !
नही मानता कहानियों-कथाओं को बच्चा कलयुग का ,
परियों की कथाओं से मन के बच्चे को बहलाने की जिद्द है !
खुलीं-बंद आँखों से खोया रहता एक परिंदा सपनो का ,
हकीकत की हरयाली में परिंदे को लाने की जिद्द है !
चौराहों पर खड़ा रह भुलाया है वक़्त इन्तजार का ,
बन मुसाफिर नयी दिशाओ में जाने की जिद्द है !
सब कुछ छुपाने से बढ़ चला है बोझ मन का ,
जाने से पहले मन की सब कह जाने की जिद्द है !
बुरा है चुपी से रूठ कर दूर हो जाना अपनों का ,
बतियाकर अब तो रूठो को मनाने की जिद्द है !
बहुत निकल चूका है पानी ठंडी आँखों का ,
दौड़ते गर्म खून से कुछ कर जाने की जिद्द है !
ना गजल ना ही तो गीत है जाल है बस शब्दों का ,
शब्दों से शुरू हो भीतर ही भीतर खुद से लड़ने की जिद्द है !
~ सचिन सनसनवाल
आरोप से पहले बलिदान याद ना आया
March 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
“सैनिक है मेरे भाई – मैं हूँ किसान का बेटा “
कहने से पहले क्यों तुझे आरोपों का ख्याल नही आया ,
सैनिको पर आरोप लगाने से पहले …
ओ कैन्ह्या , तुझे “जय जवान जय किसान ” का नारा याद ना आया ||
माँ – बाप ने भी क्या नाम है रखा ,
एक कैन्ह्या को पूजे है देश सारा ,
उस देश को बदनाम करने से पहले …
ओ कैन्ह्या, तुजे कैन्ह्या का भी नाम याद ना आया ||
एस. राधाकृष्ण से चले जिस देश में गुरु का नारा ,
गुरु को गोद में बिठाने का तेरा गुरु – प्रेम दिखा न्यारा ,
ओ कैन्ह्या, आजादी के नारो के शोर में …
तुझे गुरु – प्रेम भी ना करना आया ||
फांसी को चूमकर मिली थी आजादी ,
कश्मीर की आजादी कहने से पहले …
ओ कैन्ह्या, तुजे देशभकत भगत सिंह ,राजगुरु ,
सुखदेव का ख्याल भी ना आया ||
भारत तेरे टुकड़े होंगे का जो तूने नारा लगाया ,
मुंह खोलने से पहले तुझे सियाचिन का जवान ना याद आया ||
अफज़ल अफज़ल का तूने राग पाया ,
ओ कैन्ह्या, 26/11 का हमला तुझे याद ना आया ||
जिन्होंने देश के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी ,
उनका सम्मान एक बार भी जहन में ना आया ,
सैनिको पर आरोप लगाने से पहले …
ओ कैन्ह्या, तुझे शहीदो का बलिदान भी याद ना आया ||
– सचिन सनसनवाल
पहला प्यार
January 8, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
ना मेरे हाथों में था लहू ,
ना लगी थी मेहेंदी उसके हाथों में ,
ना जाने क्यों फिर भी रंग था गहरा ||
ना वो अकेली थी ना मै अकेला था ,
था वहाँ घने लोगो का पहरा ||
कुछ लोगो की घूरती आँखें …
कुछ की थी तिरछी नजरें …
वो थी सहमी, था मै भी सहमा ||
ना मेरे हाथों में था लहू,
ना लगी थी मेहेंदी उसके हाथों में ,
ना जाने क्यों फिर भी रंग था गहरा ||
शायद थी नजरों की ही गुस्ताखी …
या थी दो दिलों की नादानी …
पर था वो प्यार मेरा पहला ||
~ सचिन सनसनवाल
वो दिन वो शाम ….
January 1, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता
होते है वो दिन ख़ास जब ना कुछ खाते है ना पीते है पानी,
बस किसी अपने अपने की याद में आँखों से बहता है नमक का पानी ||
होते है वो दिन ख़ास जब करते है किसी का घंटो इन्तजार ,
पता होता है फिर भी करते है किसी के झूठ पर विश्वास…
होते है वो दिन ख़ास जब साथ होते है दोस्त जिनसे करते है प्यार,
पर मिलता है दर्द वो करते है जब धोखे से पीठ पर वार…
कुछ दिनों की ख़ामोशी… फिर कुछ और दिन ख़ास….
जब जागती है किसी अन्जान के लिए दिल में आस ||
होने लगती है दिल की हर छोटी छोटी बात …
पर सहमे से रहते है की यह भी ना छोड़ दे हाथ ||
सोचो तो वो पल भी होता है खास जब लगता है हर रिश्ते से ना जाए हार …
पर डर लगता है की मतलबी जीत से वो ना जाए हमसे हार ||
होते है वो दिन बहुत ख़ास … जब हो जाता है किसी से प्यार …
पर खामोश रहते है जब पता होता है …
प्यार की आशिक़ी में पागल है अपना ही यार ||
बन जाती है फिर वो शाम खास
जब अपने प्यार को देना पड़ता है पागलपन का नाम
खवाबो से पहले देते है उनके नाम का आखिरी जाम ||
– सचिन सनसनवाल
एक अधूरा बचपन
December 19, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता
आंधी की आग में जला था एक घर,
हँसी थी गई, खिलौने थे टूटे, छूटा था एक बचपन !
घर था टुटा, आदर्श था छूटा ,
चल रही थी सासे, दम था घुटा,
दिखावटी थे अपने,थे उनके झूठे सपने,
दिन के उजालो में उम्मीद थी गयी मर,
रात के अंधेरो में माँ की आँखे थी तर,
एक आंधी में टुटा जो था घर !
रंगो-सजावट के जोर में, पटाखो के शोर में,
आई थी होली, आई थी दिवाली,
सुना सुखा अँधेरे में था एक घर !
रंगो-रौशनी के त्यौहार में कैसे बनाता ख़ुशी,
कैसे भूलता जलती रौशनी में बेरंग हुआ था एक घर,
हँसी थी गई, खिलौने थे टूटे, छूटा था एक बचपन !
ना बदली थी गीता, ना बदली थी कुरान,
सब पर समय था बलवान,
समय बदला था, बदला था हर इंसान …
समय ने आँखे भरी, भर आया हौसला,
जब तिनको से बनाती दिखी चिड़िया घोंसला,
यादो से आगे बनने चला था नया घर,
कोने में थी यादे, कोने में था बचपन,
ना आई वो हँसी, ना आये वो खिलौने, जो अधूरा था बचपन !
आंधी की आग में जला था एक घर,
हँसी थी गयी, टूटे थे खिलौने, छूटा था बचपन!
[सचिन सनसनवाल ]क्यों वो शख्स …?
October 19, 2015 in हिन्दी-उर्दू कविता
हाथ से मेरे कुछ लकीरें फिसल गई,
पलक झपकी ना थी कि…
पानी की कुछ बुँदे निकल गई,
एक झपकी मे ही सबकुछ बदल गया,
लाश तो एक गिरी थी …
पर इंसान हर एक बदल गया,
कुछ पलों मे ख्वाबो को छोड़ दिल जम गया,
मन मे है बस एक ही सवाल –
“क्यों वो शख्स बिछड़ गया “?
क्यों वो शख्स बिछड़ गया “?
-सचिन चौधरी (सनसनवाल)